सुहैब अहमद फ़ारूक़ी पेशे से पुलिस अधिकारी हैं मिज़ाज से शायर। इस लेख में उन्होंने याद किया है नश्तर अमरोहवी को, जिनका ताल्लुक़ ज़ौन इलिया के वतन अमरोहा से था। क्या शिद्दत से याद किया है उनको सुहैब जी ने-
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ऐ ग़मे ज़ीस्त हम किधर जाएं
इतनी फ़ुर्सत नहीं कि मर जाएं
जो बवंडर हैं ख़्वाहिशों के सुहैब
हम को बे बालो पर न कर जाएं
7 अप्रैल 2017
—‘क्या बेगम को लाया जा सकता है?’
—‘जी जनाब, गुस्ताख़ी मुआफ़, अलबत्ता अपनी मतलब, भाबीजी को लाएँ तो बेहतर रहेगा।‘ मेरा जवाब था।
व्हट्सएप चैट को रुकना पड़ा। फ़ौरन मेरे मोबाइल फ़ोन पर कॉल आ गई और बिना दुआ सलाम के क़हक़हों का सैलाब आ गया। अपने कलाम से सुनने वालों को क़हक़हा लगवाने पर मजबूर करने वाले, ख़ुद मेरे इस जुमले पर क़हक़हा लगा रहे थे। दरअस्ल, हमने रोहिणी से ग़फ़्फ़ार मंज़िल, जामिया नगर शिफ़्ट किया था। इस मौक़े पर एक मुख़तसर हाउस-वार्मिंग पार्टी का एहतिमाम शाहीन बाग़ के एक बेंक्वेट में किया गया था। उसी सिलसिले में जनाब नश्तर अमरोहवी साहब से यह गुफ़्तगू हुई थी।
15 सितंबर को नाईट-पेट्रोलिंग ड्यूटी थी। अगले रोज़ मेरा बड्डे था। बड्डे था तो अगले रोज़ मगर, जब से बिटिया ने होश संभाला है, बर्थडे की मुबारकबाद रात के 0000 Hours पर देना ज़रूरी हो गई है। नाईट-पेट्रोलिंग बारी से पहले आ गई थी, इसलिए रवानगी शब-बाशी न हो सकी। ज़ेहन पर अजीब सी तन्हा और उदास सी कैफ़ियत तारी थी। नाईट-पेट्रोलिंग के दौरान दिल्ली की चमचमाती मगर सुनसान सड़कों को निहारते हुए अक्सर मुझे असरार-रूल-हक़ मजाज़ लखनवी की नज़्म आवारा याद आती है। सो वही (फिल्म ठोकर-1953) यू-ट्यूब पर लगाई। तलत महमूद साहब की मख़मली आवाज़ और ख़ुद को फ़ेसबुक पर लाइव कर लिया। घर पर बात हो गई। ऑनलाइन दोस्तों से मुलाक़ात के बाद इण्डिया-गेट सी-हेक्सागन पर अपने ‘रात-के-हमसफ़रों जो थकने के बावजूद घर नहीं जाते, से ऑफ़ लाइन यानी अस्ल मुलाक़ात हुई । उन ‘कुत्तों-कमीनों ने ‘मुझे तुम से हैं कितने गिले-तुम कितने दिन बाद मिले’ की तर्ज़ पर मेरी क्लास ले ली। पूरे दो महीनों बाद वाली मुलाक़ात जो थी। गिले-शिकवे दूर होने के बाद मैं काफ़ी हल्का महसूस कर रहा था।
