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लोकप्रिय शैली में लिखी गंभीर कहानियां

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आकांक्षा पारे बहुत जीवंत, दिलचस्प कहानियां लिखती हैं और वह बिना अधिक लोड लिए. इसीलिए कथाकारों की भीड़ में सबसे अलग दिखाई देती हैं. उनके कहानी संग्रह ‘बहत्तर धडकनें तिहत्तर अरमान’ पर एक अच्छी समीक्षा लिखी है युवा लेखक पंकज कौरव ने, जिनके लेखन का मैं खुद ही कायल रहा हूँ- प्रभात रंजन

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कितनी ही कहानियों को अनुक्रम में पीछे छोड़कर एक कहानी किताब का शीर्षक बनती है. एक संग्रह की यही नियति है. ऐसा कम ही होता है कि वह शीर्षक सही अर्थों में संग्रह में संकलित सभी कहानियों का प्रतिनिधित्व कर पाये. आकांक्षा पारे काशिव के नये कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी ‘बहत्तर धड़कने तिहत्तर अरमान’ यह काम बखूबी करती है. अच्छा है कि आकांक्षा मिर्ज़ा ग़ालिब़ की तरह ‘बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले’ वाली पशोपेश में नहीं दिखतीं. अरमानों की जितनी लंबी फेहरिस्त मुमकिन हुई उन्होंने पेश कर दी है.

पूरी ईमानदारी के साथ कहा जाए तो इस संग्रह का शीर्षक ही सबसे पहला आकर्षण रहा और सभी चौदह कहानियों से गुजरने के बाद यह कहा जा सकता है कि आकांक्षा पारे की कहानियां गंभीर लेखन की ऐसी कहानियां हैं जिनमें लोकप्रिय लेखन में इस्तेमाल होने वाला सारा ईंधन है. बस यूं समझ लीजिए जैसे जेट प्लेन का ईंधन मानो एक चापाकल(नलकूप) से पानी खींचने वाले डीजल इंजन में इस्तेमाल हो रहा हो. वह इंजन यथार्थ के धरातल में कहीं गहराई से ठंडा-मीठा पानी खींचकर खेतों में पहुंचाता है. कठिन जीवन के थपेड़ों से कुंभलाए पौधे वह पानी पाकर ताज़गी से भर उठते हैं. पानी से फसलों में हरियाली आ रही है. क्या हुआ जो उस ईंधन का इस्तेमाल किसी रोमांचक उड़ान में नहीं हुआ अगर देखने वाले की नज़रों में रोमांच की असली परख रही तो लहलहाती फसल देखकर भी वह खुद को रोमांचित होने से नहीं रोक पायेगा. बस आकांक्षा का लेखन भी कुछ ऐसा ही लगा. नकली रोमांच पैदा करने की कोई सायास कोशिश नहीं. सनसनी पैदा करके पढ़ने के लिए मजबूर करने वाली कहानियां नहीं निकलती हैं आकांक्षा की कलम से, बल्कि पूरी कहानी पढ़ने के बाद एक सनसनी सी पीछे छूट जाती है.

हां संग्रह की तीन शुरूआती कहानिया ज़रूर ‘प्रेडिक्टेबल’ होती हुई लगीं. ख़तरा ऐसा कि संवेदनशील पाठक मूल भावना से हटते ही कयासों में उलझ जाए और फिर एक आम पाठक अनुमान लगाए बिना मानता भी कहां है. आगे क्या होगा? लेखक इस कहानी में क्या कहना चाहता है? कहानी पढ़ना शुरू करते ही ऐसे सवाल अपने आप पीछे लग जाते हैं. संग्रह की पहली ही कहानी ‘बहत्तर धड़कनें तिहत्तर अरमान’ के साथ भी यही अनुभव रहा. अब क्योंकि पुरूष पात्र अभय शुक्ला और महिला पात्र का नाम नौरीन है इसलिए दिमाग सोचने में देर नहीं लगाता कि हो न हो यह दो अलग-अलग धर्मों से संबंध रखने वाले एक दंपति की सफल या असफल प्रेम कहानी है. लेकिन अनुमानित रेंज के बावजूद कहानी का विस्तार बांधता जाता है. अंत तक पाठक अगर अपनी संवेदनशीलता बरकरार रख पाया तो कहानी की अंतिम परिणति का कयास लगाये जाने के बावजूद वह ऐसी स्थिति में पैदा होने वाली विसंगतियों के मार्मिक चित्रण से मुग्ध हुए बिना नहीं रह पाता.

