
कविता शुक्रवार के इस अंक में प्रयाग शुक्ल की कविताएं और हेमंत राव के चित्र प्रस्तुत हैं।
कवि, कथाकार, निबंधकार, कला समीक्षक और अनुवादक प्रयाग शुक्ल का जन्म 1940 में कोलकाता में हुआ था। उनके ‘यह जो हरा है’, ‘इस पृष्ठ पर’, ‘सुनयना फिर न कहना’ समेत दस कविता संग्रह प्रकाशित हैं। उनके तीन उपन्यास, पाँच कहानी संग्रह और यात्रा-वर्णनों की कई पुस्तकें भी हैं। कला पुस्तकों में ‘आज की कला’, ‘हेलेन गैनली की नोटबुक’ और ‘कला की दुनिया में’ उल्लेखनीय हैं। उनकी यात्रा पुस्तकों में ‘सम पर सूर्यास्त’, ‘सुरगांव बंजारी’ और ‘ग्लोब और गुब्बारे’ महत्वपूर्ण हैं।
उन्होंने बांग्ला से कई अनुवाद किए हैं। जिनमें रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘गीतांजलि’ सहित जीवनानन्द दास, शंख घोष और तसलीमा नसरीन की कविताएं शामिल हैं। बंकिमचंद्र के प्रतिनिधि निबन्धों के अनुवाद पर साहित्य अकादमी का अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ। उनकी अन्य पुस्तकों में ‘अर्धविराम’ (आलोचना) और ‘हाट और समाज’ (निबंध संकलन) हैं। ‘कल्पना: काशी अंक’, ‘कविता नदी’, ‘कला और कविता’, ‘रंग तेंदुलकर’ और ‘अंकयात्रा’ उनकी संपादित पुस्तकें हैं। उन्होंने बच्चों के लिए रुचि लेकर बहुत लिखा है। ‘हक्का बक्का’, ‘धम्मक धम्मक’, ‘उड़ना आसमान में उड़ना’, ‘धूप खिली है हवा चली है’, ‘ऊंट चला भाई ऊंट चला’ और ‘कहां नाव के पांव’ चर्चित बाल कविता संग्रह हैं। साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों के सिलसिले में उन्होंने देश-विदेश की बहुतेरी यात्राएं की हैं। वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका ‘रंग प्रसंग’ और संगीत नाटक अकादमी की ‘संगना’ के संपादक रह चुके हैं- राकेश श्रीमाल

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याद
बीत जो जाती हैं छवियाँ कई,
आती हैं फिर कभी कभी-
देने को कुछ जीवन दान।
जैसे वह हाथ हो बहन का,
अपनी, बड़ी,
कुछ तो परोसता,
मुझसे बतियाती
उनकी मुस्कान!!

मित्र है आकाश
आकाश, आकाश है,
मित्र है।
उसका अदृश्य है
एक चित्र।
चिड़िया पार करती है उसे
जाने कितनी दूर तक-
देर तक!
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आँखों का जल
आँखों का जल
ढुलक पड़ता है आँखों से।
स्वाद आनंद का।
दुःख का।
दोनों का-
दोनों आँखों का जल
ढुलक पड़ता है आँखों से।
देखो वह वर्षा,
झर-झर-
बूँदें,
जब जैसी हों-
कभी कभी भीतर ही भीतर भी,
उनका बरसना।

छूट गई डाल
हाथ से छूट गई डाल।
कहती हुई मानो: नहीं
और मत तोड़ो।
फूल बहुत हैं जितने हैं हाथ में,
मत तोड़ो
और।
छोड़ो!

सुख का है अंत
सुख का है अंत, दुःख का अंत नहीं।
रहता ही है ताक में हमेशा,
रहता ज़्यादा देर!
जब तक भिगो न दे आँखें
मुस्कान चलती नहीं लम्बी
आती विलम्ब से
हँसी अंतराल से।
आता दुःख तेज़ी से।
किसी खामोशी से।
सुख का है अंत, दुःख का अंत नहीं।

मोह तो होता है
वृक्षों वनस्पतियों चिड़ियों
फूलों से, मोह तो होता है।
बाट उनकी हम जोहते-
मित्रों, परिजनों से, प्रेम बंधनों से,
मोह तो होता है।
रहते हैं टोहते गतिविधियाँ इनकी
जीवन भर-
मोह तो होता है।
पशुओं से, नदी तट, झीलों से
छाँह भरे रस्तों से
मोह तो होता है।
पहाड़ों, पगडंडियों से,
अंत नहीं मोह का।
जीवन को थामे ही रहता है मोह।
कभी फूटती रुलाई, कभी खिलखिला पड़ती हँसी,
होता है बिछोह भी होता है,
आड़े आ रहता है मोह के-
मोह की बिछोह की गति बनी रहती है।
आरोह
अवरोह
इनके सब चलते ही रहते हैं।
बिछोह तो होता है
मोह तो होता है।