थाने के नौकरी में आप सोएं कभी भी लेकिन आपको उठना ‘मॉर्निंग-डायरी’ के फिक्स्ड वक़्त पर ही पड़ता है। पूरे डेढ़ घंटे की लंबी नींद के बाद उठने पर दिलपज़ीर सरप्राइज़ मिला। घर ख़ुद चलकर थाने आया हुआ था। हम सब पार्क चले गए। सुब्ह बल्कि रात से ही संचार के हर माध्यम के ज़रिए मेरे ख़ैर-ख़्वाहों के जन्मदिन-बधाई-सन्देश मिल रहे थे। घर को अटेण्ड करते हुए साथ-साथ बधाई-संदेशों के जल्द-से-जल्द रिप्लाई भी दे रहा था। घर और बाहर में संतुलन और सामंजस्य बिठाना ही कामयाब थानेदार की पहचान है। नहा-धोकर ऑफिस में बैठ गया । एक और सरप्राइज़ इंतज़ार कर रहा था। ‘लड़कों’ ने थाने में बर्थडे-पार्टी का बंदोबस्त किया हुआ था। ‘लड़कों’ के सम्बोधन में आपको टीम-कप्तान वाली फ़ील आती है। केक-कटिंग, बुके-रिसीविंग वगैरह-वगैरह निपटान के बाद बैठा हुआ सरकारी-लिखा-पढ़ी में व्यस्त था। तभी मुझे बताया गया कि रिसेपशन पर कोई अशफाक़ अंसारी है, कह रहा है कि पाताल-लोक से है, आप से मिलना चाहता है। कोविड-प्रोटोकाल के तहत थाने में किसी भी विज़ीटर को पूरी तरह सेनिटाइज़ और जांच-पड़ताल के बाद ही प्रवेश दिया जाता है। सचमुच आज मेरा बर्थडे मुकम्मिल तौर पर सरप्राइज़-डे बना हुआ था। इशवाक सिंह उर्फ़ सब-इंस्पेक्टर इमरान अंसारी पाताललोक वाले आए हुए थे। थाने के संतरी ने इशवाक सिंह और इमरान अंसारी को मिला कर अशफाक़-अंसारी बना दिया था। फिर भी कुछ विद्वानों को पुलिस की बुद्धिमत्ता पर शक रहता है। थाना जगमग जगमग हो गया था। बिटिया-भांजे, सीनियर, कुलीग्स व स्टाफ़ पर मेरी धाक जाम गई थी। बर्थडे मेरा ज़रूर था मगर आव-भगत इशवाक की ही हो रही थी। बिटिया आजकल एक इंडिपेंडेंट-एंटिटी के रूप में व्यवहार करने लगी है। पिछले तीन साल से उसकी आरज़ू स्पेस साइंटिस्ट बनने पर क़ायम है मगर, वह अपने स्पेस में किसी का दख़्ल पसंद नहीं करती और अपने कमरे रूपी ऑर्बिट में किसी अन्य पिंड का प्रवेश अवांछित मानती है। वह भी बॉलीवुडीय आभा-मण्डल के प्रभाव में आ चुकी थी और इशवाक सिंह के थाने में ठहरने तक मुस्तक़िल एक कुर्सी पर क़ब्ज़ा जमाए बैठी रही। इस मनहूस कोरोना-काल में खुल-कर बर्थडे सेलिब्रेशन न कर सकने का मलाल न रहा । काफ़ी दिनों बाद एक यादगार दिन गुज़रा।
रात गुज़ारी के लिए घर पहुंचा ही था कि करीब सवा दस बजे ऐजाज़ अंसारी साहब का फ़ोन आया और नश्तर साहब के ‘न रहने’ की ख़बर मिली। यक़ीन नहीं आया। इस बेयक़ीनी पे क़ायम रहने की ख़्वाहिश में सलीम अमरोहवी साहब को फ़ोन लगाया। उनको पता न था। जल्दी से फ़ेसबुक पर गया। किसी नाआशना प्रोफ़ाइल पर ख़बर कनफ़र्म पाई। दिल बैठता सा गया। कश्फ़ साहिबा भी स्तब्ध और अवाक थी। नश्तर साहब से फ़ोन और व्हाटसएप पर उनके मुझ से ज़ियादा मुरासलात थे। इस ‘ज़ियादा मुरासलात’ में नौकरी के चलते मेरे पास वक़्त की कमी और कश्फ़ साहिबा का अरूज़दाँ होना है। फिर सलीम साहब की भी रिटर्ण्ड-कॉल आ गई। आह, आह, आह!
