हरि मृदुल संवेदनशील कवि और कथाकार हैं। छपने छपाने से ज़रा दूरी बरतते हैं लेकिन लिखने से नहीं। जीवन के छोटे छोटे अनुभवों को बड़े रूपक में बदलने में दक्ष हैं। बानगी के तौर पर यह कहानी पढ़िए-
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फु ऽऽ स्स…
मुझे पता था कि यही होना है! इसीलिए मैं चाहता था कि हसु खुद यह पैकेट खोले। हालांकि उसने कोशिश तो पूरी की थी, लेकिन वह खोल नहीं पाया।
‘ऐेसे खोलो, ऐसे’, मैंने इस काम से बचने का आखिरी प्रयत्न किया। परंतु हसु से पैकेट नहीं खुला। आखिरकार उसने मेरे हाथों में थमा दिया।
‘पापा खोल दो ना, आप ऐसा क्या करते हो?’ हसु चिढ़़ गया।
‘अब तेरा यही ड्रामा रहेगा। अपनी मम्मी को दे ना,’ मैंने चालाकी दिखाने का फिर से प्रयास किया।
चूकि नेहा पानी की बोतल खरीदने के लिए पर्स में छुट्टे रुपए ढूंढ़ रही थी, सो वह भी झुंझला पड़़ी — ‘कमाल है, बच्चे का इतना सा काम करने में भी आलस आ रहा है। मैं तो इसे पूरा दिन संभालती हूं। खोलिए पैकेट।’ मैं कोई जवाब देता, वह पानी की बोतल खरीदने जा चुकी थी।
‘ला, हसु बेटा। आज पूरे दिन पापा को ऐसे ही तंग करना हां’, यह कहते हुए मैंने पैकेट का एक कोना दांतों से दबाकर फाड़़ा और हसु को दे दिया।
फु ऽऽ स्स…।
हवा निकलने की आवाज सुनाई तो नहीं दी। परंतु पैकेट जिस तरह तत्काल पिचक गया, उससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि हवा कुछ ऐसे ही निकली होगी – फुऽऽ स्स…।
इधर फुऽऽ स्स…, उधर हसु का चीखना शुरू और फिर रोना।
‘अब क्या हो गया?’ मैं हसु से भी ज्यादा जोर से चीखा।
‘मेरे वेफर कहां गए? इतना बड़़ा पैकेट है, इतने कम वेफर। मुझे यह नहीं चाहिए। दूसरा लाओ।’ कुल मिलाकर हसु की नौटंकी शुरू।
मुझे पता था कि यही होना है, इसीलिए मैं चाहता था कि हसु खुद यह पैकैट खोले।
यूं खरीदते समय मैंने उसी से यह पैकेट छंटवाया था कि अपनी पसंद का लो और अपने हाथ से लो। बाद में कोई रोना-चिल्लाना न हो।
लेकिन फिर वही तमाशा।
दो दिन पहले भी ऐसा ही हुआ था…।
शाम के समय घूमने निकले ही थे कि गली के मोड़़ पर हसु की नजर ‘निशा जनरल स्टोर ’ पर सौ- दो सौ की संख्या में लटकाए वेफर्स के पैकेटों पर पड़़ गई थी।
हसु स्टोर के सामने अड़़ गया।
‘चाहिए
चाहिए तो चाहिए’
रोना शुरू।
ले भाई ले। अब तो चुप कर।
परंतु यह चुप्पी दो मिनट भी बरकरार नहीं रह सकी। यही सब हुआ। पैकेट नहीं खुला, तो मुझे दे दिया खोलने। मुझ से भी आसानी से नहीं खुला। मैंने दांतों से दबा कर एक कोने से फाड़़ा।
फुऽऽ स्स…।
वेफर का पैकेट पिचक कर तिहाई रह गया।
हसु का रोना शुरू। इतना कम कैसे हो गया? मुझे यह नहीं चाहिए, दूसरा चाहिए।