रातों में रातें थीं
रातों में रातें थीं
मिली हुई।
उलझने सिली हुई। सपने थे
भूले हुए, याद कुछ
खिड़कियाँ थीं, जिनसे कभी
आती थी रोशनी ! बारिशों की बौछारें थीं
रातें थीं प्यार में, इंतजार में।
यात्रा में रातें थीं। रातों में पड़ाव थे।
तारों भरी रातें थीं। अकेली थीं।
थीं रातें नींद की। उनींद की रातें थीं
रातों में चिंता थीं। सुनसान रातें थीं। बियाबान रातें थीं।
रातें थीं छनकर चले आते सुरों की।
रातें थीं अधूरी बातों की। पीड़ा की रातें थीं।
रातें थीं किसी को निहारती।
विचारती रातें थीं।
उनकों आना था दिनों की तरह,
दिनों की रातें थीं
रातें थीं पिछली।
अगली रातें थीं
चली आतीं।
चली जाती रातें थीं।
रातों में रातें थीं।

जल
नदी दूर है।
उसकी स्मृति है।
स्मृति में जल है।
वही दलदल है।

जब हम सोये रहते हैं
टहलती है रात।
आहत से हिलते हैं फूल,
पत्ते। हवा।
तारे बहुत दूर से करते हैं इशारे
कुछ।
लताएँ सरकतीं कुछ हौले से,
पर दीवार के।
रात। टहलती है कोई भूली हुई बात
ले जाती कानों को
उसके पास –
सुनती है, सुनती है
बोल पड़ती है एक चिड़िया

