
पहले लेखक एक दूसरे के ऊपर खुलकर लिखते थे फिर भी दोस्तियाँ क़ायम रहती थीं। प्रसिद्ध शायर दुष्यंत कुमार ने यह विश्लेषण अपने दोस्त और लेखक कमलेश्वर का किया था। कमलेश्वर की ‘समग्र कहानियाँ’ से ले रहा हूँ जो राजपाल एंड संज से प्रकाशित है-
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जिस दिन से कमलेश्वर का वंश बदला, लगभग तभी से मैं उसे देख रहा हूँ और जब तक आपकी मुलाकात इस व्यक्ति से न हुई हो तो अब जरूर मिलिए। आप पाएंगे कि वह बेहद खुशदिल, खुशमिजाज और मिलनसार आदमी है। लतीफों और चुटकुलों की फुलझड़ियों से यह महफ़िलें गुलजार रखता है और बात को मोड़कर बात पैदा करने में उसका जवाब नहीं।
आज यह सब है पर जिस वक्त यूनिवर्सिटी में वह मेरे साथ था, बहुत ख़ामोश रहता या। हम दोनों बी. ए. में थे। यद्यपि उसमें शुरू से ही साधारण से कहीं अधिक प्रतिभा, सूझ-बूझ एवं सुरुचि थी, पर मैं केवल सज्जनता के कारण उसकी तरफ आकृष्ट हुआ था। वह बहुत सादा, सरल शांत था। वह बेहद बेरहम संघर्षों के बीच से गुजर रहा था, पर उसके चेहरे पर एक भी शिकन नहीं होती थी। मुझे भी यह पता या कि उसके पास चार जोड़े से ज्यादा कपड़े नहीं है, पर उसके कपड़ों पर एक भी धब्बा नहीं होता था। वह एक छकड़ा साइकिल पर यूनिवर्सिटी आया करता था और तलब लगने पर किसी झाड़ी के पीछे या एकान्त कोने में छुपकर बीड़ी-सिगरेट पिया करता था। शायद हर महीने उसका नाम फीस जमा न करने वाले डिफाल्टर’ छात्रों की लिस्ट पर रहा करता था, क्योंकि जेब-खर्च नाम की कोई चीज़ उसके पास न होती थी, इसलिए फीस के रुपयों में से कुछ वह हमेशा खर्च कर लेता था और वक्त पर उसके पास पूरे पैसे नहीं होते थे। उन दिनों वह कुछ-कुछ लिखा करता था, खास तौर से एक डायरी। एक लड़की थी जिसके बारे में वह कभी-कभी बात भी किया करता था। वह लड़की भी उसे चाहती थी। तब उसकी दुनिया बहुत छोटी थी। यूनिवर्सिटी में पढ़ने आता, वहाँ से लौटकर वह एक रद्दी किस्म की पत्रिका के कार्यालय में काम करता जहाँ से उसे पचास रुपया महीना मिलता था और शाम को वह अकेला रहना पसन्द करता था। उसने अपने को कतई महदूद कर लिया था। रात को घर लौटकर वह अपने निहायत छोटे-से कमरे में बैठकर लिखा करता था।
वह कितनी तरह के काम करता था, यह भी पता नहीं चलता था उन दिनों भी खुदार इतना था कि अपनी बात किसी से नहीं करता था। मुझे वे दिन याद हैं जब वह अपने-आप में सर्वोदयी’ हो गया था (विनोबा से भी पहले)। साबुन बनाने से लेकर अपनी स्याही तक खुद बनाता था। संकोची वह इतना था कि खाना भी भरपेट नहीं खा पाता था। उसकी माँ ने ही मुझे एक बार बताया था, “कैलाश (उसका घर का नाम) इतना संकोच करता है कि दुबारा रोटी तक नहीं माँगता… मुझे जिन्दगी में हमेशा यह अफ़सोस रहेगा कि मेरे बेटे ने मुझ से ही कभी रोटी या पैसा नहीं मांगा।”
