पंकज कौरव ऐसे लेखक हैं जो बहुत अलग अलग तरह के विषयों पर साहस के साथ लिखे हैं और अच्छा लिखते हैं। यह कहानी स्वप्न-यथार्थ, लोक-परलोक के ताने बाने से लिखी गई एक बेजोड़ मौलिक कहानी है। पढ़कर बताइएगा-
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उन दिनों सपने सहज ही आ जाया करते थे। कभी मन सपनों से भरा होता था तो कभी आंखें उनमें डूबी रहती थीं। तब 21 साल का ही तो था, वह सब शायद उम्र का असर रहा होगा। लोग इसे मेरे स्वप्निल नाम का असर भी बताया करते थे। कोई अदृश्य शक्ति थी जो जरा सा खाली बैठा देख मुझे सपनों में घसीट ले जाती थी। किस तरह के सपने? अब यह बताना बड़ा मुश्किल है। तब तक मैं सिर्फ इतना जान पाया था कि सपनों की सिर्फ दो अवस्थाएं होती हैं, पहली पलकों के ऊपर बसने वाले सपने और दूसरे पलकों के नीचे दबे सपने। पलकें थककर जरा देर के लिए क्या मुंद जातीं, उनके नीचे दबे सपने चौंककर उठ जाया करते थे। उस वक्त पलकों पर बसने वाले सपने कहां चले जाते थे, आज भी कोशिश करने पर याद नहीं आता। और तो और कभी-कभी मेरे लिए इन दोनों स्थितियों के बीच अंतर कर पाना भी काफी मुश्किल हो जाता था। तो किस्सा कोताह ये कि न दिल अपने बस में था और न ही सपने।
कॉलेज के उन्हीं दिनों में मेरे तमाम प्रिय सपनों के बीच सिर्फ प्रोफेसर जोशी एकमात्र ऐसे शख्स थे जो मेरे लिए किसी डरावने सपने की तरह थे। अब जिसे सपने प्रिय हों, वह दु:स्वप्नों को कैसे रोक सकता है? फिर वे एक ऐसा दु:स्वप्न थे जिसे अंग्रेजी की क्लास के अलावा मैं कभी देखना नहीं चाहता था। मेरा बस चलता तो उन्हें क्लास में भी न देखता, पर पढ़ाते बहुत अच्छा थे। ऐसा लगता था मानों पढ़ाते समय उनके भीतर कोई और अवतरित हो गया है। इतने सहज, इतने मृदु और पढ़ने वालों की ऐसी परवाह कि जब तक उनका पढ़ाया हुआ सबको समझ न आ जाए, पीछा ही नहीं छोड़ते थे। पलकों पर बसने वाले मेरे एक और सपने को हवा देने के लिए इतना काफी था। वह सपना था – मैं भी फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलूं। ग्रामीण परिवेश से था इसलिए यह मेरे लिए किसी चुनौती से कम नहीं था। रैपिडेक्स इंगलिश स्पीकिंग कोर्स की किताबें चलन से बाहर जा रही थीं, इसका मतलब यह नहीं कि लोगों में अंग्रेजी सीखने का क्रेज़ जरा भी कम हुआ था बल्कि रैपिडेक्स की जगह ‘15 दिन में अंग्रेज़ी बोलना सीखें’ वाले दावों के होर्डिंग्स और विज्ञापनों से शहर की दीवारें और चौराहे पटने लगे थे। बहरहाल ‘स्पोकन इंगलिश’ का कोई कोर्स ज्वाइन करने की मेरी जरा भी हैसियत नहीं थी सो ले-देकर एक ही विकल्प था, अपने दु:स्वप्न का सामना किया जाए, मतलब प्रोफेसर जोशी। यह इतना आसान भी नहीं था कक्षा से बाहर निकलते ही खड़ूस जोशी ऐसे लगते मानों परकाया प्रवेश से वापस लौटकर अपनी 52 साला अधेड़ देह में आ गए हों। उनकी वाणी का सारा माधुर्य कहीं खो जाता, तैश और चिड़चिड़ापन पहले की तरह वापस लौट आता था। उस वक्त मुझे वे मुझे एक