सिसकी
यह जो सिसकी है,
छुपी आवाज में,
किसकी है !
चलने में, कुछ खिसकाने, पटकाने में,
चढ़ने-उतरने में,
कहीं कुछ देखने में,
किसकी है?
सिसकी
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गांव से गैलरी तक
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इसी सदी के शुरुआती वर्ष में सत्रह साल का एक लड़का सौ-डेढ़ सौ घरों के गांव में अनजाने ही अपने भविष्य को गढ़ रहा होता है। वह बचपन से ही पेड़-पौधों, हरी और सूखी पत्तियों, सुबह से शाम तक बदलता प्रकाश-छाया का खेल और हल्के नीले और गुलाबी रंगों की सोहबत में रहकर इस जीवन की भाषा को बिना व्याकरण समझ रहा था। प्रकृति में विस्तारित रंग-वैभव के मोहपाश में उसका कच्चा मन बंधने लगा। वह उन रंगों से उपजी विभिन्न आकारों की परछाइयों और गहराई को पढ़ने का प्रयास करने लगा। उसके लिए यह किसी खेल से कम नहीं था। एक कमरे में माँ-पिता, दो भाइयों और दो बहनों के साथ रहते हुए उस लड़के ने यह कभी नहीं जाना कि सपने और महत्वाकांक्षा के लिए भी कोई जगह होनी चाहिए। वह अन्य लोगो के घरों की बाहरी दीवारों, मंदिरों और शादी-ब्याह के मौके पर चित्रकारी करता रहा तो इसलिए कि इससे उसे कुछ पैसे मिल जाएंगे और वह घर के लिए आटा, तेल या थोड़ा गुड़ ले जा सकेगा। कभी किसी जगह पैसे इसलिए नहीं मिलते कि फसल कटने और बिकने के बाद देने का वादा रहता। उस लड़के के लिए यह संघर्ष नहीं, सामान्य जीवन की ही तरह था। मंदिर में काम करते हुए अगर रंग बच जाते तो उसे कहा जाता कि यह रंग सूख जाएगा, इसलिए इसे एक अन्य दीवार पर लगा दो। इस काम के कोई अतिरिक्त पैसे नहीं मिलते थे। इक्कीसवीं सदी की शुरूआत में यह भारतीय ग्रामीण मनोविज्ञान ही था, जहाँ प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या और एक-दूसरे को पछाड़ने के क्रियाकलापों के लिए कोई जगह नहीं थी। वह लड़का भी चुपचाप अपना काम करता रहता। देवी-देवताओं के चित्र बनाता और ओने-पोने दाम में उसे बेच देता। वह स्व-प्रशिक्षित चित्रकार था और यह सब करते हुए वह चित्र बनाने की साधना को जी रहा था।
उसी लड़के ने पिछले वर्ष यानी 2019 में भारत का चित्रकला का सबसे बड़ा राष्ट्रीय अकादमी पुरस्कार (ललित कला अकादमी) प्राप्त किया। यह अनपेक्षित छलांग नहीं थी, बल्कि उसके बनाए चित्रों की ही विनम्र उपस्थिति थी, जिसका सम्मान होना ही था।
हेमंत राव नाम के इस लड़के के गांव बरैया के पास ही थोड़ी बड़ी बस्ती ‘आवन’ थी। उसके चित्र आवन के दुकानदारों, वहाँ के घरों और मंदिरों के लिए पसन्द किए जाने लगे। आवन के ही एक स्कूल में संस्कृत पढ़ाने वाले अध्यापक वाचस्पति शुक्ल उसके काम की प्रशंसा करते और उसे काम दिलवाते रहते थे। आवन में लोधा परिवारों की बहुतायत थी। वहीं एक डॉ जगदीश लोधा उसके चित्रों के प्रशंसक थे। एक बार उन्होंने दिग्विजय सिंह (पूर्व मुख्यमंत्री) का पोट्रेट बनाने का काम हेमंत को दिया। वह चित्र लेकर जब उन्होंने निकट स्थित राघोगढ़ (दिग्विजय खानदान की पुरानी रियासत) में दिया, तब वे अपने इस चित्र को देख प्रभावित हुए। उन्होंने इसके चित्रकार से मिलने की इच्छा जाहिर की। बहुत बाद में आवन के ही हनुमान मंदिर में डॉ लोधा ने हेमंत को दिग्विजय सिंह से मिलवाया। उन्होंने कहा कि यहाँ गांव में क्या करते हो, तुम्हें भोपाल जाना चाहिए। तुम जैसे कलाकारों के लिए ही वहाँ भारत भवन बना है। वहाँ अपने चित्र बनाओ। तब सकुचाते हुए हेमंत ने भोपाल में रहने-खाने की समस्या बताई। तब दिग्विजय सिंह ने कहा कि मैं तुम्हारा सारा खर्चा उठाऊंगा, तुम भोपाल आ जाओ।
तब अपने भाई के साथ बस में बैठे हुए भोपाल जाते वक्त हेमंत को यह पता नहीं था कि वह भोपाल के लिए यात्रा नहीं कर रहा है, वह कला की उस विश्वव्यापी यात्रा पर जा रहा है, जहाँ से उसका चित्रकार होना खुद अपने लिए फलक बनाने वाला था।
