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राहुल तोमर की कविताएँ

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जानकी पुल के मॉडरेटर होने का असली सुख उस दिन महसूस होता है जिस कुछ दिल को खुश कर देने वाली रचनाएं पढने को मिल जाती हैं. ऐसी रचनाएं जिनमें कुछ ताजगी हो. खासकर कविता में ताजगी देगे का अहसास हुए ज़माना गुजर जाता है. ज्यादातर कवि महज लिखने के लिए लिख रहे हैं. उनके पास कुछ लिखने को है नहीं. बहरहाल, एक अनजान कवि से परिचय ईमेल ने करवाया. राहुल तोमर होटल मैनेजमेंट के ग्रेजुएट है. इनका कहना है कि साहित्य में इनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी. अचानक 2-3 साल से वे पढने भी लगे, लिखने भी लगे. कविताओं में सच में बहुत फ्रेशनेस है. मुझे ओरहान पामुक के उपन्यास ‘स्नो’ का नायक याद आया. कविताएँ उस पर उतरती थीं. कविताएँ जब तक उतरें न तो उनका मजा ही क्या. अब आप राहुल तोमर की कविताएँ पढ़िए- मॉडरेटर

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अंत में
———

और अंत में तुम्हारे होंठों के कोरों
पर फटे चिथड़ों की भांति चिपके रह
जाएंगे शब्द

तुम्हारी जीभ जब करेगी उनका स्पर्श
तो तुम्हें याद आएंगी वह तमाम बातें
जिनका गला घोंट तुम भरते रहे दिल
के भीतर मौजूद चुप्पियों का दराज़

दुनिया को विदा कहने से पूर्व
तुम बनाना चाहोगे एक ख़ुशरंग लिबास

बटोरोगे होंठों के कोरों से चिथड़े
खंगालोगे चुप्पियों का दराज़
करोगे बहुत सी कोशिशें
पर अंततः
बस बना पाओगे एक बदरंग सी चादर
जहाँ उधड़ी होगी चिथड़ों के बीच की
सिलाई
जिससे झाँकती मिलेंगी चुप्पियाँ
चुपचाप।

धूप
——

जितनी भर आ सकती थी
आ गयी
बाकी ठहरी रही किवाड़ पर
अपने भर जगह के लिए
प्रतीक्षित

उतनी भर ही चाहिए थी मुझे बाकी के लिये रुकावट थी जिसका मुझे खेद भी नहीं था

दरवाज़े की पीठ पर देती रही दस्तक
उसे पता था कि दरवाज़ा पूरा खुल सकता है

जितनी भर अंदर थी उतनी भर ही जगह थी सोफ़े पर…

उतनी ही जगह घेरती थीं तुम

उतनी भर जगह का खालीपन सालता है मुझे
जिसे भरने का प्रयत्न हर सुबह करता हूँ।

बचपन
———-

बचपन को याद करते वक़्त
याद आता है स्कूल
जो सन 47 से पहले
का भारत लगता था
और छुट्टी प्रतीत होती थी आज़ादी सी

याद आते हैं गणित के शिक्षक
जिनके कठोर चेहरे पर
चेचक के दाग़ ऐसे लगते थे मानो
किसी भयावय युद्ध के हमलों के निशान
मुलायम पीठ पर लटके
किताबों से ठुंसे हुए भारी भरकम झोले
याद दिलाते थे
उस दिहाड़ी मज़दूर की जो अपनी पीठ
पर ढोता है सीमेंट
की बोरियां
क़ैदियों के धारीदार कपड़ों की तरह
सफ़ेद और नीली पोशाकें
और पुलिस के डंडों की भांति
दम्भ से लहराने वाली हरी सांठें
जो हम बच्चों के जिस्म पर दर्ज़ कराती थीं
लाल और नीले रंग में अपनी उपस्थिति

बचपन के उन कोमल दिनों की स्मृति
भरी पड़ी है बस कठोर पलों से
जिनमें
” नन्ही हथेलियों का छूना आकाश
और छोटे तलवों का नापना ब्रह्माण्ड ”
जैसी कल्पनाओं का कहीं ज़िक्र
तक नहीं…

प्रतीक्षा
———-

उसकी पसीजी हथेली स्थिर है
उसकी उंगलियां किसी
बेआवाज़ धुन पर थिरक रही हैं

उसका निचला होंठ
दांतों के बीच नींद का स्वांग भर
जागने को विकल लेटा हुआ है

उसके कान ढूँढ़ रहे हैं असंख्य
ध्वनियों के तुमुल में कोई
पहचानी सी आहट

उसकी आंखें खोज रही हैं
बेशुमार फैले संकेतों में
कोई मनचाहा सा इशारा

उसके तलवे तलाश रहे हैं
सैंकड़ों बेमतलब वजहों में चलने का
कोई स्नेहिल सा कारण

वह बहुत शांति से साधे हुए है
अपने भीतर का कोलाहल
समेटे हुए अपना तिनका तिनका
प्रतीक्षा कर रही है किसी के आगमन पर
बिखरने की।

मज़मून
———-
मेरे हाथों में है खाली लिफ़ाफ़ा
मज़मून कहाँ अंतर्ध्यान हुआ नहीं पता

हम साथ रह रहे हैं
एक रिश्ता है हमारे दरमियाँ
एक आवरण है जो बाहर से
बहुत सुंदर है
इतना सुंदर कि देखने वालों के भीतर
ईर्ष्या के बीज अंकुरित हो जाएं

मैं खाली लिफ़ाफ़े को देखता हूँ
और फिर हमारे रिश्ते को

मज़मून की अनुपस्थिति के खेद अंदाज़ा केवल
लिफ़ाफ़ा खोलने वाले हाथ ही लगा सकते हैं।

 

अंततः
———-

प्रकाश से बनी चाबी से
हम खोलते हैं अन्धकार से घिरा दरवाज़ा
और पाते हैं स्वयं को और गहन अन्धकार में
एक नए अन्धकार घिरे हम
फिर खोजने लगते हैं एक नया दरवाज़ा
जिसके मिलते ही हम वापस दौड़ पड़ते हैं
प्रकाश की ओर
हासिल करने एक और चाबी

वर्षों की भागादौड़ी के बाद भी
अंततः बस यही जान पाते हैं

कि सारी चाबियाँ प्रकाश से बनती हैं
परंतु वे जिन दरवाज़ों को खोलती हैं
वे सब के सब अंधकार की ओर
खुलते हैं।

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