साल 2020 ने बहुत ज़ियादा बेरहम और ज़ालिमाना रवैया अख़्तियार कर लिया है या शायद मेरे साथ ही ज़ियादा ज़ाती अदावत निभा रहा है। पिछले ग़म से हासिल आँसू अभी सूख नहीं पाते कि….. नश्तर साहब के साथ जुड़ी हुई यादें फ़िल्म के फ़्लैशबैक रील की तरह चलने लगीं।
मार्च 2017: किसी सयाने ने कहा है किसी के बारे में अच्छे से जानना हो तो उसके साथ लम्बा सफ़र करना चाहिए। ऐसी ही बात परवीन शाकिर ने भी कही है कि ‘हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ—-दो घड़ी की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं’। लड़कियाँ शब्द को आप सिर्फ़ मेटाफ़र के तौर पर लें क्यूंकि हम दोनों ही पुरुष हैं और वो भी सज्जन पुरुष। जनाब अख़्तर आज़मी के सौजन्य से पहला इण्टरस्टेट मुशाइरा पढ़ने का मौक़ा मिला था नरकटियागंज, बिहार में। हम चार शायर लोग (वैसे शायर के साथ लोग का इस्तेमाल ग़लत है क्यूंकि अगर कोई लोग एक बार शायर बन जाए तो फिर ज़िंदगी भर शायर ही रहता है। यूसुफ़ी साहब से माज़रत, क्यूंकि उन्होने प्रोफ़ेसर के लिए यह जुमला कसा था), ऐजाज़ साहब, नश्तर साहब, अख़्तर आज़मी और ख़ाकसार पुरानी दिल्ली कश्मीरी गेट की तरफ़ वाले आख़री प्लेटफ़ार्म पर इकट्ठा हुए थे। वह पहली मुलाक़ात थी लेकिन अपना जंगल तो अपना ही होता है। नश्तर साहब से मिलकर बिलकुल भी नहीं लगा कि पहली मुलाक़ात है। मेरे गाँव से दिल्ली का रास्ता अमरोहे से होकर जाता है। यह बात मैं फिर आपको याद दिलाना चाहता हूँ। दिल्ली से नरकटियागंज का सफ़र बहुत ही यादगार सफ़र है। चालीस प्लस के बाद बहुत दिनों बाद जवानी में दोस्तों के साथ किए गए कई कुँवारे सफ़र याद आ गए थे। रास्ते में राजीव रियाज़ प्रतापगढ़ी और शरफ़ नानपारवी साहबान भी इस सफ़र से जुड़ गए।
सफ़र के पहले मरहले में गाड़ी और मुसाफ़िरों का सामान दोनों बंधे हुए होते हैं। लेकिन जैसे ही गाड़ी खुलती है, रख़्ते-सफ़र को खोलते-खोलते हमसफ़र भी आपस में खुलने लगते हैं। इस खुलम-खुलाई में नश्तर साहब और मैं, दिल्ली से सीधे अमरोहा पहुँच गए। शाह विलायत, लकड़ो, वासुदेव मंदिर, कटकुई, कोट, जट्ट बाज़ार, बान वग़ैरह तक ट्रेन में ही घूमने लगे। बान के ज़िक्र पर हज़रत जौन एलिया की ग़ज़ल ‘उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या’ बातों के बीच आ गई। इस ग़ज़ल के आख़िरी शेर ‘ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता- एक ही शख़्स था जहान में क्या’ से मैं वालिद साहब को अक्सर याद किया करता हूँ। तब भी किया। आह! कोई रहता है आसमान में क्या। ख़ैर इस ग़ज़ल से ये दो अशआर देखें:-
अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं
हम ग़रीबों की आन बान में क्या
ऐ मिरे सुब्हो शामे दिल की शफ़क़
तू नहाती है अब भी बान में क्या
‘बान’ को सिर्फ़ वही जान सकता है जो अमरोहा को सिर्फ आम और रोहू के हवाले के इलावा भी जानता हो। इस आन की ‘बान’ और नहाने वाली ‘बान’ में फ़र्क़ वही कर सकता है जो सोत और सौत में अंतर जानता हो। चलिए बता ही देता हूँ। सोत और बान अमरोहे की नदियाँ हैं। अमरोहा बस्ती गंगा-जमुनी तहज़ीब की एक ज़िंदा विरासत है जो तमाम तर गिलाज़त और आलूदगी के बावजूद इन दोनों नदियों की तरह अभी भी सांस ले रही है, बह रही है। नदियों के बहने के ज़िक्र पर नश्तर साहब ने लतीफ़ा यूं सुनाया था।
बिहार और देहली के दो शायर हज़रात के दरमियान ‘नदी’ के पुल्लिंग और स्त्रीलिंग होने पर गर्मागर्म बहस हो रही थी। दिल्ली वाले शायर साहब बज़िद थे कि ‘नदी बहती है’ उधर बिहार वाले मुहतरम ‘नदी बहता है’ पर अड़े हुए थे। अमरोहा के मुहल्ला दानिशमंदान के एक शायर का उधर से गुज़र हुआ। दिल्ली और बिहार के बीच का रास्ता निकाला गया और अमरोहे वाले वाले उस दानिशमंद ने बड़ी ग़ौर ओ फ़िक्र के बाद फ़ैसला सुनाया, ‘नद्दी ना तो बहती है अर ना बहता है। नद्दी तो बैवे।’
ख़ैर यह तो मज़ाक़ हो गया। एक और आंचलिक शब्द ‘चाँदना’ का इस्तेमाल भी जौन अमरोहवी की शायरी में हुआ है। ‘सेहने ख़याले यार में की बसर शबे फ़िराक़- जब से वो चाँदना गया जब से वो चाँदनी गई’ । इस चाँदने को समझने के लिए आपको अमरोहवी होना पड़ेगा। मतलब वन्स एन अमरोहवी आलवेज़ एन अमरोहवी। अब आप चाहे हिजरत करके दिल्ली/मुम्बई/कनाडा/पाकिस्तान चले जाओ, रहोगे आप अमरोहे के ही। मैं आपको फिर याद दिलाना चाहता हूँ कि मेरे गाँव से दिल्ली का रास्ता अमरोहे से होकर जाता है। इसी सफ़र में नश्तर साहब का पूरा नाम सैयदैन शुजा नक़वी मालूम हुआ। उनसे ही सैयदैन, हसनैन, मग़रबैन जैसे मुसन्ना अलफाज़ के मतलब मालूम हुए। यह भी एक बार फिर मालूम हुआ कि इल्म का समुंदर कितना वसीअ और कितना गहरा है और आपकी समझ की औक़ात कितनी छोटी। रब्बि ज़िदनी इल्मा वर ज़ुक़नी फ़हमा। (Lord, increase my knowledge, and give me understanding).