जिस जमाने में उसने लिखना शुरू किया था और जिस संघर्ष से वह निकलकर आया था, उसने कमलेश्वर को नितान्त अंतर्मुखी बना दिया था। उसके उस आदर्शवादी प्यार ने उसे बाद में चलकर और भी तोड़ दिया।
वे दिन मुझे याद हैं जब वह पजामा कुरता पहने हुए अपनी उसी छकड़ा साइकिल में मेरे पास आया था। उसकी आंखों में धूल उड़ रही थी और चेहरा एकदम उतरा हुआ था। उसे चाय पीते हुए उसने धीरे से कहा था, “अब मैं अकेला रह गया हुँ।” और मुझे मालूम है कि अपने लिखने की अड़ पर उसने अपनी ज़िंदगी की वह चीज़ ख़ुद खो दी थी जिसे वह उस वक्त सबसे ज़्यादा चाहता था। उसका एक ही तर्क था, ‘दुष्यंत, ज़िंदगी में सब हासिल नहीं होता। चुनना तो होगा ही कि मैं क्या चाहता हूँ…।’ और उसने अपने लिए साहित्य का रास्ता चुन लिया था।
उसका लड़कपन का यह चुनाव जो उस वक्त उसने भावुकता में किया था, आज सही साबित हो चुका है। क्योकि उस वक्त मुझे और ख़ासतौर से मार्कण्डेय को यह कतई उम्मीद नहीं थी कि कमलेश्वर इस इस जिन्दगी को झेल पाएगा। शायद कमलेश्वर ने भी महसूस किया हो कि सौजन्य और सादगी के दुशाले ओढ़कर व्यक्तित्व का आकर्षण भले ही बढा लिया जाए, उसका आंतरिक प्रभाव नहीं बढ़ाया जा सकता। इधर उसकी विशिष्ट प्रतिभा उसे वैशिष्ट्य प्राप्त करने के लिए उकसा रही थी। फलतः वह गम्भीरतापूर्वक कहानी लेखन की ओर उन्मुख हुआ, जहां उसे आशातीत सफलता प्राप्त हुई। उधर चूँकि सामाजिक व्यवहार के स्तर पर पैनापन और वाकचातुर्य व्यक्तित्व को दिलचस्प और अभिव्यक्ति को तेज बनाते हैं इसलिए अपनी ऐकान्तिक गाँठों को खोलकर सहज मेधा द्वारा उसने इस दिशा में भी रूचि लेना शुरू कर दिया। यदि ऐसा न होता तो कमलेश्वर अपनी व्यक्तिवादी गुंजलक से बाहर न आ पाता। अपने घेरों को तोड़ने का काम उसने शक्ति से किया और सामाजिक, बौद्धिक और मानसिक रूढिबद्ध घेरों को तोड़ने का काम वह कहानी से लेने लगा।
वे तमाम घटनाएं, जिनमें कमलेश्वर एक निहायत पैने व्यक्ति की तरह नजर आता है, मेरे सामने लौट आई हैं…
इलाहाबाद की गरमी। कमलेश्वर और मैं तीन मील पैदल चलकर रेडियो स्टेशन पहुंचते है। काम समाप्त कर सवाल उठता है, अब क्या करें? आराम या तीन मील का पैदल मार्च जेब में पैसे भी कम है, तभी डॉ. धर्मवीर भारती रेडियो स्टेशन से निकलते हैं और अपनी मोटर की तरफ बढ़ते हुए दिखाई देते हैं (उल्लेखनीय है कि उन दिनों भारतीजी ने जो मोटर खरीदी थी, वह इलाहाबाद के साहित्यकारों के कौतुक, मनोरंजन, यहाँ तक कि ईर्ष्या का पर्याय बन गई थी)। भारती जी शालीनतावश पूछते हैं, “अरे भई, सिविल लाइन्स चल रहे हो?”
मैं लपककर मोटर तक पहुंच जाता हूँ। कमलेश्वर हाथ जोड़कर ठिठक जाता है। भारती जी उसके संकोच को हटाने की कोशिश करते हैं, “अरे, आओ भी!”
