‘हिचकी’ फिल्म पर यह लेख लेखिका पूनम अरोड़ा(श्री) ने लिखा है. अच्छा लगा तो साझा कर रहा हूँ- मॉडरेटर
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नैना माथुर को टुरेट सिंड्रोम है जिसे साधारण भाषा में समझा जाए तो ‘बार-बार हिचकी आना, चेहरे के हाव-भाव अलग दिखना, गले से कुछ आवाज़े आना और आँखों का झपकना जैसे लक्षण इस सिंड्रोम से पीड़ित इंसान में दिखाई देते हैं. लेकिन ये हिचकियाँ और आवाज़े नैना के जीवन का हिस्सा हैं जिसे उसने स्वीकार कर लिया है. इन हिचकियों के साथ जीवन में अपने सपने को पूरा करना उसके लिए कोई बहुत आसान नही होता. वह बार-बार अस्वीकृत कर दी जाती है. उसके गले से आनी वाली आवाज़ों के लिए उसे हमेशा और हर जगह पर लोगों के अलग मनोभावों का सामना भी करना पड़ता है.
लेकिन फिल्म केवल नैना की ही बात नहीं करती बल्कि हमारे पूरे एजुकेशन सिस्टम, अध्यापन के तरीकों, निम्न वर्ग की समस्याओं और उन समस्याओं से जूझते हुए भी अपनी संतानों के लिए सुरक्षा और शिक्षा का स्वप्न देखते रहने की और बड़ी शिद्दत से उन सपनों को पूरा होने की कामना करते अभिभावकों की बात भी करती है.
यहाँ इस बात पर प्रश्नचिन्ह है कि प्रतिभाओं को निखारा और तराशा जाता है, कभी सॉफ्ट तो कभी शार्प टूल से. ऐसे में विद्यार्थी चाहे किसी भी वर्ग से संबंध रखता हो, उसकी पारिवारिक और आर्थिक स्थिति कैसी भी हो यह मायने रखने की बात कदापि नही होनी चाहिए. लेकिन हमारे समाज में ऐसी भी मानसिकता है जहाँ निम्न वर्ग और पॉश समाज के मध्य एक दूसरे को समान रूप से अपनाना एक बड़ी समस्या है. फिल्म के कुछ दृश्य हृदय पर चोट करते हैं कि बचपन कितना कुछ सीखता है अपने अनुभव से और उससे भी ज्यादा पीड़ा की बात यह है कि ‘किस तरह से’ सीखता है.
यही एक प्रश्न है जिसके इर्द-गिर्द फिल्म की कहानी घूमती है.
नैना माथुर जो कि एक टीचर बनना चाहती है अपनी हिचकियों की वजह से बहुत से स्कूलों से रिजेक्ट होती हुई आखिरकार एक स्कूल में नौकरी पा लेती है. उसे 9F क्लास को पढ़ाना होता है जो कि स्कूल का आखिरी बैच है जिसमे स्लम एरिया के बच्चे पढ़ते हैं. ये बच्चे स्कूल के दूसरे बच्चों द्वारा कभी नही अपनाए जाते. यहाँ तक कि अध्यापकों द्वारा भी इन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता है. ऐसे में नैना इनके लिए उम्मीद की एक लौ बनकर आती है. हालांकि वो बच्चे नैना को स्कूल से निकालने की बहुत कोशिश करते हैं क्योंकि उनके साथ अध्यापकों द्वारा कभी उचित व्यवहार नहीं किया जाता रहा है. लेकिन नैना इसे एक चुनौती की तरह लेती है. यह चुनौती केवल उन बच्चों को पढ़ाना और स्कूल में समान रूप से अपनाए जाने की नही है बल्कि नैना का एक संकल्प है कि उसे भी समाज द्वारा वैसा ही स्वीकार किया जाए जैसी वो अपनी हिचकियों के साथ है. नैना भी नही चाहती कि रेस्टोरेंट में उसके लिए उसके पिता आर्डर किया करें केवल इसलिए क्योंकि उसे आर्डर देने में अपनी हिचकियों के कारण समय लगता है और लोग उसे घूरते हैं. वह भी एक सरल समाज की कल्पना करती है जिसमे वह अपने गले की आवाज़ों को एक मीठी सतर्कता से हँस कर टाल दे. लेकिन यथार्थ कल्पनाओं से ज्यादा मनमानी करता है अपनी मनमानी की दीवारों को बहुत ऊँचा कर यह देखना चाहता है कि कौन आ सकता है इन ज़िद्दी दीवारों के पार.
इस सब के बीच में हमें अपना भी बचपन और स्कूल के दिन कई बार याद आने लगते हैं कि किस तरह जीवन की आपा-धापी में संघर्ष कितनी ही बार और कितने ही रूपों में कुकरमुत्ता की तरह उगता रहा था, तो क्या हमने हार मानी थी? नही न !
बस यही एक रोशनी है जिसे नैना अपना भरोसा खोये विद्यार्थियों को देने की कोशिश करती है.
नैना माथुर के नॉन ग्लैमरस किरदार को रानी मुखर्जी ने जिस तरह से निभाया है उसके लिए वे प्रशंसा की हकदार हैं. फिल्म में अपने इमोशन्स में शुरू से आखिर तक वे बहुत स्ट्रांग दिखी हैं. और सभी बच्चों ने अपने किरदारों के साथ पूरा न्याय किया है. यहाँ मैं मिस्टर वाडिया का भी ज़िक्र करना चाहूंगी. ये एकमात्र ऐसा पात्र है जो निश्चित रूप से अंत में आपको हैरान कर देता है.
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