‘सखि साजन’ नये सामाजिक परिवेश में समलैंगिकता की गहन पड़ताल करती संग्रह की बेहद महत्वपूर्ण कहानी है. लेस्बियन संबंधों पर तटस्थ और वस्तुनिष्ठ रह पाना मुश्किल काम माना जा सकता है. सतही तौर पर लग सकता है कि ‘सखि साजन’ इस काम में सफल हुई है लेकिन एक मां की नज़र से अपनी बेटी के लेस्बियन संबंधों का पटाक्षेप यहां कई अर्थों में समलैंगिकता पर एकांगी दृष्टिकोण के साथ छूट जाता है. ‘कंट्रोल ए +  डिलीट’ कथ्य के मामले में लाजवाब है. एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर के उन्माद की पराकाष्ठा यहां जिस विकृत घटनाक्रम के रूप में प्रकट होती है वह चौंकाता है. सन्न कर जाता है. ‘रोबोट इंसानों की तरह बनाए जा रहे हैं और इंसान रोबोट बनता जा रहा है.’ कहानी का यह वाक्य किसी मारक की तरह संवेदनाओं को झकझोर जाता है. लेकिन साथ ही अंतिम पैराग्राफ कहानी के बेहद खूबसूरत क्राफ्ट में मखमल में टाट के पैबंद की तरह खटकता भी है. ‘तमाम गवाहों, बयानो और मुजरिम के इकबालिया बयान…’ वाला पूरा पैरा बेहद फिल्मी, गैरज़रूरी और कुछ ऐसा है मानों सदियों से धरती को अपने कंधों पर उठाये खड़े रहने वाले एटलस ने यकायक पृथ्वी को पटक दिया हो. इतनी सधी हुई कहानी को आकांक्षा अंतिम लाइन तक भी साधे रह पातीं तो सोने पे सुहागा वाली बात हो जाती. शुरूआती तीनों रचनाओं में किसी भी स्तर पर कहानी का प्रेडिक्टेबल हो जाना व्यक्तिगत तौर पर एक कमज़ोर पक्ष लगा.

‘दिल की रानी, सपनों का साहजादा’ संग्रह की सबसे ज्यादा गुदगुदाने वाली कहानी है. एक प्रेमी युगल विशाल और मंजू के प्रेम पत्रों के जरिए लिखी गई यह कहानी छोटे, मंझोले शहरों और कस्बों में परवान चढ़ने वाली मुहब्बत की अक्सर फलित होने वाली अंतिम परिणति है और इस बात की तस्दीक भी कि समाज में शाम दाम दंड भेद जैसे भी हो प्रेम हासिल करना लड़के का जन्मसिद्ध अधिकार है, वहीं लड़की का प्रेम अब भी प्रेमी की दया पर निर्भर है. हालांकि मंजू इसे अस्वीकारने का साहस करती है. ‘कठिन इश्क की आसान दास्तान’ इस संग्रह की एक सबसे ईमानदार अभिव्यक्ति लगी. इस कहानी में एक स्कूल टीचर अपनी अड़तीस वर्षीय सहकर्मी मिस पालीवाल का जिस तरह खाका खींचती है और अंत में उसके आकर्षण का केन्द्र रहा युवा शिक्षक चौहान जिस तरह अपने जीवनसाथी के चुनाव से सबको चौका जाता है वह बेहद रोचक और रोमांचक है. ‘लखि बाबुल मोरे’ इस संग्रह की बेहद मासूम और संवेदनशील कहानी है. जिसमें एक पोती अपनी दादी की बीमारी की वजह से उनके शहर आती है. उसी शहर में जिसे उसके मां-बाप भी उसके पैदा होने के बाद छोड़ गये थे, साथ ही खुद उसे भी. कुल मिलाकर यह रिश्तों की गर्माहट भरे नीड़ में वापसी की मार्मिक कथा है.

पिता से रिश्ता बयान करने वाली संग्रह की दो कहानिया ‘फूलों वाली खिड़की’ और ‘डियर पापा’ ख़ास तौर पर दिल को छू गईं. हालांकि ‘फूलों वाली खिड़की’ पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना की टोह लेती हुई प्रेम गली में चली जाती है लेकिन ‘डियर पापा’ इस मामले में कमाल की कहानी है. ज्ञानरंजन और धीरेन्द्र अस्थाना की ‘पिता’ शीर्षक वाली कहानियां पढ़ने के बाद ‘डियर पापा’ से होकर गुजरना अपने आप में  रोमांचक है. पिता को पत्र की शैली में लिखी इस कहानी को पिता पुत्र संबंधों की तीसरी पीढ़ी का शुरूआती आख्यान कहा जा सकता है.