मैं हसु को किसी भी विधि यह समझाने में नाकाम रहा कि इसमें हवा भरी थी, जो पैकेट खोलते ही फु ऽऽ स्स… हो गई। अंदर इतने ही वेफर थे। लेकिन हसु को मेरी बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उसे लग रहा था कि मैं उसे फुसला रहा हूं।
‘मुझे दूसरा पैकेट चाहिए ’ जोर-जोर से रोना शुरू।
दूसरा पैकेट खरीदकर देना ही पड़़ा।
फिर वही खोलने की कसरत। मैंने कहा — इस बार मैं नहीं खोलूंगा, खुद खोलो। लेकिन काफी कोशिश के बावजूद हसु से पैकेट नहीं खुला। उसने फिर मुझे पकड़़ा दिया— प्लीज पापा । इस बार भी मैंने दांत से ही पैकेट का एक कोना फाड़़ा। पैकेट को फिर से पिचकना ही था, पिचक गया। हसु दोबारा रोता, उससे पहले ही मैंने उसे समझाना शुरू कर दिया।
‘बिट्टू, यह पंद्रह रुपये का जरूर है, लेकिन इसमें पांच रुपये की हवा भरी होती है और पांच रुपये की यह पैक करने वाली चमकीली पन्नी होती है। लगाओ हिसाब। पांच और पांच, दस। बचे पांच रुपए, सो इतने के वेफर।’
हसु को इन सब बातों से कोई मतलब नहीं था। जवाब में उसने ‘हां हूं’ भी नहीं किया। वेफर का एक पैकेट वह खत्म कर चुका था और अब दूसरे का नंबर लग गया था। मांगने पर अपनी मां को तो उसने दो-चार वेफर पकड़़ाए, परंतु मुझे देते समय उसकी नीयत डोल गई। साफ मुकर गया।
आज फिर वही सिचुएशन।
‘आज तो मैं इसे वेफर का दूसरा पैकेट कतई नहीं दिलवाने वाला’, मैंने भी जिद पकड़़ ली। मैंने एक बार फिर हसु को समझाया कि पंद्रह रुपए के पैकेट में पांच रुपए की हवा होती है, पांच रुपए का रंग-बिरंगा रैपर और पांच रुपए के वेफर। चार साल के हसु ने फिर इस हिसाब को समझने की जरूरत महसूस नहीं की।
उसे तो वेफर का एक पैकेट और चाहिए था।
‘चाहिए
चाहिए तो चाहिए’
रोना शुरू।
लेकिन मुझे नहीं खरीदवाना। इस बार मैंने उसके रोने की कोई परवाह नहीं की। वह काफी देर तक रोता रहा।
नेहा ने जब उसके कान में फुसफुसाते हुए कोई वादा किया, तभी वह चुप हुआ। ‘कट्टी ’ सबसे छोटी उंगली दिखाई और बिना मेरी ओर देखे और बात किए अपनी मां का हाथ पकड़़ चलने लगा। अब वह मगन है।
मुझे पता है कि इस उम्र के बच्चे यह सब करते ही हैं, परंतु मैं वेफर के पैकेट का पांच-पांच-पांच का हिसाब लगा-लगाकर परेशान हो उठा हूं। पांच रुपए की वह हवा, जो पैकेट खोलते ही फुस्स हो जाती है। पांच रुपए का चमचमाता रैपर, जो दोबारा किसी काम नहीं आता। बचे पांच रुपए के वेफर । परंतु क्या इन वेफर्स की कीमत भी पांच रुपए है? इतने वेफर तो एक आलू से ही बन जाएंगे।
‘क्या इतने वेफर एक आलू से ही नहीं बन जाएंगे? ’मैंने नेहा से पूछा
‘कितने वेफर?’