और अतिशय विनम्रता से कमलेश्वर कहता है, “वह बात यह है कि मुझे जरा जल्दी पहुँचना है.मैं रिक्शे से चलता हूँ। आप मोटर से आइए।”
एक पूरी किताब कमलेश्वर के ऐसे संस्मरणों पर लिखी जा सकती है, मगर उससे भी उसके व्यक्तित्व के साथ न्याय नहीं हो सकता। यह तो मात्र प्रासंगिक सत्य है कि अपनी विलक्षण मेघा द्वारा उसने अल्पकाल में, इच्छामात्र से, व्यंग्य विनोद की प्रकृति को आत्मसात कर लिया। मूल सत्य यह है कि उसके असल व्यक्तित्व की अन्तरधारा में न तो व्यंग्य है हास्य। वह स्वभाव से अत्यन्त संवेदनशील, भावप्रवण और गम्भीर व्यक्ति है, उसका करुणा है-सघन पूँजीभूत करुणा-जिसके कारण वह अपने व्यंग्य में भी अनुदार नहीं हो पाता, यहाँ तक कि उसकी फबती से आपको कहीं जरा भी चोट पहँची तो पहला वही होगा जो तत्काल इस बात को भाँप लेगा और अवसर मिलते ही, झिझकते हुए, आपका हाथ अपने हाथ में लेकर इस कदर प्यार से दबाएगा कि उसकी हथेलियों की ऊष्मा में (अगर आप थोड़े भी समझदार हैं तो) असल कमलेश्वर को खोज निकालने में आप भूल नहीं करेंगे।
मैंने इस असल कमलेश्वर को इसलिए भी और जल्दी खोज लिया कि वह मेरे साथ बहुत रहा है। वैसे उसकी कुछ आदतें तो बड़ी बेहूदा हैं। उनमें से एक आदत के कारण उसके साथ सड़क पर चलना मुश्किल हो जाता है-रास्ते में उसे जो भी ‘राहीजी’, ‘पीडितजी’, ‘व्यथितजी’, ‘बेकलजी’, या गुमनामीजी’ मिलेंगे, वह सबके लिए ‘एक मिनिट दुष्यन्त’ कहकर अटक जाता है। इलाहाबाद में शुरू-शुरू में जब वह खुद बहुत प्रसिद्ध नहीं हुआ था, उसके यहाँ बहुत-से साहित्यकार जमे रहते थे और यह जानते हुए भी कि साहित्य-बोध नुस्खे देकर नहीं बाँटा जा सकता, वह भरसक सबका समाधान करने की कोशिश किया करता था।
कमलेश्वर की जो सबसे बड़ी खुबी है, वह यह कि आप सौ फीसदी यह तय करके जाएँ कि उससे लड़कर लौटेंगे, पर आप लड़कर नहीं लौट सकते, क्योंकि घोर विरोधी को वह अपने व्यक्तित्व की सहजता, सौजन्य, बुद्धि और अपनी आँखों के विश्वास से पराजित कर लेता है। वह अहंकारवादी नहीं है, कुठित नहीं है, उसमें एक सहज अपनापन है। इलाहाबाद में वह प्रायः रोज रात को ग्यारह-ग्यारह बजे तक मेरे तथा अन्य दोस्तों के साथ गप्पें लड़ाया करता था। घर जाकर खाना और डाँट खाया करता था। रात को देर-देर तक लिखा करता था और सुबह फिर उसी ताजगी और उत्साह से दिनचर्या शुरू हो जाती थी। उसी चुस्ती और उल्लास से वह अपनी छकड़ा साइकिल उठाता, तीन मील उलटा चलकर मेरे पास आता, मेरे अहदीपन पर लानत भेजते हुए खुद चाय बनाता, फिर तीन मील यूनिवर्सिटी का सफर तय करता, दोपहर को सेंट जोजेफ सेमिनरी में कैथोलिक पादरियों को पढ़ाने जाता, शाम को एक खास रास्ते से गुजरकर अपनी प्रेमिका से मिलता और फिर सिविल लाइन्स में दोस्तों से आ मिलता। इस तरह रोजाना बीस-बाइस मील का चक्कर काटकर रात को घर पहुंचा तो उसके दिमाग में केवल दो बातें होती, भाई साहब की प्यार भरी डाँट और कहानी का प्लॉट ।
