Quantcast
Channel: जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1525

वैधानिक गल्प:बिग थिंग्स कम इन स्माल पैकेजेज

$
0
0

चंदन पाण्डेय का उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’ जब से प्रकाशित हुआ है इसको समकालीन और वरिष्ठ पीढ़ी के लेखकों ने काफ़ी सराहा है, इसके ऊपर लिखा है। शिल्प और कथ्य दोनों की तारीफ़ हुई है। यह टिप्पणी लिखी है जानी-मानी लेखिका वंदना राग ने- जानकी पुल।

============================

ब्रेकफास्ट ऐट टिफ़नीज़  (Breakfast at Tiffany’s) एक बेहद मशहूर फिल्म रही है। जब भी सुन्दरता और रोमांस की बात होती है तो उसका एक डायलॉग जो अंग्रेजी की एक बहुप्रचलित कहावत भी है याद आ जाती है, “बिग थिंग्स कम इन स्माल पैकेजेज”(Big things come in small packages) यानी बड़ी चीज़ें, बड़ी खुशियाँ छोटे कलेवर में सज कर आतीं हैं। उस फिल्म के एक भावुक दृश्य में छोटे से एक डब्बे में रखे हीरे को देख नायिका की हैरत इस कहावत समेत, सदा के लिये दिल में पैबस्त हो गयी है।

सच तो यह है कि मासूमियत बची रहती है तो हैरानगी भी बची रहती है। यही हैरानगी सवालों को जन्म देती है। और सवाल करना हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। कर लें दावे सरकारें इस लॉजिक के विरुद्ध। बिठा दें आईटी सेल्स इसके खिलाफ़ सुबूत इकट्ठे करने को। हो जाएँ लामबंद उठती आवाजों को दबाने के वास्ते- कुछ नहीं होने- जाने वाला। इस नहीं होने-जाने वाली परिस्थिति पर हम देर तक लम्बे दमन के रास्ते के बाद पहुँचते हैं। लेकिन पहुँचते ज़रूर हैं। जब तक भी एक आवाज़ हमारे बीच नेस्तनाबूद होने से बची रह जाती है हम पहुँचने का हौसला संजोये रखते हैं। और क्या इतिहास गवाह नहीं कि यह सब कुछ हो के गुजरा है और सभ्यताएं मरते–मरते जी उठीं हैं नयी दुनिया कायम करने को?

लेकिन यह तो पोस्ट स्क्रिप्ट है।

हमें तो बात पहले अध्याय से शुरू करनी होगी। फिलहाल तो हमें उस यात्रा पर चलना होगा जिसपर चलकर हम पोस्ट स्क्रिप्ट पर पहुंचेंगे। हमें चन्दन पाण्डेय के हालिया प्रकाशित उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’ के छोटे कलेवर के भीतर समायी उस बड़ी यात्रा पर चलना होगा जहाँ पहुँचकर हमारी हैरानगी बेचैन कर देने वाले सवालों में तब्दील हो जाएगी। जहाँ सवाल करने के अनगिन ख़तरे होंगे लेकिन यह तय है कि उनसे मुठभेड़ करते हुए ही हम उस बड़े आकाश पर पहुँच पायेंगे जहाँ जाने की हम अदम्य इच्छा रखते हैं।

“आश्चर्य मुझे इसका भी हो रहा था कि मेरे आत्मविश्वास को क्या हुआ?मेरा लेखक होना क्या हुआ?कहाँ गया शब्दों की मितव्ययिता  पर मेरा यकीन? क्यों डर रहा हूँ? और अगर डर रहा हूँ तब वह डर शब्दों के ज़रिये फ़ैल क्यों रहा है?” उपन्यास का कथा नायक भी संयोग से लेखक है। एक आल्टरईगो की तरह कभी वह लेखक से जिरह करता है, कभी उसे डराता है, कभी उसे बेहद कमज़ोर करता है तो कभी साहस से लबरेज़। मितव्ययिता पर यकीन बना रहना चाहिए।  और यहाँ तो लेखक-नायक को जल्दी भी है। उसे दुनिया का महान लफ्फाज़ होने की विलासिता मय्यसर नहीं। वह बातों  का मायाजाल बुन कर लोगों को नहीं पटा सकता है। उसके पास समय कम है और सवाल इतने ज़्यादा और न चाहते हुए भी वह ज़िम्मेदारी के बोध से दुहरा हुआ जा रहा है।

