रचना यादव हिन्दी के सर्वाधिक चर्चित और विवादास्पद लेखक राजेन्द्र यादव और मशहूर कथालेखिका मन्नू भंडारी की बेटी हैं। रचना ने एडवर्टाइजिंग में मास कम्यूनिकेशन से पोस्ट ग्रेजुएशन किया है। फिर एडवर्टाइजिंग एजेंसी में नौ साल तक नौकरी की। इन्होंने अपनी डिजाइनिंग की हॉबी को पूरा किया। वह कथक डांसर हैं। रचना की दिलचस्पी साहित्य से अलग फिजिकल एक्टिविटीज में ज्यादा है। वे कहती हैं, ‘पापा की किताबें तो मैंने बहुत देर से यानी अभी कुछ दिनों पहले पढ़ी। मेरा उनसे डे टू डे डायलॉग रहा ही नहीं। इतना स्ट्रॉन्ग डे–टू–डे कम्यूनिकेशन नहीं था जिससे कि इमोशन का कोई एक्सप्रेशन हो पाता।‘
वरिष्ठ कथाकार और हंस के संपादक राजेन्द्र यादव। ज़बरदस्त ठहाके, हर नए व्यक्ति से नए उत्साह से मिलना, युवक–युवतियों में छिपे साहित्य के बीज को ढूंढना और अपने काले चश्मे से सामने बैठे व्यक्ति को उसके आर–पार देख लेने की कोशिश करना। ‘हंस’ के दफ्तर में कभी लाल, कभी पीले तो कभी हरे यानी युवा रंगों में रंगे बुश्शर्ट में शौक़ीन मिज़ाज यादव को हर वक़्त नौजवानों वाले उत्साह में देखा जा सकता है।
वे एकसाथ दो व्यक्तित्वों को जीते हैं। लोगों को नजर आने वाला उनका रूप है — जिंदादिल, उन्मुक्त ठहाके, हमेशा लोगों की मदद को तत्पर, रंग–बिरंगे कपड़े के साथ जोश में भरे हुए मस्त राजेन्द्र यादव। गोष्ठियों में जब वे गंभीर साहित्यिक बातें करते हैं तो उनका तीसरा ही रूप उभर कर सामने आता है। तब वे अपने वजनी तर्कों से अपने व्यक्तित्व के हाथी रूप का परिचय देते लगते हैं।
जबकि उनका एक रूप कुछ ऐसा भी है जिस पर उन्होंने अपना काला चश्मा चढ़ा रखा है। जिससे वे स्वयं तो सामने वाले को देख सकते हैं पर सामने वाले को सिर्फ अंधेरा ही दिखता है। यह अंधेरा तब और रहस्यमय हो जाता है जब उनके दाहिने हाथ की बीच की उँगलियों में फंसे पाइप उनके होंठ में जा लगते हैं। और गोल–गोल धुएँ के छल्ले अँधेरे से मिलकर रहस्यों को और गहरा करते हैं। उनके भीतर बैठे व्यक्ति को स्पष्ट नहीं होने देते। उसी धुंध में बड़ी आसानी से वे अपने अकेलेपन, अपनी तकलीफ़ को ढक लेते हैं। उनके भीतर क्या चलता रहता है, क्या चाहते हैं वे… क्या उनकी बेटी समझ पाती है? कैसे देखती है एक बेटी अपने इमोशनल पिता को…
अप्रैल 2003 में संगीता ने रचना से बातचीत की थी जो पहली साहित्यिक इंटरनेट साप्ताहिक लिटरेट वर्ल्ड में प्रकाशित हुई थी।

=================================
रचना कहती है – पापा एकदम फ़ोकस्ड हैं अपने राइटिंग को लेकर, बाकी सब उसके बाद आते हैं। जब मैं उनके बारे में सोचती हूँ तो मेरे दिमाग में पहला ख्याल आता है राइटर। फिर याद आता है कि अच्छा वो मेरे पापा भी हैं। इसका मतलब ये नहीं है कि मैं भूल जाती हूँ। पर इमीडिएटली जो एक छवि उभरती है, वो है राजेन्द्र यादव – राइटर। राइटर, जो मेरे पापा हैं, वो बहुत–फ़ोकस्ड रहे हैं अपने राइटिंग को लेकर। वे कभी कनवेंशनल फादर नहीं रहे। कनवेंशनल ब्रदर नहीं रहे। वे अपनी ही दुनिया में रहते थे जबकि मम्मी ही उनके भाई बहनों के साथ ज्यादा मतलब रखती थीं। इसका मतलब ये नहीं कि उनके अंदर फीलिंग नहीं थी उनलोगों के प्रति या मेरे लिये। पर उस फीलिंग को एक्सप्रेस उन्होंने कभी किया ही नहीं। क्योंकि उनका सारा एक्सप्रेशन राइटिंग में था। तो इस तरह वे इमोशनल लेवल पर बहुत कम्यूनिकेटिव नहीं रहे हैं हमलोगों के साथ। पापा लेखक पहले हैं, परिवार उनके लिए बाद में आता है। मम्मी के लिए परिवार पहले है, लेखन बाद में।