खौफनाक सरीसृप लगते थे। एक ऐसा सर्प जिसके सिर पर नागमणि है। वह नागमणि जो मुझे फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने का वरदान दे सकती है। बस उस नाग को वश में करना था। अंग्रेजी सीखने के लिए उनके व्यक्तित्व का यह रहस्य मैं जितने विस्मयकारी और चापलूसी भरे शब्दों में उन तक पहुंचा सकता था, मैंने पहुंचा दिया। एक बार नहीं कई-कई बार जताया। इस विश्वास के साथ कि जब ईश्वर अपने महिमामंडन से भरी स्तुतियां सुनकर किसी रोज पिघल सकता है तो फिर प्रोफेसर जोशी क्या चीज़ हैं? उनका गलनांक ईश्वर से ज्यादा नहीं ही होगा। हुआ भी वही, एक दिन उन्होंने मुझे अलग से अंग्रेज़ी पढ़ाने पर सहमति दे दी, वह भी नि:शुल्क। अगले दिन क्लास के बाद शाम को मुझे प्रोफेसर जोशी ने अपने घर बुलाया था। मैं इस बात से इतना खुश था कि उस रात आंख लगने पर पलकों के नीचे दबे सपने बुरी तरह चौंककर जाग गए और मैंने राष्ट्रपति के लिए अंग्रेज़ी में राष्ट्र के नाम संदेश लिखा, जिसे स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया। अब तो आप समझ ही गए होंगे कि सोते जागते मैं किस तरह के सपनों से परेशान था।
अगले दिन सांझ ढले मैं यूनिवर्सिटी के घुमावदार पहाड़ी रास्तों पर था। मंजिल थी प्रोफेसर जोशी का घर। रास्ते भर मैंने महसूस किया पलकों के ऊपर और नीचे रहने वाले सपने आपस में गडमड हो रहे हैं। प्रोफेसर जोशी के घर पहुंचने के लिए यूं तो यूनिवर्सिटी कैंपस का लगभग एक किलोमीटर का चक्कर लगाना पड़ता है, पर सपनों में खोए इंसान को रास्तों और दूरी का पता कहां चलता है? सपनों का वह सिलसिला कॉलबैल पर उंगली रखने पर बजी टिंग-टांग की आवाज़ के बाद टूटा। प्रोफेसर जोशी के घर का दरवाज़ा एक महिला ने खोला। उम्र करीब 35-40 के आसपास रही होगी, हो सकता है ज्यादा रही हो पर वह 40 से ज्यादा की नहीं लग रही थी। मैंने देखा एक नए सपने का द्वार खुल रहा है। साधारण से सलवार सूट में असाधारण सौम्यता मैं अपलक देख पा रहा था। मुझे देखते ही उसके चेहरे पर मुस्कान तैरी, साथ में चेहरे पर जिज्ञासा का भाव भी था। ‘जोशी सर ने बुलाया है।‘ मैंने उसके पूछने से पहले ही अपने आने का मंतव्य बता दिया। मेरी बात सुनकर उसने दरवाजा अच्छी तरह खोलते हुए कहा, ‘तो बाहर क्यों खड़े हो, अंदर आ जाओ। प्रोफेसर साहब स्टडी में हैं मैं उन्हें बुला देती हूं।‘ उसकी आवाज़ और व्यवहार में यकायक आतिथ्य के गहरे भाव प्रकट हो गए, मानो वह सिर्फ आतिथ्य के लिए ही आतुर है। मैं यह देखकर विस्मित था और मेरा नया सपना खुश। भीतर जाते-जाते उसकी फिर आवाज़ आयी, ‘चाय पी लोगे या कॉफी?’ मैं कुछ कह पाता उससे पहले ही उसने कहा, ‘चाय ही पी लो, प्रोफेसर साहब का चाय का वक्त हो गया है।’ मेरी आंखों में स्वीकृति पढ़कर वह वापस अंदर जाने के लिए पलट गई। मेरी पलकों पर बैठा नवजात सपना इस बीच नीचे कूंद पड़ा था और देखते ही देखते वह सपना किचन की ओर दौड़ा और महिला के पीछे जाकर खड़ा हो गया। उस महिला ने पलटकर मेरे सपने को प्यार से देखा, शायद उसका सपना मेरे सपने से मेल खा रहा था। अब हम दोनों के सपने एक दूसरे को छूकर महसूस कर रहे थे। हम दोनों के सपने एक दूसरे से आश्वस्त हो रहे थे। दोनों सपनों को विश्वास हो गया था कि वे एक दूजे के लिए ही बने हैं। तभी आहट हुई और प्रोफेसर जोशी को अपने सामने देखकर मैं चौंक गया। मैंने खुद को ड्राईंगरूम में प्रोफेसर जोशी के सामने खड़ा पाया। मेरा सपना किचिन में छूट गया था। मैं डर गया, घबराकर मैंने अपने सपने को वापस बुलाना चाहा लेकिन वह आने से इंकार कर रहा था। इस बात से मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। उस पर प्रोफेसर जोशी के आते ही जैसे पूरे माहौल में कोई मनहूसियत चस्पा हो गई थी। उन्होंने मेरे हाथ से नोटबुक ली और एक वर्ब-टेबल बनाने लगे। वह उनका इजाद किया हुआ कोई फॉर्मुला था लेकिन मेरे पास अपने सपनों से मुकाबला करने का कोई फॉर्मुला नहीं था। इस बीच वह महिला आयी और चुपचाप सेंटर टेबल पर चाय की ट्रे रखकर बिना कुछ कहे चली गयी। पूरा टेबल बनाने के बाद प्रोफेसर जोशी ने मुझे तीनों टेंस में कोई भी वाक्य जितने भी तरह के विन्यास में संभव हो सकता था उसकी लिस्ट हाजिर कर दी और कहा, ‘कोई कितनी भी अंग्रेज़ी क्यों न बोले, वाक्य विन्यास इन्हीं 52 तरीकों से ही बनते हैं, यह समझ में आ गया तो फिर समझो अंग्रेजी बोलना भी आ गया।’ कुछ देर पहले की स्थिति में अंग्रेज़ी भाषा का ऐसा दुर्लभ ज्ञान और वरदान पाकर मैं खुद को धन्य समझता पर ऐसे सपने भला किसी के सगे कहां होते हैं। नए सपने की आहट से पुराना सपना शायद मुझ से रूठ कर बैठा था। वह अब उपेक्षित महसूस कर रहा था या फिर यह भी हो सकता है कि शायद अपने पूरे होने की संभावना मिलने पर सारे सपनों की यही दुर्गति होती है।
मैंने महसूस किया यह नया सपना बेकाबू होता जा रहा है। वह अब तक के तमाम सपनों में सबसे ताकतवर था। बाकी सपने कितनी भी कोशिश कर लें मुझे चला नहीं पाते थे। वे मुझे खींचकर अपनी दुनिया में ले तो जाते थे पर उन सपनों के अंत में, मैं खुद को जहां का तहां पाता था। पहली बार असल में कोई सपना मुझे अपनी जगह से हिलने पर मजबूर कर रहा था। मुझे प्रोफेसर जोशी के घर तक लेकर जा रहा था। उस सपने को इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि वह महिला प्रोफेसर जोशी की कौन है? उनकी इतनी बड़ी बेटी हो यह संभव नहीं था और पत्नी वह लगती नहीं थी। लेकिन वह उनकी पत्नी ही थी। उम्र में उनसे कुछ 12 साल छोटी। उम्र में इतने अंतर वाले दाम्पत्य जीवन में बहुत तनाव रहता है, यह मैंने अपने अपने कॉलेज के दोस्तों से सुन रखा था। उनमें से कुछ ने अपने सफल प्रयासों के किस्से भी मुझे सुनाए थे। मेरे अवचेतन में किसी प्रोढ़ महिला के प्रति आकर्षण के पीछे शायद यही वजह रही हो हालांकि तब मैं इस बात के प्रति इतना सजग नहीं था। खैर जो नींद के बगैर ही इतने सपने देखता हो, वह उस तरह सजग हो भी कैसे सकता है?
