आज अनूठे लेखक कृष्ण बलदेव वैद की जयंती है। जीवित होते तो 92 साल के होते। उनके लेखन पर एक सूक्ष्म अंतर्दृष्टि वाला लेख लिखा है आशुतोष भारद्वाज ने। उनका यह लेख ‘मधुमती’ पत्रिका के नए अंक में प्रकाशित उनके लेखक का विस्तारित रूप है। आशुतोष जाने माने पत्रकार-लेखक हैं और हाल में ही हार्पर कॉलिंस प्रकाशन से उनकी किताब प्रकाशित हुई है डेथ स्क्रिप्ट’, जो देश के नक्सल आंदोलन पर एक ज़रूरी और पठनीय किताब है। फ़िलहाल यह लेख पढ़िए-
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विलोम-कथा
किसी कलाकृति की पहचान उस स्थान से हो सकती है जो वह कृति उस सत्ता को देती है जिसे वह अपना अन्य या विलोम मानती है। जब कोई कलाकार अपने से इतर संसार में प्रवेश करता है, उसके निवासियों से संवादरत होता है, तब उस कृति के भीतर दुविधा और अर्थ-बाहुल्य की संभावना जन्म लेती है। यह इतर संसार लेखक के सामने एक रचनात्मक चुनौती खड़ा करता है कि वह अपने पूर्वाग्रहों को नकार इस अन्य को स्वीकार पाता है या उसे स्वतंत्र स्पेस देने से इंकार कर देता है। मसलन नाइपॉल की कई किताबों में इस्लाम एक विलोम सत्ता की तरह आता है जिस पर वह निर्णय सुनाने की हड़बड़ी में नज़र आते हैं। अनंतमूर्ति के ‘संस्कार’ में स्त्री चंद्री नायक प्राणेशाचार्य के लिए अन्य हो जाती है। ब्रह्मचारी रहे आए आचार्य दैहिक अनुभव और जीवन में स्त्री के महत्व को स्वीकारते हैं।
एक अबूझे और अनजान अन्य से हुआ संवाद, उसे खोलने-टटोलने की छटपटाहट, उसकी असंभाव्यता को डीकोड करने का प्रयास किसी कृति को समृद्ध करता है। इस संवाद की भूमि पर प्रेम, उन्माद, चाहना, ईर्ष्या, हिंसा इत्यादि भाव जन्म लेते हैं। भाषा पर संशय की परछाईं गिरती है, निश्चित अर्थ धुँधला जाते हैं।
यह निबंध कृष्ण बलदेव वैद के कृतित्व में अन्य के स्वरूप को परखता है, साथ ही उन उपकरणों को भी जिनके ज़रिए इसके साथ संवाद दर्ज होता है। वैद के गल्प की एक प्रमुख उपस्थिति है एक डॉपलगैंगर सरीखा प्रेत जो नायक के ऊपर हमेशा मँडराता रहता है, कथा का आख्यायिक और तात्विक दोनों स्तरों पर विस्तार करता है। यह प्रेत कथा-नायक का निरंतर पीछा करता, उसे प्रश्नांकित, कभी ख़ारिज करता है। यह प्रति-छवि नायक को कोई मोहलत या रियायत नहीं देती, वैद का नायक ख़ुद अपना ही विलोम बन जाता है। इस हमज़ाद को विभाजित आत्मा का आधुनिक रूपक भी कह सकते हैं। आधुनिक अनास्थावान सर्जक आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं पाता, लेकिन हरदम इसे अपने दरवाज़े पर दस्तक देता पाता है। चेतना को गिरफ्त में लिये काफ्का के सिपाही (कॉप इन द हैड) जैसा चिरंतन प्रहरी, नायक की प्रत्येक हरकत की तफ़तीश करता, उसे दुत्कारता, कभी फुसलाता और बहलाता।
यह विलोम वैद के शुरुआती लेखन में ही दिखने लगता है जिसकी उपस्थिति उत्तरोत्तर तीव्र होती जाती है। उनकी आरम्भिक कहानी ‘मेरा दुश्मन’ का नायक इस हमज़ाद के साथ चिर-द्वंद्व में लिपटा है।