उनका मेरे साथ कुछ इस तरह का संबंध था। बचपन में वे खेलते बहुत थे मेरे साथ। जब मैं छोटी थी। मुझे हवा में उछालना, ताश खेलना और भी बहुत सारे खेल। एक मस्ती के लेवल पर तो उनसे बहुत जमता था। लेकिन अगर मुझे कोई बहुत इमोनशल बात करनी है तो ऐसा डायलॉग नहीं था हमारे बीच। और जब मैं स्कूल कॉलेज जाने लगी। बाहर निकलना होने लगा तब मेरा पापा के साथ वो खेलना भी खत्म हो गया। एक पन्द्रह साल की लड़की के साथ मस्ती तो नहीं करते हैं न। उस समय तक सोचने और रहने का तरीका अलग हो जाता है।
तो उस वक़्त तक काफ़ी गैप आ गया। उनसे बातचीत फंक्शनल लेबल पर रह गया और मम्मी के थ्रू रह गया। पर मुझे याद है जब स्कूल में मैं हेडगर्ल बनी थी तो स्पीच तैयार करना, डिबेट की तैयारी करना …ऐसी चीज़ें मैं उनके साथ बैठकर डिस्कस किया करती थी।
हमारे घर में सिर्फ किताबें ही किताबें होती थी। सारे दिन लोग भी ऐसे ही आते थे। हर समय पढ़ने–लिखने जैसा ही माहौल था। तो मुझे पढ़ने से ऐसा एंटी-रियेक्शन हुआ कि मैं बहुत पढ़ती नहीं थी। मैं लिखती नहीं हूँ। मेरा क्रिऐटिव आऊटलेट पूरी तरह अलग है।
मैं फिजिकल एक्टिविटीज में ज्यादा रूचि लेने लगी। स्पोर्ट्स में बहुत रुचि थी। अब डांस करती हूँ। इन्टीटियर्स डिंजाइजिंग और पापा की किताबें तो मैंने बहुत देर से यानी अभी कुछ दिनों पहले पढ़ी। मम्मी की तो पहले भी पढ़ी हूँ। तो पढ़ने–लिखने वाली बातें पापा से डिस्कस करने का सवाल ही नहीं था। पापा मम्मी की किताब पढ़कर उस पर डिस्कस कर रहे हैं, एनालाइज कर रहे है, ऐसा कभी था ही नहीं। अब तो फिर भी उनसे मिलती हूँ तो पॉलिटिक्स पर बातें होती हैं।
स्कूल और कॉलेज में मेरी पूरी दुनिया ही दूसरी ही थी। उसके बाद एडवर्टाइजिंग में चली गई। वो तो कम्प्लीटली अलग है। तो इस तरह मेरा उनसे डे–टू–डे डायलॉग रहा ही नहीं। इतना स्ट्रॉन्ग डे–टू–डे कम्यूनिकेशन नहीं था जिससे कि इमोशन का कोई एक्सप्रेशन हो पाता।
अब चूंकि हमलोग दूर–दूर रहते हैं तो एक दूसरे की परवाह ज्यादा होती है। अब कोई महत्वपूर्ण डिसीजन लेना होता है पापा को, तो वे बात करते हैं। हमारे बीच की इमोशनल बाउंडिग को वो अब रियलाइज करते हैं। जो उस समय हमने रियलाइज नहीं किया उसे अब रियलाइज कर रही हूँ कि कितना जुड़ाव है पापा को मुझसे और मुझे पापा से।
क्योंकि शुरू में वो बहुत एक्सप्रेस नहीं कर पाते थे। तब उनको अपनी किताबें, गैदरिंग… वो सब ज्यादा लगा रहता था। इसका मतलब ये नहीं था कि हमलोगों के बीच बातचीत नहीं चल रही है। नार्मल बातचीत चलती थी, घर में जैसे रहते हैं पर मैं अपने दिल की बात उनसे कह रही हूँ, इमोशनल बात कर रही हूँ, उस तरह का डायलॉग नहीं था पापा के साथ जैसा मम्मी के साथ था। मम्मी के साथ तो मैं सारे दिन उनका सिर खाती रहती थी।
क्योंकि मेरे और भाई–बहन नहीं थे तो मेरे दोस्त बहुत जरूरी थे मेरे लिए। जैसे जिनके भाई–बहन होते हैं वे तो घर में ही बिजी रह जाते हैं। मेरे स्कूल वाले दोस्त ही आज तक दोस्त बने हुए हैं। तो वो मेरी अलग ही दुनिया थी। जिसमें मैं इतना रम गई थी कि…
पापा को गुस्सा बहुत कम आता है। आता भी है तो पता ही नहीं चलने देते थे। एकदम कंट्रोल्ड। उनका दिल बहुत बड़ा है पैसे के मामले में। मैं लोगों के घर जाती थी तो उनके पापा बैंक की फाइलें, शेयर्स…करते रहते थे। पर ये सब करते मैंने अपने पापा को कभी नहीं पाया। फाइनेंसली इतनी मजबूत हालत थी भी नहीं ज्यादातर फाइनेंसली हालात टाइट ही होते थे पर उनका दिमाग कभी पैसे पर अटकते नहीं देखा। और जो थोड़ा बहुत भी पैसा होता था तो उसे खुले दिल से खर्च करते हैं। कंजूस बिल्कुल भी नहीं हैं।