‘अरे, एक पैकेट भर और कितने !!’ वह कोई जवाब देती कि मैं सीधा रसोईघर में गया और एक मंझले साइज का आलू उठा लाया।
कट कट कट कट।
छिलका निकाल कर सत्रह बारीक स्लाइस बना चुका था कुछ ही मिनटों में। एकदम वेफर के आकार के।
‘इतनी सारी देशी-विदेशी कंपनियों का अब क्या होगा?’ नेहा ने बड़़ा चुभता हुआ व्यंग्य किया।
‘लेकिन सोचने की बात तो है ही कि जब एक आलू में जरा सी मेहनत से इतने वेफर तैयार हो सकते हैं, तो फिर हम ठगे क्यों जा रहे हैं?’ मैं उत्तेजित था। इतना कि मेरी आवाज काफी ऊंची हो गई थी।
‘हां, आप ठीक कह रहे हैं। अब हम घर में वेफर बनाया करेंगे। आज ही ढेर सारे आलू खरीद लाइए। आप आलू कतरते जाना और मैं उन्हें तलती जाऊंगी। फिर आसपास की दुकानों में सप्लाई करेंगे। जल्द ही हर दुकान में हमारे ही वेफर होंगे। बहुत जल्द हम अपनी कंपनी भी शुरू कर देंगे। इसके बाद हम एमडीएच मसाले के बूढ़े मालिक तरह घिसी हुई आवाज में टीवी पर विज्ञापन देंगे – घर के बने हुए लज्जतदार वेफर…। है ना … है ना…।’
नेहा का एक सांस में उपहास के इतने सारे वाक्य बोल जाना मुझे बहुत नागवार गुजरा, लेकिन उसकी इन बातों का मैंने कोई जवाब देना उचित नहीं समझा। ‘तू तू मैं मैं’ होने की पूरी गुंजाइश थी।
शायद नेहा मेरे मन की ताड़़ गई थी। वह जल्दी चाय बनाकर ले आई।
‘सरदर्द शुरू हो गया होगा, ठीक हो जाएगा।’ मेरे हाथ में कप थमा वह अपनी चाय सुड़़ुप-सुड़़ुप कर पीने लगी। मैंने चुप्पी साधे रखी और चुपचाप चाय पीने लगा। थोड़़ी देर बाद रात का खाना खाया और बिस्तर पर पड़़ गए। आमतौर पर शनिवार के दिन हम देर में सोते हैं, परंतु आज गप्पें मारने की स्थितियां नहीं थीं।
पांच रुपए की हवा। पांच रुपए का रैपर। पांच रुपए के वेफर। पंद्रह रुपयों में कितने आलू?
एक किलो आलू।
एक किलो आलू में कितने वेफर?
कमाल है। मैंने फूऽऽ… की आवाज के साथ एक जोरदार सांस छोड़़ी। नेहा सोई नहीं थी, लेकिन उसने इस आवाज से नींद टूट जाने जैसा नाटक किया। हसु सचमुच सो चुका था। मीठी नींद में था।
‘नींद नहीं आ रही? वेफर बन रहे होंगे।’ नेहा मुस्करा रही थी।
‘अभी तो बात आलुओं तक ही अटकी है। ’
‘पेड़़ों से तोड़़ रहे होंगे?’
‘पेड़ों से?’
इस समय मेरा मूड ठीक था। मैं भी कुछ बोलता कि हसु हम दोनों को पूरी तरह चौंकाते हुए बोल उठा— ‘पापा! वेफर दिलवा दो ना।’
वह कोई सपना देख रहा था। हम दोनों हो… हो… हो… कर हंसने लगे। हो… हो… हो…।
‘पापा गुडमॉर्निंग’
हसु मुझे उठा रहा था।
उसके हाथ में पैकेट था, जिसमें से वेफर निकाल कर वह कड़ – कड़़ की आवाज के साथ खा रहा था। तो नेहा ने कल शाम हसु के कान में फुसफुसाते हुए यही वादा किया था ! मैं आंख मलते हुए उठा, लेकिन कुछ कहा नहीं।
‘गुड मॉर्निंग हसु, वेरी वेरी गुडमॅार्निंग।’
बाथरूम गया।
दांत मांजे।
नहाया-धोया।
नेहा चाय ले आई। हसु वेफर ले आया। पापा आपके लिए। संडे है, इसलिए चाय के साथ वेफर का नाश्ता।
… कमाल है!
संडे को मेरा अनिवार्य काम रहता है सब्जी लाने का। हरी – हरी सब्जियां। ताजी सब्जियां। साथ में आलू, प्याज, टमाटर, गोभी… भी।
आलू।
हाथ में बड़़ा सा थैला, जुबान पर बड़़ा सा आलू।
आ ऽऽ लू लू लू लू लू …।
जैसे कोई सीटी बजाता है सी सी सी… , वैसे ही मैं भी आलू बोल रहा था। शायद राह चलते कई लोगों ने मुझे यह सब करते देखा होगा।
आलू को लेकर कल से दिमाग में कुछ न कुछ चल रहा है।
आलू के वेफर। मात्र एक आलू में एक पैकेट भर वेफर।
यही चल रहा है दिमाग में। फिर-फिर यही।
रुटीन सब्जियां तो हिसाब से ही खरीदी हैं, लेकिन आलू? पांच गुना ज्यादा खरीद लिए हैं। बड़़े- बड़़े आलू।
वेफर के आलू!