वह इस समय दूसरे कमरे में बेहोश पड़ा है। आज मैंने उसकी शराब में कुछ मिला दिया था … आज मैं उसे बेहोश करने में कामयाब हो गया हूँ। अब मेरे सामने दो ही रास्ते हैं। एक यह कि होश आने से पहले उसे जान से मार डालूँ और दूसरा यह कि अपना जरूरी सामान बॉंधकर तैयार हो जाऊँ, और ज्यूँ ही उसे होश आये, हम दोनों फिर उसी रास्ते पर चल दें जिससे भागकर कुछ बरस पहले मैंने माला की गोद में पनाह ली थी।
(मेरा दुश्मन)
अपनी असहनीय अपूर्णता से जूझता यह नायक अपने विलोम द्वारा ही संयोजित, सहवासित व सम्पूरित हो सकता था। वैद पर आरोप लगता रहा है कि उनके लेखन में बाह्य जगत ग़ायब है। यह विकट तथ्यात्मक भूल कोई अनपढ़ समीक्षक ही करेगा जिसने ‘उसका बचपन’, ‘गुज़रा हुआ ज़माना’ या ‘एक नौकरानी की डायरी’ जैसे उपन्यास नहीं पढ़े हों। वह आत्मोन्मुख हैं, आत्मग्रस्त नहीं। मनुष्य चेतना के चितेरे हैं। उनकी कथाएँ मानव अस्तित्व का उत्खनन करती हैं। वैद का नायक किसी बन्द कमरे में या सुनसान सड़क अपने विलोम से जूझता है. यही विलोम इस गल्प की लीला सम्भव करता है।
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वैद प्रश्न, प्रतिवाद और प्रति-प्रतिवाद के लेखक हैं। वह हर क्रिया-व्यापार, दृश्य-अदृश्य, ज्ञात-अज्ञात, संज्ञा-सर्वनाम, विशेषण-क्रियाविशेषण को प्रश्नांकित करते हैं, और ज्यों कोई उत्तर दिखने लगता है, उसे नकारता एक और प्रश्न खड़ा हो जाता है। यदि यहाँ नेति नेति है जब साधक हरेक चीज को नकारते हुए सत्य की ओर बढ़ता है, तो वैज्ञानिक का अनुसंधान भी जो अपने पुराने निष्कर्षों को खारिज करने से परहेज़ नहीं करता।
वैद निषेध का इस्तेमाल न सिर्फ ज्ञानमीमांसीय बल्कि आख्यायकीय औजार बतौर भी करते हैं। नायक द्वारा दी गयी प्रस्तावना विलोम प्रश्नांकित करता है। कथा विकसित होती है, उपन्यास शब्दमीमांसीय एडवैंचर में परिणत होता है। वैद के उपन्यास संशय और प्रश्नाकुलता का उत्कर्ष है जो आधुनिकता के बुनियादी मूल्य माने जाते हैं. वैद प्रश्न को उस जगह ले जाते हैं जहाँ खुद प्रश्न प्रश्नांकित हो जाता है, कागज पर उतरते ही शब्द संशयग्रस्त हो जाता है.
इसलिए वैद के पास (दर्द की) कोई दवा नहीं। नायक सवाल उठता है, लेकिन समाधान तक पहुँचने के सुख से महरूम है। हर वाक्य अपना विलोम रचता चलता है।
मुझे लगता है कि शब्द मेरे दुश्मन नहीं कि शब्द मेरा दुश्मन नहीं कि शब्द ही मेरा असली दुश्मन नहीं कि मैं जो कहूँगा जो भी कहूँगा कि मैं जो कह सकता हूँ कि मैं जो भी कह सकता हूँ कि मैं कुछ नहीं कुछ भी नहीं कह सकता नहीं यह भी ग़लत है बिल्कुल ग़लत है नहीं यह भी ग़लत है नहीं….।
(दर्द ला दवा)
आत्म-संशय अन्य लेखकों का भी गुण है, लेकिन वैद-लोक में यह शब्दमीमांसा में परिणत हो जाता है — अनुभव और दृश्य का अनुवाद कर पाने में मनुष्य की अक्षमता, शब्द व उसके जरिये अभिव्यक्त होते ज्ञान की सीमा। उनका नायक जो बता सकता है, उससे कहीं अधिक जानता है। आधुनिक मनुष्य की विडम्बना का वर्णन ऐसे आख्यायक के ज़रिए ही सम्भव होता जो न सिर्फ यह जानता है कि वह क्या जानता है और क्या नहीं जानता और नहीं जान सकता, लेकिन यह भी जानता है कि वह ज्ञात को अभिव्यक्त नहीं कर सकता, और इस वजह से घुटता तड़पता है.