हाँ, मगर उनसे ये नहीं होगा कि मेरी एक बहन है दिल्ली में, तो फ़ोन करके उनसे पूछ लूँ। ये वो नहीं कर सकते। उनकी दो बहने यहाँ रहती हैं। तो उनसे किसी त्योहार पर ही मिल आए। फ़ोन ही कर लिया। ऐसा नहीं कर सकते हैं वे। पर दोस्तों से बहुत बनाकर रखेंगे। क्योंकि दोस्तों से बनाकर रहना किसी ड्यूटी के तहत नहीं आता है न।
कभी उनमें ये भाव आते नहीं देखा कि मैं साहब हूँ। चाहे वो चपरासी हो या कोई और सब बराबर। वैसे ही उनके साथ हँसना और बातें करेंगे। हमारे घर में जो जमादार आता था उससे लेकर, माली, दूधवाला, बिजली वाला, फ़ोन वाला, सब साहब के भक्त, दोस्त होते थे। वे सब बहुत खुश रहते थे उनसे। तो इस तरह उनमें बड़ा–छोटा का भाव नहीं रहता था।
जैसे कि रहने के लिए नख़रे होते हैं न, वो नहीं है उनमें। कि मुझे ऐसा चाहिए, वैसा चाहिए। अब शायद ऑब्भियसली उम्र के साथ एडजेस्ट भी हो जाता है आदमी। कहीं भी सुला दो। यहीं बैठे–बैठे सो जाएँगे। कुछ भी खा लेंगे। तो ये सब बहुत स्ट्रॉन्ग प्वाइंट है उनका।
फिर बहुत फ़ोकस्ड, कमिटेड रहते हैं अपने को लेकर। इतने फ़ोकस्ड कि फिर वे किसी को उसमें स्पेस भी नहीं देते हैं। कई बार वे ऐसा करते हैं कि क्यूँकि मैं इसमें बिलीव करता हूँ तो यह ठीक है। कि इसमें किसी और का भी प्वाइंट ऑफ व्यू हो सकता है। उसको भी कंसीडर किया जा सकता है। वो उनके साथ नहीं हो सकता है।
वे कई बार इतने स्टबर्न फ़िक्स्ड हो जाते हैं अपने आइडियाज को लेकर कि वे ऑब्जेक्टिविटी खो देते हैं। अब वे सुनेंगे तो फिर चिढ़ेंगे। इतने ज्यादा वन साइडेड हो जाते हैं कि फिर दूसरे का ना तो प्वाइंट ऑफ व्यू देखेंगे, न कुछ। ये बहुत ट्रिकी है कि वो कम्यूनिकेटिव नहीं है। दरअसल ऊपर से वे सबसे बोलते रहते हैं। पर अन्दर की बात क्या है वो किसी को पता तक नहीं चलने देते हैं। बहुत ही मुश्किल से कभी किसी को अपनी बात बताते होंगे। पता नहीं किसको बताते होंगे?
अपनी तकलीफ़ कभी किसी को नहीं बताएंगे। अब किसी दोस्त–वोस्त को बताते हो तो मालूम नहीं। जैसे मम्मी फ़ोन कर देंगी कि टिंकू आज मेरा पेट बहुत खराब हो रहा है, वो हो रहा है। पापा कभी नहीं बताते हैं। उनसे पूछ भी लो। कैसे हैं? जबकि उनके घुटने में दर्द रहता है। ‘…बिल्कुल फ़िट हैं।’ मैं पूछती हूँ कि आपने चेकअप करा लिया। ‘अरे करा लेंगे। फिट, एकदम फिट।’ कभी नहीं बताऐंगे कि कुछ हो रहा है। अगर कभी बता दिया कि थोड़ी तकलीफ़ है। मतलब वो सचमुच बहुत–बहुत पेन में हैं। तब वे थोड़ा सा बोलेंगे ‘अरे जरा सा घुटने में दर्द था।’ जब वो ऐसा बोल देते हैं तो मैं समझ जाती हूँ कि वे बहुत तकलीफ़ में हैं। कभी भी अपने तकलीफ़ से वे किसी पर बर्डन नहीं बनते हैं।
एक तरह से वो ऊपर से जो दिखते हैं वो नहीं हैं। भीतर से वे कुछ और ही हैं। ऊपर से तो वे एकदम खुलकर बात करेंगे कि तुम आओ। किसी का भी दुख है तो उसे सॉल्व करेंगे। इतने सेंसिटिव हैं। दरअसल अंदर से वो इतने सेल्फ़–सेंटर्ड हैं कि वो सेंसेटिव तब–तक ही रहते हैं जब तक कि कोई उनकी लाइफ़ को इफ़ेक्ट नहीं कर रहा हो। किसी का दुख है तो वो दुख देखेंगे। बोलेंगे हाँ–हाँ बहुत दुखी है, मुझे कुछ करना चाहिए। पर कुछ करना चाहिए मतलब क्या? वो फ़ोन उठाके चार फ़ोन करके हेल्प कर देंगे। पैसे होंगे तो दे देंगे। आप उनको बोलिए कि इसको मदद करने के लिए तुमको इसी वक़्त वहाँ जाना होगा। मान लीजिए कि बरेली जाना होगा। वहाँ पर लम्बी लाइन है वहाँ बैठे रहो। वो नहीं करेंगे। हो सकता है कि वो कर भी दें पर वो उनकी लाइफ़, उनकी राइटिंग, उनकी राइटिंग का जो अपना टाइम है अगर उन्हें ऐसा लग जाए कि उन्हें अपनी राइटिंग छोड़नी पड़ेगी किसी की मदद करने के लिए तो वो नहीं करेंगे।