फिर एक दिन वही हुआ जिसका डर था। प्रोफेसर जोशी से समय लिए बिना मैं उनके घर पर था। जिस वक्त मैं पहुंचा, वह समय उनके साप्ताहिक मित्र-मिलन के लिए तय रहता था। प्रोफेसर जोशी हर हफ्ते अपने दोस्तों के साथ शराब और कबाब के साथ एक लंबी बैठक किया करते थे। मुझे पता था वे आधी रात के बाद ही लौटने वाले हैं। मैं जानबूझकर उस शाम उनके घर गया था कि उनकी पत्नी से अकेले में मिल सकूं। उनकी पत्नी ने उस दिन मेरे लिए कॉफी बनाई और हम दोनों ड्राईंगरूम में बैठे बातें कर रहे थे तभी प्रोफेसर जोशी अचानक घर लौट आए। मुझे सामने देखकर उनकी आंखों में तिरस्कार, घृणा और क्रोध की ऐसी ज्वाला नज़र आयी जो मुझे तक्षण भस्म करना चाहती है। लेकिन मैं उनकी आंखों में देख पा रहा था, जैसे खुद उनका कोई सबसे प्यारा सपना उसी आग में जलकर राख हो रहा है। सपनों का क्लैश तब पहली बार मैंने देखा। अपनी सबसे प्रिय ‘वस्तु’ को खोने के डर से उपजी उनकी वह बौखलाहट मुझे आज भी याद है। गनीमत यह थी कि उन्होंने उस दिन मेरा खून नहीं किया, बस इतना कहा- आज के बाद कभी यहां पढ़ने मत आना। मैंने महसूस किया मेरे जीवन का सारा प्रकाश छिन गया है। हर तरफ घोर अंधकार फैल गया था। उस सर्प ने अपने फन से नागमणि ढक ली थी।
अवसाद क्या होता है तब मैंने पहली बार देखा। अंग्रेजी न बोल पाने और किसी महिला के प्रेम के बिना मुझे अपना जीवन इतना निरर्थक लग रहा था कि मेरे सपनों में आत्महत्या के विचारों ने घुसपैठ शुरू कर दी थी। कॉलेज की पढाई में मेरा जरा भी मन नहीं लग रहा था। बेहतर यह लगा कि क्यों न मैं कुछ दिनों के लिए अपने कस्बे लौट जाऊं। अगली शाम मैंने घर जाने के लिए बस पकड़ी। पता नहीं क्यों मुझे लगा मैं अकेला नहीं हूं। घर पहुंचकर मैं वाकई अकेला नहीं था। अपने परिवार, दोस्तों और रिश्तेदारों में से किसी ने मुझे जरा देर के लिए भी अकेला नहीं छोड़ा। एक छोड़ जाता तो कोई दूसरा आकर मुझे अपने सपनों में जाने से रोक देता। सपनों के बिना मैं काफी हद तक अपने सामान्य जीवन में था। मेरे अपने सपने भी शायद उपेक्षा के डर से मेरे पास आने में घबरा रहे थे। मैं खुश था। अंग्रेजी मुझे अपने कस्बे में जरा भी ज़रूरी नहीं लग रही थी पर कुछ जरूरी पीछे छूट गया है यह एहसास अब भी पीछे पड़ा था। वह ख्याल भी तब आता जब मैं अकेला होता।
अगले दिन मैं कस्बे के सबसे भीड़ भरे चौराहे के पास अपने दोस्तों के अड्डे पर गपबाज़ी कर रहा था। बिना उंगलियों के सहारे सिगरेट मेरे लबों के एक कोने में दबी हुई थी और मैं बड़े गर्व से मोटर बाइक पर बैठा मिसेज जोशी से अपने संसर्ग के किस्से उन्हें सुना रहा था। मैंने महसूस किया कि मेरे उन दोस्तों में मेरा एक दोस्त जो कभी मेरी किसी भी बात पर यकीन नहीं करता था, वह भी मेरी बातें ध्यान से सुन रहा है। तभी अचानक मेरी नज़र सामने मुख्य बाज़ार की तरफ से साइकल रिक्शा में बैठी मिसेज जोशी पर पड़ी और मैं चौक गया। शायद वे बाज़ार से कुछ खरीदारी करके लौट रही थीं। लेकिन इस कस्बे में? उन्हें देखकर आश्चर्य से मेरी आंखें चौड़ी होती जा रही थीं। मिसेज जोशी की नज़र मुझ पर पड़ी तो उनके चेहरे पर भी विस्मय के भाव थे। मैं लड़कों के साथ खड़ा था इसलिए उन्होंने पास आकर रिक्शा रोकने के लिए नहीं कहा। उनकी आंखों में दिखा आमंत्रण मैं साफ देख पा रहा था। बिना देर किए मैंने अपने दोस्तों से किनारा किया और बाइक रिक्शे के पीछे दौड़ा दी। साइकल रिक्शा कस्बे के छोर पर बने एक कोठीनुमा घर के सामने जाकर रूका। रिक्शा से उतने पर वे मुड़ी और मुझे देखकर पूछा,
‘स्वप्निल! तुम यहां क्या कर रहे हो?’