उसकी एकमात्र आकांक्षा अपने अनुभव को निर्विकल्प शब्दों में व्यक्त कर पुनर्हासिल करना है। लुडविग विट्गेन्सटाइन की तरह वैद का रचना कर्म मूलतः भाषायी अन्वीक्षा है। यदि सम्पूर्ण दर्शन भाषा की प्रत्यालोचना है, तो वैद के लिये लेखन सृष्टि को संपूर्णता में अभिव्यक्त करती भाषा का संधान है।
इस पसरे हुये पिशाच में आ पड़े हुये सदियॉं बीत चुकी होंगी क्योंकि महसूस होता है मैं कई मौतें मर चुका हूँ। लेकिन यहॉं आने से पहले की यादें बीमार और बूढ़े कुत्तों की तरह बैठी बू छोड़ती रहती हैं। शुरु शुरु में उस बू पर कभी कभी ख़ुशबू का शुबह भी हो जाया करता था। कुत्तों की उम्र ज्यादा लंबी नहीं होती। यादों के लिये कुत्तों की उपमा अनुचित है।
(दूसरा न कोई)
वक्रोक्ति उनके व्याकरण का महत्वपूर्ण औजार है। हर मोड़ पर वह आपके बोध को चुनौती देते हैं, अस्तित्वगत प्रश्नों से जूझते वक़्त भी शरारती उपमाओं की क्रीड़ा रचते हैं। यह आख्यायक रसिक औघड़ है, न कोई वैरागी भिक्षुक। हमेशा किसी हरकत, फितूर, शगल में लिप्त। एक दृश्य की तरह वह पाठक के समक्ष अपनी वासना, खब्त, निराशा, ऊब के साथ उद्घाटित होता है. अपने एकांत पर इतराता, इठलाता यह नायक अपने अस्तित्व को अंतिम बूंद तक निचोड़ लेना चाहता है.
महाकाव्यात्मक उपमाओं की लड़ियों से वाक्य पैराग्राफ फिर पृष्ठ में तब्दील होते हैं, प्रत्येक वाक्य पूर्ववर्ती से कहीं बिफरता-बदहवास। उनके सवाल अनपेक्षित मोड़ लेते हैं, दृश्य व उसके अर्थ का अलगाव रेखांकित करती अपनी ही दुम निगलती विडंबना सर्वभक्षी होती जाती है। यह कथावाचक हर कैफियत और कोशिश की निस्सारता से वाकिफ है, फिर भी उपयुक्त शब्द की अंतहीन और असंभव तलाश में जीता है।
सवाल किया जा सकता है — आह! बहुत मुद्दत बाद यह वाहियात वाक्यांश अनायास वापस लौट आया है। इसे इस वापसी की सजा दूँगा इसे बार-बार दोहराकर। पुराने जुमले या मुहावरे जब मुझे गाफिल देख कुछ देर के लिये मेरी कलम पर काबिज हो जाते हैं तो महसूस होता है मरखप चुके दोस्त अचानक आ गलने मिलना चाह रहे हों। मैं इन वफादार मुहावरों पर मुसकराता भी हूँ और मितलाता भी हूँ और उनसे कलम छुड़ाने के लिये बार-बार उन्हें दोहराता हूँ, झूठे जोश और तपाक का सहारा लेता हूँ। वैसे जुबान के चटखारे से इंकार नहीं। मेरी उम्र के बूढ़े आमतौर पर भगवान से चिपटने पर मजबूर हो जाते हैं। मैं भाषा से चिपटा हुआ हूँ, या शायद चिपटा हुआ होने का अभिनय कर रहा हूँ, क्योंकि मेरी असली और अन्दरूनी ख्वाहिश यही है कि मैं हर ख्वाहिश से आजाद होकर — कम-अज़-अज़ एक बार — उड़ूँ। क्योंकि यह ख्वाहिश है इसीलिये आजाद नहीं हो सकता। मैं इस विडंबना से वाक़िफ हूँ।
(दूसरा न कोई)