‘इतने आलू? ’ नेहा लगभग गुर्राई है। क्या आलूवालों की हड़़ताल होनेवाली है? क्या करेंगे इतने आलुओं का ?’
‘वेफर बनाएंगे।’
‘वेफर बनाएंगे?’
‘अजीब खुरापात चल पड़़ी है दिमाग में। ऐसे कैसे वेफर बनाएंगे?’
‘ट्राइ करते हैं। समझ लो एक प्रक्टिकल। मुझे पागलपन का दौरा थोड़़े ही पड़़ा है। मन में सूझा, तो सोचा कि चलो करके देख लिया जाए। मुझे लगता है कि मजाक ही मजाक में किसी निष्कर्ष तक भी पहुंच सकते हैं।’
‘कैसा निष्कर्ष?’
‘यही कि एक आलू में कितने वेफर बन जाते हैं…।’
नेहा कुढ़़ गई थी। दरअसल किचन में आलुओं लिए जगह नहीं हो पा रही थी।
मैंने अपना काम शुरू कर दिया। सब्जी खरीदकर लौटते समय मैं ‘ओम नमकीन एंड स्वीट्स’गया। जाते ही मैंने आधा किलो मिठाई खरीदी। थोड़़ी देर खड़़ा रहा। वेफर्स के भाव पूछे। फिर वेफर्स को गौर से निहारता रहा। कोने में कारीगर के पास गया। फिर एक-दो वेफर टेस्ट करने के लिए मांग लिए।
‘बड़े करारे हैं जी। नामी कंपनियों के टक्कर के हैं। बस चमकीले रैपर्स में पैक करने की देर है,’ मैंने कारीगर से कहा।
कारीगर ने कहा, ‘ ना जी, हमारे वेफर बिना चमकदार रैपर्स के ही खूब बिकते हैं। एकदम टंच माल बनाते हैं जी।’
‘इतने करारे कैसे बना लेते हैं जी?’
बातों-बातों में वेफर बनाने की पूरी विधि समझ ली थी। मैंने उससे पूछा, ‘ घर में भी तो आसानी से बन सकते हैं ना? मैं आज ट्राइ करता हूं।’ कारीगर ने मेरी बात को मजाक समझा। जवाब में वह सिर्फ हंसा।
जिस समय मैं ‘ओम नमकीन एंड स्वीट्स’ के कारीगर से यह सब पूछ रहा था, वह कच्चे केले के चिप्स तैयार कर रहा था। उसने कहा,‘आधा किलो चिप्स भी ले जाइए। मैंने कहा, ‘वेफर कौन खाएगा, जिन्हें आज मैं सचमुच घर में बनाने वाला हूं।’ उसने फिर मेरी बात को मजाक समझा। मेरे दुकान से निकलने तक वह इसी बात पर हंसता रहा।
बड़़ा आसान काम। बारीक स्लाइस बनाओ और फिर इन्हें नमक के पानी में डाल कर तत्काल निकाल लो। कड़ाही में तलने लायक तेल गरम करो। फिर उन्हें इस तेल में तलने के लिए डाल दो। आवाज होगी चड़़ चड़़ चड़़। घबराने की कोई बात नहीं। इसके तत्काल बाद इन्हें निकाल लो। बस, हो गया।
मैं ‘जगदंबा गृहवस्तु भंडार ’ से स्लाइस बनाने की मशीन भी खरीद लाया था।
नेहा तो जैसे तमाशा देख रही थी। हसु भी आ गया।
कड़ाही। तेल। थाल में आलू के स्लाइस। पूरी तैयारी थी। नहीं आ रही थी मुझे, तो बस तलने की तरकीब।
इसके लिए भी मैंने एक तरकीब सोच ली। कारीगर से बात करने चक्कर में मुझे जो बेमतलब आधा किलो मिठाई खरीदनी पड़़ी थी, उसे मैंने नेहा के हाथ में थमा दिया।
‘बड़़ा धांसू मुहूर्त निकाला है। देखो हसु, तुम्हारे पापा वेफर की फैक्ट्री शुरू करने वाले हैं। यह उसी की मिठाई है’, नेहा ने एक बार फिर धारदार व्यंग्य किया। लेकिन इसके बाद मैंने नेहा से उसी हक के साथ मदद मांगी, जिस तरह रिश्वत देने के बाद कोई आदमी मुखर हो उठता है। फिर भी उसने मुंह बिचका दिया। हद है।
हसु जरूर बोला, ‘मैं करूं मदद?’