ये उसके भयंकर संघर्ष के दिन थे वह अपने छोटे-से कस्बे मैनपुरी से मानसिक रूप में इतना जुड़ा हुआ था कि इलाहाबाद में रहते हुए भी वह वहीं की बातें सोचा करता था। हर महीने मैनपुरी भागकर जाया करता था और तीन-चार बोरे प्लॉट लाया करता था। उसी समय उसने ‘मुरदों की दुनिया’ कहानी लिखी थी वह कहानी कमलेश्वर ही लिख सकता था, क्योंकि वह अपने कथा-क्षेत्र से संवेदन और समझदारी के स्तर पर जुड़ा हुआ या। उसके दिल में एक कसक थी-अपने छूटे हुए शहर के बाशिंदों के लिए। यही वह समय था जब वह वैचारिक द्वंद्व के बीच घिर गया। अपने टूटते हुए सामन्ती घर से तो वह निकल आया था, पर जीवन में जो आस्थाएँ खंडित हुई थीं, उनकी पुनःस्थापना और जिन्दगी से फिर से जुड़ सकने का उसका यह अन्तर्द्वन्द मैंने देखा है। मैंने देखा है कि कमलेश्वर ने कभी भी किसी ‘डॉग्मा’ से चालित होकर लिखना स्वीकार नहीं किया है। कमलेश्वर की हर कहानी उसके जीवनानुभवों में से निकली है, कमलेश्वर ने पढ़-पढ़कर उस संक्रान्ति को नहीं झेला है, बल्कि उसे स्वयं जिया है।
राजा निरबंसिया’ कहानी लिखने से पहले भी वह अंतर्द्वंद्व से पीड़ित रहा है। इसका छूटा हुआ शहर तब भी लोककथाओं के आदर्शों के मातहत जी रहा था, पर इलाहाबाद में स्थितियाँ वे नहीं थीं और वह व्यक्ति-व्यक्ति के बदले सम्बन्ध को नहीं, समय और इतिहास जीवन के सन्दर्भों से बदलते सम्बन्ध को भी देख रहा था। इसलिए उसकी हर कहानी जीवन के संदर्भों से जुड़ी हुई हैं। उसकी शायद ही कोई कहानी ऐसी हो जिसके सूत्र जिन्दगी में न हो, क्योंकि वह बहत खूबी से अन्तर्विरोयों को पकड़ता है। उसकी लगभग हर कहानी का एक वास्तविक स्थल है जहां से वह उसे उठाता है और अपने कथ्य की कल्पना अपेक्षाओं के साथ अभिव्यक्त कर देता है। मुझे बहुत सी ये घटनाएँ लोग, स्थितियां, विचार, सन्दर्भ, पात्र आदि याद है जिन्होंने उसकी सशक्त कहानियों को जन्म दिया है। कमलेश्वर इस मामले में एक बंजारा है, क्योंकि वह अनवरत यात्रा पर रहता है। वह लिखने का सरंजाम जुटाकर, धूपबत्तियाँ जलाकर, बेले या हरसिंगार के फूल सामने रखकर, चॉकलेट कुतर-कुतरकर खाते हुए नहीं लिखता। इसीलिए राजेन्द्र यादव करता है-“यार, इस आदमी में कितना स्टैमिना है। दिन-भर घूम सकता है, बैल की तरह काम कर सकता है, फिर भी चेहरे पर थकान या शिकन नहीं। जाने किस चक्की का पिसा खाता है।” और कमलेश्वर उसे या अन्य दोस्त लेखकों को संत्रस्त करने के लिए कभी-कभी ऐसे झटके दे भी दिया करता है। मन्नू मंडारी द्वारा संपादित ‘नई कहानियाँ’ के विशेषांक में उसकी कहानी प्राप्त करने के लिए जब यादव ने उसे बाकायदा घेर ही लिया तो