प्रयत्न की असम्भाव्यता का संज्ञान होते हुये भी समस्त बंधन तोड़ शब्द में कालातीत हो जाने की आकांक्षा। क्या यह कथा दुर्लभ लम्हों में इल्हाम तक पहुँच पाती है या शब्द उस छाया की तरह रहा आता है जिसके पीछे सिर्फ भागा जा सकता है, उसे छू पाना असंभव है? इस प्रश्न का जवाब तो ज़ाहिर है हर पाठक का व्यक्तिगत ही होगा लेकिन कल्पना करें उन लम्हों की जब ये शब्द सर्जक की कलम पर उतरे होंगे — “मेरी असली और अन्दरूनी ख्वाहिश यही है कि मैं हर ख्वाहिश से आजाद होकर — कम-अज़-अज़ एक बार — उड़ूँ।”
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यह विलोम कभी स्त्री का स्वरूप ले लेता है। स्त्री अनेक पुरुष कथाकारों का स्थायी अन्य रही है। संस्कार का ज़िक्र हमने ऊपर किया था। लेकिन वैद-कथा में हम ऐसी स्त्री को पाते हैं जो भारतीय उपन्यास में अमूमन दिखाई नहीं देती. यह कथा स्त्री को नायक की चेतना में बिठा देती है जो उसके इर्द-गिर्द एक हमज़ाद की तरह मंडराती है. मसलन एक बूढ़ा लेखक (दूसरा न कोई) एक ढहते हुए मकान में अकेला मर रहा है, एक महान कृति रच देने की ख्वाहिश लिए. एक एकाकी कर्म जो वैद की प्रिय कहानियों ‘द मडोना ऑफ़ द फ्यूचर’ (हेनरी जेम्स) और ‘द अननोन मास्टरपीस’ (बाल्ज़ाक) की याद दिलाता है। रूपक और अनुप्रास के शैदाई इस नायक की कल्पना अक्सर बगल के मकान में रहती एक बूढ़ी औरत पर आकर ठहर जाती है जो उसकी ही मानस-संतान लगती है.
पसरे हुये पिशाच सा यह मकान। इसमें मेरा अकेला मर रहा होना यहाँ के दस्तूर के हिसाब से कोई अजीब बात नहीं। यहाँ इस उम्र के सभी लोग अकेले ही मरते हैं। मिसाल के तौर पर साथ वाले मकान वाली बुढ़िया। बढ़िया बुढ़िया। मुझसे उम्र में बड़ी है और कद में छोटी…मैं जब कुछ और नहीं कर पा रहा होता तो उन तीन खिडकियों में से बुढ़िया की रोज की जिंदगी या मौत में झाँक रहा होता हूँ…हमने कभी एक दूसरे को ताकते झांकते पकड़ा नहीं..वह उम्र में मुझे बहुत बड़ी नजर आती है. शायद दुगनी या तिगनी. या कम-अज़-कम इतनी बड़ी कि यकीनन मेरी माँ हो सके और शायद मेरी नानी या दादी. यह बात दूसरी है कि देखने में शायद मैं अगर उसका बाप नहीं तो कम-अज़-कम बड़ा भाई या बूढ़ा पति या प्रेमी ही नजर आता हूँ…पूछना चाहिये बुढ़िया का ज़िक्र क्यों ज़रूरी है। पूछ रहा हॅूं। जवाब मिलता है कि ज़रूरी कुछ भी नहीं। मुझे मालूम था यही जवाब मिलेगा। मुझे अब अपने किसी सवाल या जवाब पर कोई हैरानी नहीं होती। इस उम्र में हैरानियों की हवस हरामियों को ही होती है। बस अब यहीं रुक जाना चाहिये। हर जुमले की जान निकाल लेने की पुरानी लत में अब कोई लुत्फ नहीं रहा। वह कभी भी नहीं था।
(दूसरा न कोई)
बूढ़ी औरत आख्यायक की चेतना पर काबिज एक प्रेत है जिससे वह मुक्त नहीं हो पा रहा. यह स्त्री ऊपरी तौर से नायक का अन्य प्रतीत होते हुए भी उसका ही विस्तार है, और नायक उससे अनभिज्ञ नहीं है। वह स्व का अतिक्रमण कर उसे अपने में समाहित कर लेना चाहता है। उसकी एकमात्र आकांक्षा ‘दूसरा न कोई’ अवस्था में पहुँचना है, जहाँ उसकी और उसके रचना कर्म की चेतना में अन्य का बोध मिट जाता है। उसके लिए अन्य ‘नर्क’ नहीं है (हेल इज अदर)।