‘रिश्ता वही, सोच नयी’ हरमीत के दंश से जली बैठी प्रभजोत की मार्मिक व्यथा है. एक बार छले जाने के बाद वह खुद को कछुए की तरह अपनी भित्ती में समेट लेती है. फिर किसी की प्यार भरी नज़र उसके अरमानों को हवा दे जाती है. उम्मीदें जाग जाती हैं लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात! ‘दुकान वाली मौसी’ बचपन की ओर लौटा ले जाने वाली कहानी है. ऐसी कहानी जहां काबुलीवाला जैसा कोई है जिसके व्यक्तित्व की कशिश बड़े होने पर भी नहीं भूलती. मध्यप्रदेश के ताल-तलैया वाले शहर के एक छोटे से मोहल्ले की कहानी है यह. जहां एक परिवार से जुड़े बच्चों ने गर्मी की छुट्टियों के यादगार दिन बिताये हैं. उन्हीं दिनों की याद हैं दुकान वाली मौसी और उनकी याद के साथ जुड़ी है एक छोटी सी मड़िया और उससे लगी एक मजार. मंगलवार को बूंदी के प्रसाद और शुक्रवार के दिन बंटने वाली रेवड़ी और शरबत के सहारे कटने वाला बचपन कैसे एक दिन कर्फ्यू में कैद हो कर रह जाता है यही इस कहानी का तानाबाना है. ‘कैंपस लव’ कॉलेज वाले प्यार की कहानी है, ट्विस्ट इतना भर है कि प्रियंका और मिताली दोनों को एक ही लड़का पसंद था. शर्तिया तौर पर यह कहानी आपको भी अपने कॉलेज के दिनों की याद दिला ही देगी.

संग्रह की अगली कहानी हर घर की कहानी है. जहां भी एक दंपति लड़ते झगड़ते दिख जायें. एक हद तक बेशुमार प्यार के बाद जब छोटी-छोटी बातों पर बहस हो, गुस्से का सारा गुबार दिल में भरे बैठे रहें और उसकी कड़वाहट रिश्ते की मिठास को काटने लग जाये, तब समझ लीजिए की आपकी कहानी में भी यह ‘मध्यांतर’ आ गया है. सीमा और पूरब की जिन्दगी के मध्यांतर की डिटेलिंग को आकांक्षा ने बेहद खूबसूरती के साथ चित्रित किया है.

विशुद्ध रूप से स्त्री विमर्श के खाने में रखी जाने वाली कुछेक कहानियां ही इस संग्रह में शामिल हैं. हालांकि स्त्री विमर्श की गूंज आकांक्षा की लगभग सभी कहानियों में महसूस कर सकते हैं लेकिन ‘रिश्ता वही, सोच नयी’ और ‘प्यार व्यार’ स्पष्ट तौर पर स्त्री के हक की वही बात करती हैं जिसे कभी दमन तो कभी स्वच्छंदता की सौगात देकर बहला दिया जाता है. अपने शादीशुदा पूर्व प्रेमी के साथ कैफ़े कॉफी डे में बैठी नायिका भी इन्हीं सवालों से दो चार हो रही है. अंत में वह जिस बेबाकी से अपना स्टैंड क्लियर करती है वह सुखद आश्चर्य की अनुभूति देता है.

और अब अंत में बात इस संग्रह की सबसे दिलकश कहानी ‘निगेहबानी’ की. अड़तालीस वर्षीय दया प्रसाद पांडे की लखटकिया नौकरी के बहाने आकांक्षा ने कार्पोरेट जैसे हो चले अखबारों के कामकाज का जो खाका खींचा है वह सीधे दिल में पैठ बना जाता है. यह अधेड़ उम्र को छू रहे और कार्पोरेट कल्चर की दौड़ में पिस रहे हज़ारों लोगों की मार्मिक दास्तान है. मेट्रो की दौड़ में शामिल होकर दफ्तर की बायोमेट्रिक मशीन में उंगली छुआकर अपनी उपस्थिति दर्ज करने वाली हजारों उंगलियां इस कहानी में खुद को महसूस करेंगी.

कुल मिलाकर आकांक्षा की कहानिया नये दौर में नये मिजाज़ की कहानियां हैं. ये कहानियां उन्हें तो ज़रूर ही पढ़नी चाहिए जिन्हें लगता है कि हिन्दी के गंभीर लेखन में विषयों की विविधता नहीं होती.

शीर्षक- बहत्तर धड़कनें तिहत्तर अरमान

विधा- कहानी

मूल्य- 125 रूपये

प्रकाशक – सामयिक प्रकाशन, दरियागंज, दिल्ली।

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