उनका अपना एक लाइफ़ स्टाइल हो गया है। अपना एक टाइम हो गया है। लिखने–पढ़ने का काम, वो वैसा का वैसा ही चलता रहना चाहिए। कहने का मतलब है कि सेक्रीफ़ाइस थोड़ा सा मुश्किल होता है उनके लिए। पैसे जितने बोलो। नहीं भी होंगे तो माँग के वे देंगे।
अब तो मुझे उनका पता नहीं। पहले जब मैं वहाँ रहती थी। जैसे कि उनके फ्रेंड के साथ कोई गोष्ठी हो, कोई डिसकशन है या कहीं जाने का प्रोग्राम है, किसी प्रोग्राम में जाना है। जहाँ सब राइटर वगैरह आ रहे हैं और अगर घर में ऐसी कोई प्रॉबलम आ गई जिसके कारण नहीं जा पा रहे हैं तो बोलेंगे मन्नू, तुम सँभालो। वे चले जाएँगे। उनके टाइम और उनकी लाइफ़ को किसी भी तरह प्रभावित नहीं होना चाहिए। तब तक वो सबकी मदद करने को तैयार रहेंगे। कहने का मतलब उनकी रूटीन, उनकी टाइमिंग, उनका स्पेस – मैंटल, फिजीकल। उनके स्पेस को छेड़िए मत आप। मैं समझ नहीं पाती हूँ कि क्या साइकलोजी है उनकी कि बाहर के लोगों की मदद करेंगे वे, घर के लोगों कि नहीं। पर अब तो ऐसे नहीं हैं वे। अब तो काफ़ी बदल गए हैं वे। ये नहीं कि वो कॉशसली सब सोच कर करते हैं। पर घर के लोग तो घर के लोग ही हैं न। जैसे हम उनके लिए घर के हैं वो हमारे लिए भी घर के हैं। कोई एक–दूसरे से ऑब्लाइज, कृतज्ञ तो नहीं महसूस करता है। क्योंकि ये तो आपकी ड्यूटी है। आप मेरे पिता हैं, ये तो आपको करना ही है।
पहले घर के लोगों के लिए, चाहे उनकी बहने हों, हमलोग हों, वे नहीं करते थे। जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते थे। पर अब वो करते हैं। मेरे चाचा आते हैं। एक चाचा के आंख में बहुत प्रॉब्लम है। बहुत तकलीफ़ हैं उन्हें। तो अब पापा चाहते हैं कि उन्हें डाक्टर के पास ले जाऊँ। उन्हें दिखाऊँ। अब वे बहुत करना चाहते हैं। पर अब सब लोग इतने तितर–बितर हो गए हैं। पहले तो हम सब साथ ही रहते थे। छोटी बुआ, छोटे चाचा, मम्मी, मैं, सब लोग साथ रहते थे। घर में तो वे कभी पूछते भी नहीं थे कि तुम ठीक तो हो।
हो सकता है जब वे नहीं कर पाते थे परिवार के लिए तब उनका अपना भी तो स्ट्रगल चल रहा था। और जब मैंटल स्ट्रगल चलती रहती है तो और चीज़ों के लिए स्पेस बहुत कम रह जाती है।
अब वो बहुत सेटेल्ड हो गए हैं। बहुत कूल हो गए हैं। उतना हबड़–तबड़ कि मैं ये भी कर लूँ, वो भी कर लूँ, ऐसे नहीं करते हैं। अब उनमें शांति आ गई है। अब उन्हें शायद ऐसा लगता है जो नहीं किया परिवार के लिए, उसे करें।
शुरू से मम्मी-पापा दोनों ने ही मुझे इंडिपेंडेंट होने के लिए बहुत इनकरेज किया। जैसा कि नार्मली होता है कि बच्चा अकेला होने पर बहुत प्रोटेक्टिव हो जाता है। मैं बहुत इंडिपेंडेंट हूँ जबकि मैं बहुत कम उम्र से अकेली रह रही हूँ। इंडिपेंडेंट थी कि बस में घूमो शुरू से ही। आगरा घर है पापा का। आगरा में चाचा की शादी थी और मेरी अंतिम परीक्षा थी। और उनलोगों को शादी की वजह से एक दिन पहले निकलना था। तो उन्होंने कहा कि तुम परीक्षा देकर आई। आईएसबीटी चली जाना और वहाँ से बस पकड़कर आ जाना। तो इस तरह से शुरू से मुझे बहुत इंडिपेंडेंस दी दोनों ने, जो मैं सोचती हूँ कि बहुत ही अच्छी बात थी। इसलिए मैं सब कुछ अपने आप कर लेती हूँ। तो मेरे व्यक्तित्व में दोनों का योगदान है। मम्मी का तो एकदम डायरेक्टली और पापा का मम्मी के थ्रू।
गर्मी की छुट्टियाँ जब होती थी मुझे कलकत्ता भेज दिया जाता था। मेरी मौसी के पास, दो महीने के लिए। जब छोटी थी तो मम्मी जाती थीं। जब थोड़ी बड़ी हो गई, तो बोलती थीं, तुम चली जाओ। राजधानी एक्सप्रेस तब चली थी कि सीधा हावड़ा रूकेगी, बीच में कहीं नहीं, सुपरफ़ास्ट ट्रेन, जिसके सारे दरवाजे बन्द रहते हैं। तो ऐसे ही मम्मी पता कर लेती थीं, कि कोई जा रहा है, यहाँ मुझे ट्रेन में बिठा दिया और कलकत्ता स्टेशन पर मुझे उतार लिया जाता था।