अनाम स्त्री वैद के गल्प की एक प्रमुख थीम है. पुरुष किरदार अक्सर इन बेचेहरा स्त्रियों को डीकोड करते नजर आते हैं. आत्म-कथात्मक प्रतीत होती वैद की किताब उसके बयान के ‘उसकी औरतें’ अध्याय के आइने से हम इस रचनाकार की स्त्री को देख सकते हैं।
कुछ औरतों को मुझसे इतना तेज प्यार और मेरे काम से इतनी तुन्द अदावत रही है कि हैरान होता हॅू कि उनके साथ मैं कैसे इतनी-इतनी देर के लिये निभा ले गया। यह बात नहीं कि किसी ताजा तन्दरुस्त लड़की को देख उसे अपनी औरत में बदल देने की कभी-कभी काम से उकता जाने पर अपने तमाम बुतों की बाजी किसी बेनजीर औरत के लिये न लगा देने की ललक अब बिल्कुल न उठती हो या यह पश्चाताप न होता हो कि अगर मैंने अपनी तमाम औरतों को किसी न किसी तरीके से अपने काम में इस्तेमाल कर उनसे किसी न किसी हद तक निजात न हासिल कर ली होती तो इस वक्त ऐसी तन्हाई और तुर्शी न होती।
(उसके बयान)
वैद के गल्प में स्त्री कोई सामाजिक प्राणी नहीं है जिसे मुक्त कराना है या सशक्त करना है। इसका यह अर्थ नहीं कि उनके स्त्री किरदार की आवाज़ दबी हुई है, बल्कि उनके गल्प की चेतना स्त्री को स्वर देने की राजनैतिक आकांक्षा से मुक्त है। उनके जन्म के दौरान स्त्री लेखन ने भारत में आकार लेना शुरू कर दिया था, गांधी के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन में स्त्री की प्रमुख भूमिका थी। उनके समकालीन रचनाकारों के उपन्यासों में स्त्री एक प्रमुख सामाजिक मुद्दा बनी हुई थी। इस परिदृश्य में वह उन चंद लेखकों में थे जिनके स्त्री किरदार, और पुरुष किरदार भी, किसी सामाजिक या पारिवारिक मसले से नहीं जूझ रहे थे, बल्कि आंतरिक संघर्ष को दर्ज कर रहे थे। उनके उपन्यास की स्त्री जिस प्रश्न को पुरुष के समक्ष खड़ा करती थी वह अन्य लेखकों की रचनाओं से बुनियादी तौर पर भिन्न था। उनके प्रश्न राजनैतिक नहीं, बल्कि वे मूलभूत प्रश्न हैं जिन्हें एक पुरुष स्त्री से, स्त्री पुरुष से मानव सम्बन्धों के सबसे नाज़ुक और अंतरंग क्षण में पूछती है, प्रश्न जो तात्कालिकता से परे निकल जाते हैं।
शायद इसलिए वैद का गल्प जीवन के तमाम उन्माद व उत्कंठाओं का उन्मुक्त उत्सव है। यह एकांतवासी साधक ज्ञान की तलाश में है लेकिन निमंग भौतिक प्रतीत होते दुनियावी सुख त्याग नहीं देता। उसके सरोकार आध्यात्मिक हैं, लेकिन उन्हें अभिव्यक्ति देते अलंकार सांगीतिक व दैहिक। रियाज़ लगाता यह नायक अक्सर अपने अंगों से ठिठोली करता दिखाई देता है, अपनी हरकतों का बखान करने के लिए रूपकों के शरारती शरारे बुनता है।