वह कलम लेकर बैठ गया और बोला-“अच्छा, तुम शेव करो, मैं कहानी शुरू करता हूँ।” और उसने कहानी शुरू कर दी। राजेद्र यादव ने शेव, सामान सामने रखा तो वह बोला-“राजेन्द्र देख, नायिका दरवाज़े पर आ गई” यादव ने जब तक शेव का पानी गरम किया, वह बोला-“देख, अब वातावरण डाल रहा हूँ उसने वातावरण डाल दिया। यादव ने शेव समाप्त किया तो वह बोला-“अब एक स्थिति समाप्त हो गई।”
और जब तक राजेन्द्र यादव ने अपनी आदत के मुताबिक चार-पाँच ‘ऐतिहासिक पत्र’ लिखे, नहाया और कपड़े पहनकर तैयार हुआ, तब तक कमलेश्वर ने कहानी पूरी करके यादव को थमा दी, कहानी थी-‘जो लिखा नहीं जाता’। और यादव ध्वस्त होकर रह गया। लेकिन यह केवल झटका था और उसके लेखक का यह तरीका बिलकुल नहीं। वह तो तब लिखता है जब निभृत एकान्त हो और उस पर दबाव हो-वैचारिक, मानसिक या आर्थिक।
इलाहाबाद में एक दोपहर घर लौटते हए उसने एक नंगी जवान औरत को चार आदमियों के बीच घिरे और चिल्लाते देखा तो उसकी चेतना एक गहरा नैतिक दबाव अनुभव करने लगी। वह दबाव कई वर्षों तक उसकी चेतना पर छाया रहा-तब तक, जब तक कि वह ‘एक अश्लील कहानी’ लिखकर उससे उऋण न हो गया। छोटी-से-छोटी घटना भी कब और क्यों उसकी चेतना पर हावी हो जाएगी, यह कहना मुश्किल है। जब वह ऐसे दबावों में होता है तो अदेखी अनजान दिशाओं की काल्पनिक यात्रा करता है। अनुपलब्ध और अप्रस्तुत पीड़ाओं के बारे में सोचता और पीड़ित होता है। उँगलियाँ चटखाता और कसमसाता है और ऊपर से सरल दिखाई देने वाली उस स्थिति को उसकी सारी उलझनों, कुंठाओं, तकलीफों ने भरकर भोगता और लिखता है। हाँ, जब वह उनसे मुक्त होता है तो दोस्तों की खाल उधेड़ता है। चुटकुले और लतीफ़े गढ़ता है। सिगरेट फूंकता है। नई पुरानी बदमाशियों के बारे में बात करता है। दस्तूरी चिट्ठियाँ लिखता है और घर के कामकाज में दिलचस्पी लेता है।
इस तरह एक ओर जहाँ वह अपने समय के उलझनों, विरोधाभासों और यंत्रणाओं को अपने भीतर उतारकर समझने की कोशिश करता है, वहीं उनसे निस्संग होकर उन्हें निरन्तरता में देखने की कोशिश भी जारी रखता है। दोनों स्थितियों में उसका दृष्टिकोण पराजयवादी नहीं, आस्थावादी होता है।
प्रगति में परिवर्तन का बोध निहित है और कमलेश्वर की प्रगति इसी परिवर्तन की प्रक्रिया को समझने का परिणाम है। उसकी कहानियाँ, भाषा और कथ्य समाज के बदलते हुए भिन्न-भिन्न परिवेशों की देन है उसका स्टैमिना परिवर्तन की तेज-से-तेज रफ्तार में उसका सहायक होता है, इसीलिए कमलेश्वर कभी पिछड़ता नहीं और न प्रयत्न-शिथिल होता है। जब मैनपुरी जैसे कस्बे से इलाहाबाद में पहुँचा तब भी और जब इलाहाबाद जैसे शहर से दिल्ली-सी महानगरी आकर बसा तब भी आने और बसने के बीच वह निरन्तर मानसिक रूप से अपने शिथिल परिवेश के प्रति सजग रहता है और लेखन की भूमिका बनाता रहता है।