मम्मी बताती हैं कि मम्मी-पापा कलकत्ते से आए थे न? कलकत्ते में रहते थे ये लोग। वहाँ से दिल्ली शिफ्ट हो गए। तब मैं शायद तीन या सवा तीन साल की थी। यहाँ मेरा किसी स्कूल में एडमिशन नहीं हुआ था। एडमिशन चार या साढ़े चार साल में होता था। और मम्मी मिरांडा हाऊस में लेक्चरार हो गई थीं। पापा, वो तो लिखने में मगन…तो मम्मी की बड़ी बहन, जिनसे मैं बहुत क्लोज़ थी, कलकत्ते में पैदा होकर मैं बहुत ज्यादा उनके घर में रहती थी।
उनको मैं मम्मी बुलाती हूँ। तो मम्मी ने सोचा वहीं कलकत्ते भेज देती हूँ इसे जब तक इसका स्कूल में एडमिशन नहीं हो जाता है। तब तक मैं सेटल-वेटल हो जाऊँ प्रोपरली। मैं इसको देखूँ, अपना कॉलेज देखूँ, सेटल करूँ… तो प्रॉब्लम हो रही थी उनको। इस तरह मुझे वापस कलकत्ते भेज दिया। उस समय तो पापा ने कहा हाँ, इसको भेज दो। तुम तो कॉलेज चली जाओगी। पापा तो घर में ही लिखते रहते थे। उन्होंने कहा कि मैं लिखने में व्यस्त रहता हूँ, मैं इसे नहीं देख सकता, मेरा लिखने का सारा ध्यान बँट जाता है। अभी इसको भेज दो। जिस दिन मैं गई, उस दिन सबसे ज्यादा पापा रोए। मम्मी बताती हैं कि वे इतना बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोए। पर पहले खुद ही कहते रहे कि नहीं-नहीं मैं इसको नहीं रख सकता। तो उनकी भावनाओं का एक्सप्रेशन मुझसे डायरेक्टली कभी हुआ ही नहीं। मुझे तो कभी पता ही नहीं चला कि मुझमें उनकी दिलचस्पी भी है।
अब मैं जब पीछे देखती हूँ…मैं कई बार मम्मी से पूछती हूँ कि …मैं स्कूल में हेडगर्ल बनी थी… तुम्हें क्या लगता है, पापा को पता भी था कि मैं हेडगर्ल हो गई हूँ। कभी उन्होंने एक्सप्रेस किया हो, मुझे याद भी नहीं है। मुझे तो लगता था उनको पता तक नहीं है, मैं कौन सी क्लास में हूँ। क्या करती हूँ। हाँ, पर मम्मी के खिलाफ़ मैं और पापा मिलकर छोटी-छोटी साजिश करके ख़ूब मज़ा लेते थे। इसमें मेरा पापा से ख़ूब डायलॉग था। मम्मी लगी रहती थीं कि घर साफ़ रखना है। खाना ठीक टाइम पर खाना है। कपड़े जगह पर पर रखो, वगैरह। तब हमलोग हार्मलेस चीज़ें करके मम्मी को परेशान करते थे। मुझे कुत्तों का बड़ा शौक था और मम्मी को एलर्जी थी। मेरे एक बर्थ डे पर पापा कुत्ता ले आए। कहने लगे थोड़े दिनों में मम्मी ठीक हो जाएगी। ऐसे ही छोटी-छोटी बदमाशी करके हम मज़े करते थे।
पापा को ये दुख है कि वे लेखक नहीं बना सके मुझे या पढ़ने का इतना शौक पैदा करते, जितना उनको है। तो वो नहीं कर सके। उनको बहुत मन था कि मैं पढूँ। मम्मी कहती हैं कि तेरा नेचर पापा से बहुत मिलता है। मैं भी पापा की तरह ही अपने अन्दर की कोई बात उन्हें नहीं बताती हूँ, और ये सच भी है। जैसे कि मम्मी अपनी सारी बात बता जाती हैं, मैं उतनी आसानी से अपनी बात शेयर नहीं करती सबसे। अब पापा और मैं दूर हो गए हैं तो दोनों चाहते हैं कि और शेयरिंग हों और पास रहें। मेरे ख्याल से अगर मेरा और पापा का नेचर सेम है, तो पास रहने पर और शेयरिंग होती और क्लोज़नेस बढ़ता। साथ रहते हुए इस बात पर ज्यादा कभी ध्यान ही नहीं दिया।
मेरे स्कूल के पहले दिन पापा मुझे छोड़ने गए थे। तब सिर्फ चार साल की थी मैं। ये मुझे याद है। ये बात मेरे मन में एकदम इमेज सी बनी हुई है कि वो मुझे छोड़ कर जा रहे हैं। वैसे ऐसा काम वो करते नहीं थे कि बच्चे को स्कूल छोड़ने जा रहे हैं। इसलिए भी शायद यह बात मेरे मन में गहरे बैठी हुई है।
पापा अपने काम में इतना मशगूल रहते थे कि कुछ करना है, रात को कहीं जाना है तो मुझे परमिशन मम्मी के थ्रू मिलता था। कभी डायरेक्टली मुझे याद नहीं है कि मैंने पापा से पूछा हो कि हम जा सकते हैं क्या? मम्मी पूछेंगी, बताएँगे वो।