मैंने जवाब दिया, ‘तुम तो खाने में मदद करो। पहले मिठाई खाओ और थोड़़ी देर बाद फिर घर के बने कुरकुरे करारे वेफर। आहा।’
हसु के हमउम्र नन्हे दोस्त आ गए, तो वह उनके साथ घर के बाहर खेलने चला गया। मैंने नेहा से एक बार फिर सहायता की गुहार लगाई, परंतु उसका दिल न पसीजा। वह यह कह कर कपड़़े धोने बैठ गई, ‘कल से भिगाए हैं, आपके चक्कर में सड़ जाएंगे।’
मैंने भी जिद पकड़़ ली थी। काम में लग गया।
गैस चूल्हे के ऊपर कड़ाही। कड़़ाही में खौलता तेल। तेल में आलू के स्लाइस। चड़़ चड़़ चड़़ चड़़।
करछुल से पलटने तक स्लाइस जल गए। काले पड़़ गए।
दूसरी बार भी ऐसा ही। तीसरी बार भी।
‘प्लीज, नेहा मेरी मदद कर दो। प्लीज। प्लीज।’
इस बार नेहा का दिल पसीज गया।
बड़़ी कुशलता से नेहा ने वेफर बनाने शुरू कर दिए, परंतु कुछ ज्यादा ही कड़़क। कुछ ज्यादा ही नमक। कुछ ज्यादा ही बेडौल।
हमने आखिरी कोशिश की।
इस बार नेहा ने अपनी पाक कला का संधा हुआ इस्तेमाल किया।
अब की बार कड़़ाही से निकले वेफर काफी हद तक बंद पैकेट के वेफर जैसे ही लग रहे थे। स्वाद में। गंध में। रूप-रंग में।
मैंने एक वेफर नेहा के मुंह में डाल दिया और एक अपने। नेहा ने बेमन से चबाया। मैंने कहा, ‘कुरमुरे करारे वेफर। आहा।’
‘वेफर्स की फैक्ट्री खोल लें?’ नेहा ने एक बार फिर खिंचाई करने की कोशिश की।
‘निष्कर्ष तो निकल ही आया।’ मेरा एकदम कूल जवाब था।
‘कैसा निष्कर्ष?’
‘यही कि एक आलू में कितने वेफर बनते हैं’
नेहा फिर कुढ़़ गई। उसने एक बार फिर किचन में भरे आलुओं की ओर मुंह बनाते हुए नजर मारी।
हसु आ गया था। मैंने उससे कहा, ‘बिट्टू,मेरी मदद करोगे?’
‘बोलिए पापा’
‘कुरकुरे करारे वेफर खा जाओ’
‘आहा’ हसु ने कहा।
मुझे डर था कि वह जल्द ही आक्थू ऽऽ कहने वाला है। लेकिन जब उसने पहला वेफर मुंह में डाला, तो उसकी प्रतिक्रिया अप्रत्याशित रूप से आश्चर्य में डालनेवाली थी – वॉव।
वह सुबह खरीदे वेफर्स का खाली हो गया चमकीला पैकेट ले आया। उसने इसमें ऊपर तक घर में बनाए वेफर भर दिए और बोला, ‘पंद्रह रुपये के वेफर। न पांच रुपये की हवा, न पांच रुपये का रैपर।’
मैंने हसु को जोरदार थैंक्यू कहा।
नेहा एक बार फिर कुढ़़ गई।
किचन में आलुओं का ढेर था।
दो-चार आलुओं ने तो रातभर में ही अंखुए भी निकाल लिए थे।
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संपर्क : हरि मृदुल
बी-601, बिल्डिंग नं.- 90, शुभांगन- 2 को.हा.सो.लि.
पूनम सागर कॉम्पलेक्स, मीरा रोड (पू.), थाणे- 401107
email – harimridul@gmail.com
मो. 09867011482
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