कभी कभी किसी उलझी हुई उपमा को कंघा करना या किसी रूठे हुये रंग को मनाना या किसी जिद्दी जंग को दूर करना — कमोबेश एक ही बात को कम-अज़-कम तीन नाक़िस तरीकों से कहने की पुरानी आदत भी अभी नहीं छूटी, कब छूटेगी, अब क्या छूटेगी — जब ज़रूरी हो जाता है तो खोपड़ी खुरचने या पांव घसीटने के बजाय एक हाथ को रानों के बीच के उस जंगल में ले जाता हूँ जो बेशक अब काफी उजड़ चुका है और जहॉं घूमने से अब न हाथ को कोई खुशी हासिल होती है न हथियार को। लेकिन फिर भी उन चान्दी के तारों को अंगुलियों पर लपेटते लपेटते अगर अचानक उस इलाक़े में किसी धीमी सी हरकत या हैरानी का आभास मिल जाये तो ऑंखों में एक मरियल सी मचल आ जाती है और अंगुलियों में कसाव और ज़रा सा भी जोर लगाने से एक गुच्छा उखड़ आता है और मैं सोचने लगता हूँ कि किसी दिन हाथ लगाते ही वह सारा जंगल उखड़ आयेगा और सर की तरह मेरा सरदार भी गंजा हो जायेगा। इस खयाल से होंठों में एक हरामी सी हरकत आ जाती है।
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अगर आगाही के लिये दर्द की जरूरत है तो क्यों नहीं अपने उस सुराख में अंगुली या अंगूठा घुसेड़ कर चिचिला लेता? जवाब है कि यह सवाल वही साला कर सकता है जो यह न जानता हो कि एक हद के बाद अंगुली या अंगूठा तो एक तरफ उसमें कोई कील ठोकने से भी कुछ महसूस नहीं होता। और तो और बवासीर के बेर भी एक हद के बाद झड़ जाते हैं और किसी कौंच से नहीं झनझनाते।
(दूसरा न कोई)
इस लेखन को अज्ञानवश अश्लील कहा गया है। वह दरअसल उत्तर-मैथुनिक व उत्तर-कामुक संसार रचते हैं, जहाँ नायक अपनी ऊब (वैद के कृतित्व का एक अन्य प्रमुख विषय) से उबरने के लिये अपनी देह से खेलता है — अपने तमाम अनुप्रास, यमक, रूपक व उपमाओं समेत। आदर्श स्त्री की आकांक्षा करते हिन्दी उपन्यासकार की यह अद्भुत पैरॉडी भाषा को प्रत्यावर्तित कर दोहराचार और यौनिक राजनीति उघाड़ती है:
इसी स्थिति को हमारे होनहार उपन्यासकार ने यूँ बयान किया हैः लड़की सुशील होनी चाहिये। और असली। मूतों फले दूधों फले। आज्ञाकार ऐसी कि अगर आदेश हो भरी सभा में सिर के बल खड़ी हो तो मूतो धार बहा दे। बवासीरहीन। चाल से चालाकी टपके, ढाल से ढीलापन। गुढ़ी से ज्यादा गठी हुई। हिंदी कहानी की तरह। भाभी की तरह भड़कीली। खुजली भी करे तो खिलकर। भोगे हुये यथार्थ से भागे नहीं। भावबोध में भीगी हुई हो। नीचे लंगोट पहने उपर ओवरकोट। जिसकी जीभ की एक जुंबिश से जोंक में जान। जो नोके नश्तर पर नौका टिकाकर नृत्य कर सके।
(बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ)
यह विवरण उकसाते या उत्तेजित नहीं करते। नायक संसार का अतिक्रमण कर उत्तर-मैथुनिक सृष्टि में प्रवेश करता है। यह नायक खुद से ही खेलता है, नसरीन जैसे कुछेक प्रसंगों को छोड़ विरला ही सम्भोगरत दिखलाई देता है। दूसरा न कोई की बुढ़िया के साथ दैहिक क्रीड़ा आत्म-केंद्रित प्रतीत होती है, और जैसा पहले लिखा यह कहना मुश्किल है कि बुढ़िया वास्तविक किरदार है या खुद को बहलाने के लिये नायक का दिमागी फितूर। वह स्त्री को तमाम रंगों में लिखता ज़रूर है, लेकिन संसर्ग की निस्सारता से अपरिचित नहीं है।