भोपाल आने के बाद हेमंत के जीवन का टर्निंग पॉइंट शुरू होता है। वर्ष 2005 से किराए के कमरे में रहते हुए वह भारत भवन के ग्राफिक स्टूडियो में काम सीखने-करने लगा। रंगों और उनके इतने सारे शेड्स उसे पेस्टल कलर में दिखे, जो उसने पहले नहीं देखे थे। ग्राफिक स्टूडियो के इंचार्ज यूसुफ ने उसे काम करने में बहुत प्रोत्साहित किया। यही कारण है कि हेमंत अपने गुरु के रूप में यूसुफ को देखते हैं। भारत भवन में काम करते हुए अन्य कलाओं से परिचय होना शुरू हुआ। नाटक देखे जाने लगे और शास्त्रीय संगीत की सभाओं में बैठा जाने लगा। यहाँ उसके कलाकार होने का संस्कार हो रहा था। देश-विदेश से कई कलाकार स्टूडियो में आते और काम करते थे। उनकी रचना-प्रक्रिया और उनके काम को देख हेमंत का कला-भूगोल बढ़ने लगा। जब उसके बनाए कुछ चित्र बिकने लगे, तब वह दिग्विजय सिंह के पास यह कहने गया कि अब मैं अपना खर्च खुद चला सकता हूँ। इसके पूर्व तीन वर्ष तक दिग्विजय सिंह ही उसे सारा खर्च देते रहे थे। दिग्विजय सिंह मुस्कुरा कर कहने लगे कि यह अच्छी बात है, लेकिन अपने कमाए पैसों को सम्हालकर खर्च करना, कलाकार आदतन बहुत खर्चीले होते हैं।
यह हेमंत के समकालीन चित्रकार बनने की पूर्वपीठिका थी। सहज-सरल स्वभाव वाले हेमंत के लिए अब चित्र बनाना ही जीवन है। उनके चित्रों में प्रकृति से प्रेरित छाया-प्रकाश उन्हें रोमांचित करता है। अपने चित्रों के अमूर्तन रूप वे प्रकृति से ही लेते हैं। लेकिन बकौल उनके- “उन्हें आँखों से नहीं देखा जा सकता, केवल महसूस किया जा सकता है।” अपने गांव, वहाँ के लोगो की निश्छलता और भोलेपन को याद करते हुए वे कहते हैं -“मेरा गांव से नाभिनाल जैसा सम्बंध है, जिसे मैं अपने चित्रों में अनुभव कर पाता हूँ।”
उनके चित्रों में अपूर्ण पारदर्शी परतें ही उनके चित्रों को पूर्ण करती है। उनके चित्रों की सतह पर रंग एक ही जगह पर स्थिर हो तैरने जैसा आभास देते हैं। उनके चित्र-रूपों में कुछ स्मृतियां हैं और निराकार अनुभूतियां हैं। पहली बार देखने पर वे जलरंगीय चित्र लगते हैं। लेकिन वह सॉफ्ट पेस्टल होता है। सूखे रंग हल्के होते हैं और जल्दी बिखर जाते हैं। वे उसे बिखरने नहीं देते और प्रकृति जैसी कोमलता, लावण्य और सुकून उपस्थित करते हैं। उनके चित्र अपने एकांत में ही अपनी सम्भावना लिए रहते हैं। उनके चित्र-चित्त का स्वभाव शांत है। वे राइस पेपर पर सॉफ्ट पेस्टल (रेखांकन में चारकोल भी) इस्तेमाल करते हैं, फिर उसे कैनवास बोर्ड पर चिपकाते हैं। इससे चित्रों का जीवन बढ़ जाता है।
इसी वर्ष ‘आर्ट हाऊस’ चेन्नई में कुछ बड़े कलाकारों के साथ उनका ग्रुप शो था, जो कोरोना से टल गया। इजिप्ट में भी उनकी एक बड़ी प्रदर्शनी तय थी। उन्होंने अभी तक चार एकल प्रदर्शनी की है, जिसमें से मुंबई की गैलरी ‘आर्ट एंड सोल’ के लिए प्रयाग शुक्ल ने क्यूरेट की थी। प्रयाग शुक्ल से हेमंत ने कला की दुनिया के बारे में बहुत कुछ सीखा-समझा है। हेमंत के चित्र बुहान इंटरनेशनल आर्ट फेयर, बैंकांक त्रिनाले, सियोल आर्ट फेस्टिवल इत्यादि जगहों पर प्रदर्शित हुए हैं।
हेमंत कला-राजनीति की कचड़-पचड़ से दूर रहते हैं। वे कहते हैं -“हमारा खुद का देखना महत्वपूर्ण होता है। मैं सभी से मिलता हूँ। सभी वरिष्ठों का सम्मान करता हूँ। लेकिन मेरे दोस्त कम हैं। मुझे वे बैठकें बिलकुल पसन्द नहीं है, जिन में अनुपस्थित दूसरों के बारे में भला-बुरा कहा जाता है। जो कह रहे हैं, उन्हें कहने दो। मैं किसी के बारे में कुछ नहीं कहता। वैसे भी मैं बहुत कम बात कर पाता हूँ। मेरा सम्वाद मेरे चित्रों से अधिक होता है। मुझसे जब कोई अच्छा चित्र बन जाता है, तब मैं किसी से बातकर उसे प्रसन्नता दे सकूँ, यह मेरा प्रयास रहता है। मुझे समझ नहीं आता कि नकारात्मक बातें करने के लिए लोगो के पास ऊर्जा कैसे बची रहती है।”
हेमंत राव अपनी पत्नी सुदेशना बेनर्जी के साथ भोपाल में रहते हैं। सुदेशना से उनकी पहली मुलाकात दिल्ली की एक चित्र प्रदर्शनी में हुई थीं। वे भी कभी-कभार शौकिया तौर पर रेखांकन करती हैं, लेकिन केवल अपने लिए। यह बताते चलें कि चित्र बनाते समय बांसुरी और संतूर की जुगलबंदी सुनना हेमंत को अच्छा लगता है। समझा जा सकता है कि वे किन पंडित जोड़ी को सुनते होंगे- राकेश श्रीमाल
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राकेश श्रीमाल (सम्पादक, कविता शुक्रवार)
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलवार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
कवि और कला समीक्षक। कई कला-पत्रिकाओं का सम्पादन, जिनमें ‘कलवार्ता’, ‘क’ और ‘ताना-बाना’ प्रमुख हैं। पुस्तक समीक्षा की पत्रिका ‘पुस्तक-वार्ता’ के संस्थापक सम्पादक।
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