राजा निरबसिया’ से ‘कस्बे का आदमी’ के बाद ‘नीली झील’ से लेकर ‘खोई हुई दिशाएँ तक की उसकी कहानियाँ मध्यवर्गीय जीवन की सादगी से शुरू होकर महानगर की आधुनिकतम संचेतनाओं और संश्लिष्टताओं का प्रतिनिधित्व करती है। और में कहना चाहूँगा कि यह कोई साधारण बात नहीं है कि एक कलाकार अपनी भावभूमियों पर परिश्रमपूर्वक तैयार की गई अपनी निर्मितियों को इतनी निर्ममता से तोड़कर अलग हो जाए और नए सफल प्रयोग करने लगे। कमलेश्वर चाहता तो ‘कस्बे की कहानी’ की तखती लटकाए औरों की तरह एक स्कूल खोले बैठे होता मगर उसने कलाकार का धर्म अपनाया, मठाधीशों का नहीं, वह निरन्तर प्रयोग करता और अपने को तोड़ता, बदलता और संशोधित करता आया है।
उसके लेखन की सबसे बड़ी उपलब्धि जो मैं समझ सका हूँ, यह है कि उसका जीवन-दर्शन प्रभावारोपित नहीं, उसके अपने अनुभवों से बने व्यक्तित्व का सहज प्रोजेक्शन है। जीवन की भाँति लेखन में भी युग की परस्पर-विरोधी स्थितियों में सामंजस्य का एक नया, सही और सम्मानप्रद रास्ता खोजने की चाह उसकी आधारशिला है। इन अँधेरों, उलझावों और यंत्रणाओं में मनुष्य का वर्तमान रूप खोजने और पहचानने तवा उसे सही सन्दर्भो में प्रतिष्ठित कर पाने की तड़प ही उसकी थाती है। इससे इतर वह नितान्त अकेला और असहाय है जिससे हर पल अपने ही संस्कारों, कला-रुचियों और स्वनिर्मित प्रतिमानों से जूझना पड़ता है।
उसकी असाधारण सफलता का रहस्य है खुद अपने से टक्कर लेने की अशेष सामर्थ्य और मनोबल। रात-भर जी-जान से लड़कर वह हर सुबह उठते ही एक नई लड़ाई के लिए प्रस्तुत दीखता है। उसकी यह लड़ाई दो स्तरों पर है-खुद अपने से और अपने समय की विसंगतियों से। इस लड़ाई में वह हर हथियार इस्तेमाल करता है। इसीलिए उसके व्यक्तित्व के बाहरी रूप में विरोधाभास बहुत प्रबल है भीतर या उपचेतन की अपेक्षा उसका चेतन कहीं अधिक क्रूर और दुनियावी है। ऊपरी एक पर्त के नीचे ही वह सघन इनसान है, पर बाहर एक धूर्त पहरेदार भी बैठा हुआ है, लिहाजा उस धूर्त पहरेदार से टकराए बिना उसके इनसान से मुलाकात नहीं होती। वह धूर्त पहरेदार आपको व्यंग्यों, चुटकियों और चुस्त वाक्यों से छेद डालता है, तेज से तेज व्यक्तियों को निस्तेज कर देता है। मेरी ख़ुशक़िस्मती यह है कि मेरी दोनों से दोस्ती है। मैं जानता हूँ कि जब वह आदर्श की ऊँची ऊँची बातें करता है तब हो सकता है कि उसका दिमाग़ घोर यथार्थवादी भूमियों की खोज में भटक रहा हो। और जब वह हाथ पैर पटककर मुझसे कोई सत्य मनवाने की कोशिश करता है तब हो सकता है कि वह अपने ही मन में किसी विरोधी सत्य को मान्यता दे रहा हो।