वैद की डायरियों में भी स्त्री विविध रूपों में आती है। वह पिकासो के प्रति ईर्ष्यालु हैं क्योंकि उनकी “इतनी सारी औरतें” थीं, हालिया ब्याहे अपने मित्र से जलन होती है क्योंकि: “नई बीवियॉं अक्सर सुंदर होती हैं।” जब वह सत्ताइस-अठ्ठाइस की उम्र में उसका बचपन लिखने के लिए रानीखेत गए थे, अपनी पत्नी की याद इस तरह डायरी में दर्ज की थी: “अगर चंपा साथ होती तो इस जंगल के हर कोने में मंगल होता।”
लेकिन इसके बावजूद विडम्बना पीछा नहीं छोड़ती. ‘उसकी औरतें’ में यह वाक्य दर्ज होता है: “कई बार किसी एक ही औरत में दुनिया भर की औरतों को और दुनिया भर की औरतों में एक ही औरत को पा लेने की कोशिश में कट-फट चुका हूँ और इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि ये दोनो कोशिशें भी दूसरी बेशुमार कोशिशों की मानिन्द बेकार हैं।”
यह कथा-नायक अक्सर एक आप्तकामी अस्तित्व की तलाश में जीता नज़र आता है।
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यह तलाश वैद के दार्शनिक संदर्भों को भी उजागर करती है। वैद पर विदेशी होने का आरोप लगता रहा है। उन पर सबसे विस्तार से प्रहार शायद जयदेव ने किया है जब उन्होंने लिखा कि कि वैद “भारतीय संस्कृति” के प्रति “बैर भाव” रखते हैं, उनका गल्प “भारत की प्रत्येक सामाजिक रीति पर तीखा प्रहार है”।[1] जयदेव लिखते हैं कि वैद का लेखन अनेक पश्चिमी लेखकों की नकल है, “पेस्टीच हासिल करने के फेर में कलात्मक ऊर्जा के ज़बरदस्त अपव्यय का उदाहरण है”।
यहाँ जयदेव की आलोचना के विश्लेषण का अवकाश नहीं है, लेकिन अगर जयदेव किसी भारतीय दर्शन की वैद-लोक में उपस्थिति देखना चाह रहे हैं तो दूसरा न कोई अद्वैत दर्शन का आधुनिक रूपक है. बूढ़ा लेखक अस्तित्व की ऐसी अवस्था की तलाश में है जहाँ बाह्य आंतरिक में समाहित हो जाता है। उसकी चेतना दूसरा न कोई अर्थात एक अद्वैत अनुभव की तलाश में है, जहाँ सभी अन्य मिट जाते हैं। आख़िरी अध्याय में जब नायक दुनिया छोड़ रहा है और उसके पास सिवाय अपने कुछ प्रिय शब्दों के कुछ भी नहीं है, उस क्षण उसका समूचा जीवन एक आध्यात्मिक साधना का रूप ले लेता है।
भर्तृहरि ने वाक्यपदीय में शब्द ब्रह्म प्रस्तावित किया था। उनसे पहले याज्ञवल्क्य बृहदारण्यक उपनिषद में कह चुके थे कि अक्षर, जिसका क्षय न हो, ही अंतिम सत्ता है। दूसरा न कोई इस सत्ता तक शब्द के ज़रिए पहुँच जाना चाहता है। अगर जयदेव इसी भारतीयता को खोज रहे हैं, तो यह एक भारतीय उपन्यास ही है।
पचास के दशक में जब हिंदी गल्प-साहित्य में आत्म-निर्वासन और मोहभंग जैसी थीम दिखाई देने लगीं थीं, कई आलोचकों ने इसे पश्चिमी प्रभाव बतलाया था. वे भूल गए थे कि मोहभंग और वैराग तमाम संस्कृत कथाओं का प्रमुख विषय रहा है. वैद ने भी अपने उपन्यासों की भारतीयता पर लिखते वक़्त यह रेखांकित किया था.