जब एकाध बार मैंने उनसे कुछ पूछा तो मुझे वे कुछ हाँ या ना — कुछ जवाब नहीं दिये थे। तो मुझे लगता था कि शायद उनका कोई ओपिनियन ही नहीं है। तब वो अपनी दुनिया में ही ज्यादा व्यस्त रहते थे। अक्षर प्रकाशन के एकदम शुरू वाले दिनों में बहुत प्रेशर थे इनपर। पैसे थे नहीं। कर्जा था। पर तब मैं अपने हिसाब से सोचती थी कि मैं कहीं जाऊँ या नहीं जाऊँ, इनसे क्या पूछना? हो सकता है कि मेरे दिमाग में ये भी रहता हो कि इनको तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मम्मी को फ़र्क़ पड़ता है तो मैं मम्मी से पूछूँगी। तब मम्मी बताती थी कि पापा गुस्सा होंगे। तब मुझे लगता था कि मम्मी पापा का नाम यूज कर रही हैं। वो खुद मना करना चाहती हैं कि मैं नहीं जाऊँ। पर पापा का नाम बीच में ला रही हैं। बाद में मुझे महसूस हुआ कि नहीं ये राय पापा की भी है।
हमलोग सब सुबह की चाय डायनिंग टेबल पर साथ बैठकर लेते थे। फिर तैयार होकर स्कूल जाते थे। तो वो आधा-पौना घंटा और रात के खाने पर भी सब साथ बैठते थे तो उसी टाइम पर बात होती थी। अगर मम्मी चाहती थी कि मुझे पता चले कि पापा कि क्या राय है तो डायनिंग टेबल पर ही बात शुरू कर देती थी कि वो टिंकू बोल रही है — ये वहाँ जाना चाहती है। तो पापा कहते थे ‘हूँ, हूँ’ फिर वो थोड़ा सा कुछ बोल देंगे कि नहीं पर ऐसे कैसे जाओगे? कभी जोर से चिल्लाए नहीं, कभी डाँटा नहीं। पर जब मैं बड़ी होने लगी, तो लगने लगा कि ऐसा नहीं है कि इनकी ओपिनियन नहीं है, इनकी भी ओपिनियन है।
जब मेरी शादी की बात चलने लगी। दिनेश आया था। मम्मी तो थी नहीं, पापा थे। दिनेश के लिए मम्मी ने कहा कि राजेंद्र से मिलाओ इसे। जब मेरी शादी की बात होने लगी तो मम्मी को लगने लगा कि पापा को भी कुछ रेस्पांस्बिलिटी लेनी चाहिए मेरी लाइफ़ में। मम्मी ने बोल दिया कि इसको पापा से मिलाना।
दिनेश आया घर पर। दिनेश का बैकग्राउण्ड ये था कि वो एडवर्टाइजिंग में था और फ़ोटोग्राफ़ी पढ़ने के लिए अमेरिका चला गया था। वहाँ पर वो कुछ वेटर आदि का काम करके पैसे जमा कर रहा था। पर स्कूल शुरू होना था जुलाई में फ़ोटोग्राफ़ी का, पर इसी बीच उसे पता चला कि उसके पिता की एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई। तो वह स्कूल शुरू ही नहीं कर पाया। वह वापस आ गया। परिवार के लिए उसको लगा कि फिर जॉब करना चाहिए। तो उसने फिर से जॉब ले लिया एडवर्टाइजिंग कंपनी में। उसका मन तो नहीं था जॉब करने का, उसका मन बहुत था फ़ोटोग्राफ़ी पूरा करने का। लेकिन परिस्थितिवश वापस आते ही उसने जॉब कर लिया। तभी मेरी मुलाकात दिनेश से हुई। उसी कंपनी में उसने जॉब लिया जिसमें मैंने ट्रेनिंग के लिए ज्वाइन किया था। पर ढाई-तीन महीने में दिनेश ने छोड़ दी नौकरी, क्योंकि उसका मन ही नहीं था। उसका मन फ़ोटोग्राफ़ी में ही था। स्कूल की कोई ट्रेनिंग तो थी नहीं उसके पास, अनुभव भी नहीं था, उसके पिता जाने-माने फ़ोटोग्राफ़र थे। वे अमेरिकन दूतावास के पैनल में फ़ोटोग्राफर थे। उसके पास ऐसी फॉर्मल ट्रेनिंग थी, शौकिया कभी-कभी कर लेता था। पर उसका मन बहुत छटपटा रहा था।
जिन दिनों हमने निर्णय लिया कि हम शादी करेंगे और ये मेरे पापा से मिलने आया, पूछने आया। तब वह कुर्ता, जीन्स, कान में बालियाँ पहने था और दाढ़ी बड़ी थी इसकी। घर में पापा बैठे थे, जैसे वे पाइप लेकर बैठे रहते हैं कुर्सी पर। मैंने पहले ही पापा को बोल दिया था कि वो आएगा। वो आया। बैठते ही उसने बोल दिया कि मैं टिंकू से शादी करना चाहता हूँ। तो ‘अच्छा क्या कर रहे हो? क्या सोचा है? नौकरी का क्या हुआ?’