इसी तरह की स्थिति में वह कुछ घोषणाएँ अपनी सद्यःलिखी गई या लिखी जाने वाली कहानियों के संबंध में भी करता है, चाहे ख़ुद उन्हीं घोषणाओं पर उसे यक़ीन न हो। कुछ समय पहले दिल्ली में उसकी एक कहानी लम्बी चौड़ी भूमिका के साथ सुनने का अवसर मिला- ‘प्यारे, वो कहानी बनी है, वो कहानी बनी है कि सुनकर फ़्लैट हो जाओगे!’ और घोषणाओं के साथ कहानी सुन चुकने पर जब मैंने राय प्रकट की कि यह बहुत मामूली और लचर है, वह तत्काल सारी घोषणाएँ भूलकर पास खिसक आया और बोला- ‘यार, बात तू ठीक कह रहा है1’ और फिर बच्चों की तरह निश्छ्लता से कहानी की ख़ामियों को ख़ुद भी गिनने लगा और खुलकर एक एक प्रतीक और पंक्ति पर अपनी आलोचना सुनने और विचार विमर्श करने लगा।
दरआत अब से नहीं, बहुत पहले से उसकी यह आदत रही है कि मन में चल रहे विचार को पहले ही उद्घोषित कर देता है और तब वह उस विचार के अनुरूप क्रियान्वयन के लिए नैतिक बाध्यता अनुभव करने लगता है मगर इससे वे नुकसान भी उसे उठाने पड़ते हैं जो अपनी गोपनीयता न रखने पर और संयोगवश विचार के कार्यान्वय में त्रुटि आ जाने पर अवश्यंभावी हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में अपनी समस्त सद्भावना और ईमानदारी बावजूद समाज में झूठा बनने की नौबत आ जाती है। उसका आत्मविश्वास उसे छल लेता है, क्योंकि सोची हुई हर बात पूरी ही हो जाए, यह सम्भव नहीं होता। वह जो सोच लेता है, उसे उपलब्ध समझने लगता है।
लिखने और लिख चुकने के तत्काल बाद का समय उसके लिए बहुत नाजुक होता हैं। यों अपनी सद्यः लिखी गई कहानियों के बारे में वह चाहे कितनी घोषणाएँ करता और डींगें हाँकता फिरे, मगर रचना से जब तक उसकी संपृक्ति नहीं टूटती, वह उसके बारे आश्वस्त नहीं हो पाता। हाँ, दूसरों की रचनाओं का वह बहुत अच्छा जज है।
यद्यपि अपने लेखन के सम्बन्ध में वह डींगें भी हॉक देता है, पर उनके पीछे आत्म-प्रवंचना कम और अच्छा तथा नया लिखने की महत्त्वाकांक्षा अधिक होती है। यह भावना उसके लेखन को जीवित रखे है, अन्यथा उसके व्यक्तित्व का गठन ऐसे तत्वों से हुआ है (जिनमें शील, संकोच, विनय आदि तत्व प्रमुख है) कि उनके कारण उसे बाहरी जीवन में बहत से समझौते करने पड़ते हैं। ज्यादातर समझौते वह दूसरों की भावनाओं को ठेस न पहुँचे, इसलिए करता है और कुछ इसलिए कि समाज में अपना मुँह साफ रख सके। यह अजीब विरोधाभास है कि विचारों में निषेध और खासतौर से नैतिक-सामाजिक निषेधों के विरुद्ध होते हए भी आचरण और व्यवहार के स्तर पर वह बहुत हद तक उनकी मर्यादा का पालन करता है।