‘यही बात मैं आपसे पूछना चाहता हूं?, मेरा तो घर है यहां, पर आप?’ मैंने कहा। उन्होंने खरीदारी का सामान रिक्शे से उतारा और रिक्शावाले की तरफ पैसा बढ़ाते हुए कहा- ‘मेरी बेस्ट फ्रेंड का घर है, वो यूके से तीन साल बाद आयी है। जब भी आती है मुझे कुछ दिन के लिए अपने पास जरूर बुला लेती है।‘ हम जिस कोठी के सामने खड़े थे उसके मालिक भोपाल में कहीं रहते थे, बच्चे लंदन में सैटल हो गए थे। इसके अलावा हमारे कस्बे में उस परिवार के बारे में किसी को कुछ ख़ास पता नहीं था। गेट के अंदर जाते हुए मिसेज जोशी एक बार फिर मुडी, ‘कल तुम यहां आ सकते हो क्या? मेरी सहेली को कल कुछ काम है, वह घर पर नहीं होगी तो मेरा मन नहीं लगेगा। यहां किसी को जानती भी नहीं हूं, तुम आओगे तो अच्छा लगेगा।‘
उस रात फिर मुझे एक सपना आया। मैं और मिसेज जोशी कस्बे के बाहर एक सुनसान पहाड़ी पर बने मंदिर में बैठे हैं। वैसे भी मंदिर और अन्य धार्मिक स्थल कस्बों और छोटे शहरों में प्रेमियों की सबसे बड़ी पनाहगाह रहे हैं, ताज्जुब है यब बात मैं सपने में भी नहीं भूला था। हाथों में हाथ डाले हम एक दूसरे की आंखों में देख रहे हैं तभी अचानक वहां प्रोफेसर जोशी आ जाते हैं। प्रोफेसर जोशी की नज़रों में वही क्रूरता है जो मेरी हत्या कर सकती है। लेकिन मिसेज जोशी मेरी ढाल बन जाती हैं। इसी बीच एक दुर्योग घटता है। मुझे बचाने के लिए मिसेज जोशी जैसे ही मेरे सामने आती हैं प्रोफेसर जोशी हल्का सा धक्का लगता है और वे पहाड़ी से नीचे गिर जाते हैं। इसके आगे का सपना थोड़ा जटिल था और अब ठीक से याद नहीं। उसमें पुलिस तहकीकात। मुझे और मिसेज जोशी को समाज के ताने जैसी बहुत सारी चीजें थी। पर अब वह सब अच्छी तरह याद नहीं।
अगले दिन मैं कस्बे के छोर पर बनी उस भव्य कोठी में था। सेंट्रल हॉल के बीचोंबीच डायमंड कटिंग की झालर वाला एक शानदार झूमर झूल रहा था। उस आलीशान बैठक में मुझे बैठाकर मिसेज जोशी किचन से हमेशा की तरह मेरी मनपसंद कॉफी लेकर लौटीं। उन्होंने आते ही कहा, ‘तो कैसी चल रही है तुम्हारी अंग्रेजी की प्रेक्टिस?’ मैंने उनसे नज़रें मिलाकर कहा, ‘अब मुझे नहीं सीखना अंग्रेजी-वंग्रेजी।’ उन्होंने चौंककर मेरी तरफ देखा फिर एक हाथ से अपने लंबे बालों को समेटकर पीछे करते हुए अपने दूसरे हाथ से कॉफी का मग मेरी तरफ बढा दिया। ‘अरे अंग्रेजी से क्यों चिढ़ गए? प्रोफेसर साहब से चिढ गए यह मैं समझ सकती हूं।‘ इतना कहने के बाद पता नहीं क्यों वो ठहर गईं जैसे कुछ बोलना चाहती थीं लेकिन न बोलना उन्हें ज्यादा ठीक लगा। ‘सचसच बताइए, आपको उनसे चिढ़ नहीं होती? आपकी वजह से चिढ़ना छोड़ दिया था उनसे वर्ना वे मुझे हमेशा से नापसंद रहे हैं’ मैंने वापस वही बात छेड़ने की कोशिश की जिससे वे बच रही थीं। वे काफी देर मुझे कॉफी पीते हुए देखती रही फिर बोली, ‘पसंद-नापसंद से क्या होता है स्वप्निल? मुझे भी वे कभी पसंद नहीं रहे। मुझे उन्होंने जॉब नहीं करने दी। कभी खुद के पैरों पर खड़ा होने का हौसला नहीं दिया। मेरा मुस्कुराकर किसी को देखना भी उनका खून सुखा देता है… फिर भी नहीं कह सकती कि मुझे प्रोफेसर साहब से नफरत है।