इन उपन्यासों को आधुनिकता और अस्तित्ववाद की रोशनी में पढ़ना अपनी परम्परा के उस पक्ष से अनजान रहना है जहाँ आत्म-निर्वासन — जिसे हमारे यहाँ विरक्ति या वैराग्य कहा जाता है — उस साधन का एक अनिवार्य अंग है जो आत्म-बोध तक ले जा सकती है। हमारे सूफ़ी संत और भक्त कवि इस आत्म-निर्वासन की अनेक अवस्थाओं से गुज़र कर संत बनते थे.[2]
यह भी गौर करें कि युद्ध से पहले अपने सम्बन्धियों पर तीर चलाने से पहले अर्जुन के भीतर जिस घनघोर आत्म-संशय का जन्म हुआ वह आत्म-निर्वासन की एक सघन अवस्था थी। खुद पश्चिम में भी किरदारों के भीतर मोहभंग आधुनिक साहित्य से बहुत पहले दिखने लगता है। जब हेमलेट अपने चाचा पर तलवार उठाते वक्त ‘टू बी ऑर नॉट टू बी’ के विराट प्रश्न से जूझते हैं, हम उनके भीतर अर्जुन के संशय को देख सकते हैं। यह संशय मानव सभ्यता की बुनियादी अवस्था रहा है। गौतम बुद्ध सरीखी भारतीय संस्कृति की अनेक विभूतियाँ इसी मोहभंग से गुज़र कर आत्म तक पहुँचती आयीं हैं, जहाँ मैं व अन्य का अंतराल मिट जाता है। वैद का लेखन इसी अंतराल से संघर्ष की साधना है।
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लेकिन कथा यहीं ख़त्म नहीं होती। जो गल्पकार ‘दूसरा न कोई’ के रचनात्मक आदर्श को हासिल करना चाहता है, उसकी डायरी में निर्मल वर्मा का उल्लेख अक्सर एक असम्भव हमज़ाद की तरह आता है। अपनी डायरियों में वैद निर्मल के साथ ऐसे द्वंद्व में दिखाई देते हैं, जहाँ प्रेम, स्नेह और दुलार हैं, तो तल्ख़ी, झगड़े और ईर्ष्या भी। मसलन तीन नवम्बर दो हजार चार की यह डायरी जिसमें वैद अपने स्वप्न को दर्ज करते हैं।
“कल रात के स्वप्न में निर्मल और मैं कहीं एक साथ थे। आमने-सामने बैठे हुए। निर्मल ने अंग्रेजी में कहा: यू नो दैट माई एंटायर रायटिंग इज़ डायरेक्टिद ऐट यू? इससे पहले कि मैं कुछ कहता उसने कह दिया: आई नो दैट यूअर एंटायर रायटिंग इज़ डायरेक्टिद ऐट मी. जब वह यह कह रहा था तो मुझे काफ़्का का अपने पिता के नाम के नाम वह मशहूर लम्बा ख़त याद आ रहा था को इस वाक्य से शुरू होता है और जो काफ़्का की मृत्यु के बाद ही प्रकाश में आ सका था और जिसे काफ़्का ने अपने पिता को भेजा नहीं था. और साथ ही अनाइस नीन की डायरी में लिखी यह बात कि उसका सारा लेखन उसके पिता को संबोधित एक लम्बा ख़त ही था.”
एक रचनाकार के स्वप्न में दूसरा लेखक आकर कहता है कि हम दोनों का लेखन मूलतः और अंततः एक दूसरे को ही संबोधित है, हम एक दूसरे के लिए ही लिखते हैं। वह रचनाकार सुबह उठ इस सपने को डायरी में दर्ज करता है, उसे प्रकाशित कर सार्वजनिक भी कर देता है। क्या वैद के गल्प का अद्वैत आदर्श डायरियों में आ दरक जाता है?
ग़ौरतलब यह भी है कि डायरियाँ निर्मल ने भी लिखी हैं, लेकिन हैरानी की बात कि जो इंसान उनकी मौत में अपनी मौत देख रहा था, जिसके साथ निर्मल ने तमाम चीज़ें साझा की थीं, शायद प्रेम भी, जिसके साथ वह जवानी के दिनों में एक लड़की को ट्यूशन पढ़ाने जाते थे, जो उनका “हमकलम, हमनवा, हमराज़, हमग़म, हमजौक़, हममज़ाक़” था, उसका ज़िक्र निर्मल की डायरी में कहीं नहीं आता। कहीं भी नहीं।
इस विलोम की कथा के लिए एक अन्य निबंध की दरकार है।
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[1] जयदेव, द कल्चर अव पेस्टीच, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, १९९३, पृष्ठ १३२.
[2] कृष्ण बलदेव वैद, ‘द इंडियन कॉंटेक्स्ट्स एंड सबटेक्स्ट्स अव माई टेक्स्ट’, संकलित: इमैजिनिंग इंडियननेस: कल्चरल आयडेंटिटी एंड कल्चर, (सम्पादन) डायऐना दिमित्रोवा एंड टामस दे बृजन, पालग्रेव मैक्मिलन, चैम, २०१७, पृष्ठ १०५-६.
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