‘वो छोड़ दी’
‘अब क्या सोचा है?’
‘अभी तो सोच रहा हूँ’
‘क्या करोगे?’
‘कुछ नहीं कर रहा। अभी सोच रहा हूँ मैं?’
थोड़ा बहुत बातें करने के बाद पापा अपने कमरे में। बस, तो ये इन्टरव्यू था। पापा ने दिनेश को कुछ नहीं बोला। उनको ये परेशानी नहीं थी कि देखो ये लड़का कुछ नहीं कर रहा है। मेरी बेटी को कैसे सँभालेगा। जॉब नहीं है, पैसे नहीं हैं, इस चीज़ से उनको कोई परेशानी ही नहीं हुई कि वो कुछ नहीं कर रहा है। पूछा कि क्या करोगे? तो बोला कि पता नहीं क्या करूँगा? तो ऐसे हैं पापा।
फिर बाद में मम्मी को बोलते हैं कि वो तो बहुत क्रिएटिव टाइप का लड़का है, क्रिएटिव लोग स्टेबल नहीं होते हैं। उनसे शादी नहीं करनी चाहिए। मम्मी मुँह देख रही थी उनका कि भई आप क्या हो? आप भी तो वही हो। आप क्रिएटिव हो। कहीं उनको शायद अपनी एक इमेज दिखी दिनेश में। जब वो यंग थे, जब वो कुछ नहीं कर रहे थे, जब वो सोच रहे थे कि मैं लिख के कुछ करूँगा, जब वे स्ट्रगल कर रहे थे। तब उन्हें ये थोड़े ही परवाह होती थी कि मेरा किराया कौन देगा? मैं नौकरी कर लूँ। नौकरियों को तो वे ना कर देते थे। दिनेश का भी यही हाल था। अच्छा खासा जॉब छोड़ के ‘कि मैं सोच रहा हूँ कि अब क्या करूँगा।’
कोई आगा न पीछा। कोई बंधन नहीं। अगर मैं किसी पी.ओ.-वी.ओ. को ले आती तो वे कहते ‘ये किसको ले आई। ये कोई आदमी है। ये रोज़ सुबह नौ बजे उठकर ऑफ़िस चला जाएगा और पाँच बजे वापस आ जाएगा। ये क्या आदमी हुआ?’ तो पापा का एकदम से जो रियेक्शन हुआ दिनेश को लेकर उसे याद करके हमलोग अभी भी हँसते हैं। दूसरी तरफ से देखा जाए तो पापा ने ये नहीं बोला कि उससे शादी नहीं करोगी। नहीं तो कह ही नहीं सकते थे। नहीं करने का मतलब अपनी विश दूसरे पर इमपोज करना। वहाँ एक आइडियोलॉजिकल बात आ जाती है। क्रियेटिव लोग थोड़े से डेंजरस होते हैं। दिनेश बोलता है कि कोई और पिता होते और यदि मैं यह बोलता कि मुझे पता नहीं है कि मैं क्या करूँगा, तो वे बोलते यहाँ से तुम जाओ। पापा ही थे जो बोले कि ठीक है देखूँगा कि तुम्हारी क्रियेटिविटी का क्या करें।
मुझे याद है कि पापा शुरू से बोलते थे कि जैसे मैं बड़ी हुई मेरी शादी वे अपने एक बहुत ही क्लोज़ फ्रेंड के बेटे से करना चाहते हैं। वे बचपन में साथ पढ़े हैं आगरा में, फिर वे अमेरिका में सेटल हो गए। उनके तीन-चार लड़के हैं। छोटे लड़के के साथ मेरी बात-वात चल रही थी। वो लड़का आया भी था। मैं उस समय मास कम्यूनिकेशन में थी। पर शुरू से उन्होंने और मम्मी ने भी एक भी लड़का अपनी आँख से नहीं देखा। एक तो पापा को करना नहीं आता ये सब कि किसी के फादर को चिट्ठी लिखें कि आप आओ अपने लड़के को लेकर। उन्होंने लड़की दिखाने की बात पर हमेशा यही कहा कि मैं अपनी लड़की दिखाऊँगा नहीं। लड़की कोई कमोडिटी थोड़े ही है कि मैं लोगों को बुला-बुलाकर दिखाऊँ कि देखो मेरी लड़की। और लड़के वाले बैठे हैं और वे एकदम लड़की को स्टेयर कर रहे हैं। वो इसके भी खिलाफ़ थे कि कन्यादान नहीं करूँगा।
दिनेश के लिए पापा को ये चिंता नहीं थी कि पैसे कहाँ से आएँगे। दिलचस्प बात ये थी कि बिल्कुल अपना ही रूप देख लिया उन्होंने उसमें। कहीं वे जानते थे कि मम्मी को काफ़ी दुखी रखा है उन्होंने। सोचा होगा कि कहीं मेरी बेटी का भी यही हाल न हो जाए, क्रियेटिव आदमी से शादी करके।