‘ मैंने देखा उनकी आंखें मुझे देखते हुए पत्थर की सी हो गई हैं। पलकें झपक नहीं रहीं। मुझे यकीन हो गया कि शायद उनकी पलकों पर बैठा कोई सपना जाग गया है। यही ठीक मौका है मैं अपनी बात उनसे कह दूं। ‘मिसेज जोशी आप बिल्कुल भी चिंता मत करिए। मैं जबतक हूं आपकी हर खुशी का ख्याल रखूंगा। सच बताऊं मुझे प्रोफेसर जोशी सांप जैसे लगते हैं।’ मेरी बात सुनकर वो हंसने लगी, फिर मेरे पास आकर उन्होंने मेरे गाल पर चिकोटी काटी और मेरे बाल सहलाते हुए कहा, ‘अगर हमारा तुम जैसा कोई बेटा होता तो बात अलग होती। तुम्हें देखकर मुझे हमेशा अपने उसी बच्चे की याद आ जाती है जिसका 23 साल की उम्र में गर्भपात हो गया और फिर ऐसा दुर्योग हुआ कि मैं कभी दोबारा मां नहीं बन पायी।’ मिसेज जोशी की बात सुनकर मेरा कॉफी का मग गिरते-गिरते बचा। मेरा दिमाग सुन्न हो गया था। यह मेरे सपने का गर्भपात नहीं था मेरा नवजात सपना उस वक्त तक काफी बडा हो गया था, वह इस तरह दम तोड़ेगा इसकी कल्पना भी नहीं की थी। अनमने पन के बावजूद मैं उस दिन शाम तक उनके साथ रहा। विदा लेते वक्त उन्होंने मुझे बता दिया था कि वे सुबह वापस लौट जाएंगी। घर लौटने पर उस रात मुझे कोई सपना नहीं आया। आता भी कैसे, देर रात तक अपने बिस्तर पर पड़ा रोता रहा। मैंने महसूस किया आंसुओं से मेरे सब सपने धुल रहे हैं। उनपर चढ़ी मैल की परत धुलकर साफ हो रही है।
एक हफ्ते बाद जिस रोज वापस शहर पहुंचा, शाम को यूं ही ख्याल आया क्यों न एक बार प्रोफेसर जोशी के घर जाकर उनसे माफी मांग लूं। अनायास मेरे कदम यूनिवर्सिटी के पीछे प्रोफेसर्स क्वार्टर्स की ओर जाने वाली सड़क पर बढ़ते रहे। मैंने महसूस किया अब कोई सपना मेरे साथ नहीं चल रहा है। प्रोफेसर जोशी के घर की कॉलबैल की टिंग टांग ने मुझे किसी सपने से बाहर नहीं निकाला। दरवाजा खुद प्रोफेसर जोशी ने खोला। घर पर कुछ लोग बैठक में शोकाकुल बैठे थे। मुझे देखरकर उन्होंने कोई फुंफकार नहीं भरी। उनकी आंखों में सांप जैसी कोई चमक नहीं थी। मुझे लगा शायद लोगों का लिहाज करके प्रोफेसर जोशी मेरे साथ संयम से पेश आए। लेकिन आगे जो बात पता चली वो मेरे पैरों तले से जमीन खिसकाने वाली थी। मिसेज जोशी को गुज़रे हुए पूरे दस दिन हो चुके थे। शायद जिस दिन मैं अपने घर जाने के लिए शाम की बस में बैठा उसी शाम मिसेज जोशी यूनिवर्सिटी रोड के पहाडीदार रास्ते से फिसलकर नीचे गिर गईं थी और उनकी जान चली गई। अगले दिन उनकी त्रयोदशी थी। मैं अपने कस्बे में मिसेज जोशी से मिलने की बात याद करके कांप गया। फिर जिससे मैं मिला वो कौन थी? यही सब सोचते हुए मैं अर्धविक्षिप्त सा वापस लौट आया। दो महीने बाद जब एक बार फिर घर जाने का मौका मिला मैं एक बार फिर अपने कस्बे की उस कोठी के सामने खड़ा था जहां मैं मिसेज जोशी से मिला था। उस कोठी के मुख्य द्वार पर एक जंग लगा ताला लगा था, जो शायद बरसों से कभी खुला ही नहीं था…
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