नश्तर साहब ने जौन एलिया के हवाले से और भी बातें बताईं थी। ख़ानवादे के एतिबार से उनकी आपस में बहुत नज़दीकी थी। एक बार जब जौन एलिया परदेस से अपने वतन अमरोहा आए थे तब नश्तर साहब की वालिदा ने उनकी शराबनोशी की आदत की वजह से उनसे मिलने से मना कर दिया था। ‘यह मुझको तो कोई टोकता भी नहीं—यही होता है ख़ानदान में क्या’
19 सितंबर 2020: मेरी हैसियत नहीं है कि किसी कलाम के चरबे और सरक़े पर तबसिरा करूँ। मगर मैंने किसी भी मुलाक़ात या मुक़ाम पर नश्तर साहब को परेशान या विचलित नहीं देखा। हर बार की तरह खुशअख़लाक़ी और पुरजोशी के साथ मुझ से हर तौर पर बड़े होने के बावजूद ‘फ़ारूक़ी साहब’ से ही ख़िताब करते। स्टेज पर या स्टेज से अलग मैंने उनको कभी भी कुढ़ते और किसी की बुराई करते हुए नहीं सुना। ख़ुशउस्लूबी और खुशअख़लाक़ी एक तंज़ ओ मिज़ाह के शायर की शख़्सियत के लिए बिलकुल ज़रूरी है। मेरी इस फ्री-ऑफ़-कॉस्ट राय से कुढ़े-कुढ़े से रहने वाले शायर और शायरात मुस्तफ़ीज़ हो सकते हैं। जितना मानसिक व शारीरिक फ़ोर्स हम दूसरों को बदलने या दुरुस्त करने में लगाते हैं या लगाना चाहते हैं। उसका दस फ़ीसद भी अपने को बदलने में या दुरुस्त करने में लगाएं तो दूसरों का भला हो न हो आपकी अपनी ‘शुद्धि’ हो सकती है।
यह अलमिया मेरी ज़िंदगी के साथ रहेगा कि उनकी वफ़ात मेरे योमे पैदाइश के साथ जुड़ गई है। कुछ मुख़लिस दोस्तों ने बर्थडे सेलिब्रेट करने का 18 सितंबर को प्लान किया था। मनाएं या न मनाएं? पसो-पेश की कैफ़ियत थी। एक तरफ़ ‘शो मस्ट गो ऑन’ था। मगर नश्तर साहब की वफ़ात मेरे लिए एक ज़ाती नुक़सान है। अभी तक यही लगता है कि नश्तर साहब किसी महफ़िल में मिल जाएँगे और अपनी उसी मख़सूस खसखसाती आवाज़ में कोई जुमला कसते हुए मुझे मेरे सलाम करने से पहले ही सलाम कर लेंगे। क्या ज़िंदादिल शख़्स था। आज तीसरा दिन है मगर सदमे से उबर नहीं पाया हूँ। मेरी हालत अभी तक ख़ुशी मे शामिल होने की नहीं है। लेकिन ज़िंदगी का शो तो चलना ही है। खाना भी है, पीना भी है। गाना भी है, रोना भी है। और तो और दोस्तों आपके बर्थडे विशेज़ के जवाब भी देने हैं। मेरी कैफ़ियत को मेरा यह शे’र बयान करता है:-
मौत आकर न किसी रोज़ पकड़ ले दामन
हम इसी खौफ़ में जीते हुए मर जाते हैं
कल एजाज़ साहेब से फिर बात हुई। उनकी ज़िंदगी के कुछ और पहलुओं के इलावा यह भी मालूम हुआ कि नश्तर साहब अमरोहा में नया मकान तामीर कराकर अभी फ़ारिग ही हुए थे। हाए!दिल बड़ा परीशान है। ख़यालात मुंतशिर है। लिखना मेरी पनाहगाह है। लिखकर ही शायद कुछ क़रार मिले। बर्थडे सेलेब्रेशन, शुभचिंतकों की शुभकामना-संदेशों, नश्तर साहब, शहरी ज़िंदगी की आपाधापी मतलब ‘मेरे पास टाइम नहीं है’ और टारगेट्स को पूरा करने की ला-महदूद दौड़ के ख़यालात के बीच यह चार लाइनें हुईं:-
ऐ ग़मे ज़ीस्त हम किधर जाएं
इतनी फ़ुर्सत नहीं कि मर जाएं
जो बवंडर हैं ख़्वाहिशों के सुहैब
हम को बे बालो पर न कर जाएं
दुआओं में याद रखिएगा!
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फ़ोटो मार्च 2017, नरकटिया गंज का है।
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