मम्मी के थियरीटिकल लेवल और प्रैक्टिकल लेवल में कोई क्लेश नहीं रहा। जो सोचती हैं वे वही लिखती हैं। पापा जो सोचते हैं और जो प्रैक्टिस करते हैं, वे कई बार जो लिखते हैं, उससे अलग होता है। मुझे लगता है कि पापा बहुत कंजरवेटिव हैं। और बहुत इजली वे कंजरवेटिव रह सकते थे। मुझे लगता है कि वहाँ मम्मी का हाथ है। अगर पापा को मम्मी के अलावा किसी कंजरवेटिव औरत का साथ मिलता तो शायद वो मेरे प्रति इतना लिबरल नहीं हो पाते। वो कंजरवेटिव ही रह जाते। मेरी ये उनके प्रति फीलिंग है कि जितनी भी लिबरल बातें हुई घर में कि मुझे लड़कों से मिलना चाहिए, को–एजुकेशन में जाना चाहिए। ये सब मम्मी की ही सोच थी। पापा अगर ना करते भी होंगे तो मुझे लगता है उनके बीच काफ़ी आर्ग्युमेंट चलते होंगे। पर मम्मी का काफ़ी हाथ रहा है पापा के दिमाग को खोलने में। मुझे लगता है कि पापा इतने लिबरल नहीं थे। मम्मी के लिखने में और सोचने के तरीके में कोई फ़र्क़ नहीं है। पापा के असली सोच में और उनके रहने के तरीके में काफ़ी फ़र्क़ है। पापा व्यावहारिक तौर पर इतने खुले नहीं थे। मम्मी की वजह से बस हाँ-हाँ करते रहे। अगर न करते तो फिर वो आइडियोलॉजिकल क्लेश होता, पर सच्चाई में अगर मम्मी नहीं होती, या अगर मम्मी कंवेंशनल टाइप की होतीं तो पापा लड़ते नहीं मम्मी से। पापा की सोच उतनी खुले दिमाग की नहीं थी। वैचारिक स्तर पर थी, पर व्यक्तिगत स्तर पर नहीं थी।
अपने एक साक्षात्कार में माँ ने कहा था कि राजेन्द्र गाँव और दलित की बातें करते हैं, तो क्या उनकी तरह तकलीफ़ में रह सकते हैं? नहीं रह सकते हैं। लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता है, नहीं, पापा रह सकते हैं। वे झुग्गी, झोपड़ी में भी रह सकते हैं। जहाँ पर ये उनका स्वभाव है कि उन्हें चाहिए भी सब कुछ। उनके महँगे शौक हैं। पर अगर वो चीज़ें नहीं मिले तो ऐसा नहीं कहेंगे कि मेरे पास ये भी नहीं है, वो भी नहीं है। अगर है तो अच्छी बात है। अगर हो सकता है तो हो जाए, अच्छा ही रहेगा पर अगर नहीं है, तो हाय तौबा नहीं है। जबकि मम्मी का नेचर ये है कि आज मैं पैसे बचाती हूँ जिससे कि कल ये हो सके। इस तरह वो पैसे सेव करके चीज़ें इकट्ठा करती थीं।
हर बार किसी भी नए आदमी से बड़े उत्साह से मिलते हैं वे। नया आदमी चाहे कुछ भी हो, उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता है। हमलोग पहले शक्तिनगर में रहते थे। दिल्ली यूनिवर्सिटी के पास। तो साउथ एण्ड में रहने वाली लड़कियाँ एक्जाम के दिनों मेरे घर रुक जाती थीं। बचपन से पापा उनको देखते आ रहे हैं। अगर लड़कियाँ उनसे मिलने आएँगी तो पापा कहेंगे ‘आओ मंजुला आओ। कैसी हो? क्या खाओगी? ये खिलाओ, वो खिलाओ।’ इसी बीच में उसे धप से मार देंगे। ख़ूब बातें करेंगे। लड़कियाँ भी अंकल-अंकल करेंगी। तो जो मेरे लड़के दोस्त थे वो कहते थे कि तेरे पापा लड़कियों से तो बहुत बातें करते हैं हमसे ऐसे कहाँ करते हैं। हो सकता है कि उनकी शुरू से एक बेटी रही है तो लड़कियों से व्यवहार करना उन्हें ज्यादा अच्छे से आता है। लेकिन बेटा नहीं होने के कारण उन्हें लड़कों से कैसे बातें की जाये, ये नहीं आता हो। तो इस बात पर सभी मज़ाक़ उड़ाते थे मेरा।
The post बेटी रचना की निगाह में राजेंद्र यादव appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..