और हाँ, इन विरोधाभासों में कमलेश्वर स्वयं रहता ही नहीं, उन्हीं से वह सीखता भी है और लिखता जाता है। लेखन में असाधारण होते हुए भी वह बिलकुल साधारण-सा इनसान है-औसत से कुछ छोटा कद और साँवला रंग। नाक-नक्श तीखे और आँखों में ऐसा आकर्षण कि जिधर से देखें, बँधते चले जाइए। रेडियो और टेलीविजन में नौकरी कर चुकने के कारण उसकी ज़बान, जो पहले भी मधुर थी, अब सधकर और मीठी हो गई है। सुरुचि उसकी विशेषता है। पैसा उसके पास टिकता नहीं है। पास के पचास किसी देकर अपनी जरूरत के लिए पच्चीस रुपए के इन्तज़ाम के सिलसिले में वह परेशान-हाल घूमता हुआ मिल सकता है। वह दोस्तों की महफिलों में मिल सकता है, किसी बीमार के सिरहाने बैठा हुआ भी मिल सकता है, किसी सस्ती-सी दुकान में चाय पीता हुआ या बड़े होटल में नफासत से खाता हुआ भी मिल सकता है। वह दूसरों के दुख में दुखी, उसकी परेशानियों सुलझाता हुआ और अपने दुखों में हंसता हुआ भी मिल सकता है। घर पर मिलना चाहें तो रात दो बजे के पहले नहीं मिल सकता। नई कहानियाँ’ के दफ्तर में मिलना चाहनेवालों को तो दिन के तीन बजे के बाद भी नहीं मिल सकता था, पर मिल गया तो सच्ची आत्मीयता से मिलता था। पर खतरा सिर्फ यह है कि वह आपके भीतर छिपी हास्यप्रद विसंगतियों को फौरन ताड़ लेगा और फिर कभी मिलने पर आपके सामने ही मज़ा ले-लेकर सुनाएगा-“यार, मेरे उन दोनों आशिकों (शानी और धनंजय वर्मा) ने बहुत बोर दिया। दोनों जव मध्य प्रदेश से आए तो वहाँ की साहित्यिक स्थितियों से दुखी और चिन्तित थे….” और वह मुझे सुनाता जाएगा-“तो साहब, वे दोनों रात को तीन बजे लेटे…मुझे नींद आ रही थी, पर उनकी चिन्ता बहुत गहरी थी। धनंजय बोले-‘कमलेश्वरजी, मध्य प्रदेश में ऐसा क्या किया जाए कि साहित्यिकों का स्वास्थ्य कुछ सुधर जाए?’ उनकी बात का जवाब दे रहा था तो देखा, शानी साहब खर्राटे ले रहे हैं। जवाब खत्म हुआ तो शानी साहब नींद में ही बर्राए- ‘कमलेश्वर भाई, इधर कहानी में जो अमूर्तता आ रही है, उसके बारे में आपका क्या खयाल है?’ और लेटे-लेटे उन्होंने चश्मा चढ़ा लिया तो धनंजय करवट बदलकर सो गए। शानी की बात का जवाब समाप्त हुआ तो धनंजय हड़बड़ाकर जागे-‘कमलेश्वर जी, हिन्दी कहानी की आलोचना-पद्धति में आमूल-चूल परिवर्तन के सम्बन्ध में आप क्या सोचते हैं? और धनंजय की बात चलते-चलते शानी ने पन्द्रह मिनट की नींद ली। अपना जवाब पाकर धनंजय ने उबासी लेकर पलकें मुँदी तो शानी साहब फिर उठकर बैठ गए-‘मध्य प्रदेश में कहानी की..’, तो साहब, यह सिलसिला लगातार चलता रहा…और बाद में…।”
और कमलेश्वर यह सब सुनाता जाएगा, सुनाता जाएगा। अगर आप बुरा मान गए नो वही पहला आदमी होगा जो इसे भाँप लेगा और अवसर मिलते ही, झिझकते हुए, आपका हाथ अपने हाथ में लेकर इस प्यार से दबाएगा कि उसकी हथेलियों की ऊष्मा में आप असल कमलेश्वर को खोज निकालने में भूल नहीं करेंगे। अगर आपने भूल की तो बदकिस्मती आपकी, क्योंकि वह सचमुच बहुत खुशदिल, खुशमिजाज और सुरुचिपूर्ण व्यक्ति है। जिन्हें वह मौका नहीं मिलता, वे उसके साहित्य को पढ़कर भी वही आत्मीयता, गहराई और ईमानदारी महसूस कर सकते हैं।
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