वह कम में ज्यादा कह देना चाहता है। ज्यादा कर देना चाह रहा है। “…मैं समझ नहीं पा रहा था कि अनुसूया का सामना कैसे करूँ? ग्यारह –बारह वर्षों के बाद हम आमने –सामने होने वाले थे और मैं यह तय नहीं कर पा रहा था कि अतीत के बेताल को अपने कन्धों पर लादकर मिलना है या इन दिनों जिस मुश्किल से वह घिरी है उससे दो –चार होने आये हुए मित्र की तरह मिलना है या अभी –अभी जिस चोट और गुम-चोट से वो प्रताड़ित है उसके लिए किसी अजनबी के बतौर फ़ौरी रहत पहुंचाते हुए मिलना है।” यह लेखक–नायक का शशोपंज है और उसे पुराने प्यार की सुन्दर स्मृतियों के नाते यदि नहीं भी तो मनुष्यता के नाते अनुसूया की सहायता करनी होगी। लेखक का भी यही धर्म है; इस ज़माने में भी जब धर्म के मायने इतने बदल गए हैं तब भी लेखक का यही धर्म है।

लेखक का आल्टर ईगो थोड़ा ढुलमुल हो रहा है, डर रहा है यह कैसा देश रच दिया गया है, जहाँ इन्सान का गायब होना तो कोई मायने नहीं ही रखता है, खासतौर से यदि वह अल्पसंख्यक समुदाय से हो तो उसके गायब होने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता? और यदि कोई मुसलमान गायब हो जाए तो इस  देश के ज़्यादा लोगों को रत्ती भर भी परवाह नहीं होती। और तो और आज कल यह देश उससे जुड़ी स्मृतियों पर भी पोछारा करने का सिस्टम इजाद कर चुका है ऐसे में नोमा नाम का यह नामाकूल सा हिंदी पट्टी का कस्बा जिसकी अपने ज़िले और राज्य में भी औकात नहीं, लोगों को औकात बताने के खेल में कैसे मुब्तला है? अनुसूया जो नोमा में रहती है, जिसकी मदद को आया है लेखक-नायक, उसको औकात बता रहा है उसका शहर!

वैसे देखा जाए तो स्मृतियों पर इस तरह से सफ़ेदी पोत देने पर क्या मन की दीवारें सुत्थर हो जाती हैं? क्या बिना स्मृतियों के जीवन जीना संभव है? नहीं न? फिर यह सब किस किस्म का पाखंड है?

”कितना अच्छा होता मुलाकातें स्मृतिहीन हुआ करतीं।” बार-बार  जो कौंध रहा है….अतीत की मार इतनी भी गहरी नहीं होनी चाहिए । अजनबियत ,बतौर विचार ,महज़ मनुष्यों में हैं या कहीं और भी दिखती होगी।” आखिर अनुसूइया की आँखों में समन्दर जितना पानी किसके लिए उमड़ रहा है? कौन सी ऐसी क्षति हो गयी है? कौन खो गया है उसका इतना प्रिय? यदि किसी किस्म की स्मृतियाँ उसे इस कदर तोड़ रही हैं तो वे कौन सी हैं? लेखक-नायक की स्मृतियाँ तो ये कत्तई नहीं हैं। कायदे से आल्टर ईगो को ईर्ष्या होनी चाहिये –अनुसूइया की आँखों से बहता पानी पलकों पर बारिश के बाद अलगनी पर बूँद-बूँद टपकते पानी की तरह क्यों टपक रहा है? इसका प्रेमी/पार्टनर/पति  गायब हो गया है उसके लिए?

आख़िर कौन गायब हुआ है? सिस्टम अश्लील हंसी हँसता है। सिस्टम जिसमें सभी शामिल हैं -पुलिस महकमे के सिपाही, नेता, सेठ और आम जनता भी। वही भोली- भाली आम जनता; जिसके गुण हमारा भारतीय राजनीतिक समाज गाते नहीं थकता।

रफीक खोया है।

इन्सान नहीं है वह, मुसलमान है।

एक छोटे से गैरमामूली, आबनूसी शहर में एक इन्सान का पता नहीं चल पा रहा है और लोग बेपरवाह हैं। सड़कों पर चाय सुड़क रहे हैं और बतकही में मज़े लूट रहे हैं। नोमा की यह छटा देख आल्टर ईगो दंग है- लेकिन फिर भी अभी इतना साहस नहीं विकसित कर पाया है कि अपने सवाल सार्वजनिक मंचों मसलन-थाने और  दबंग पूँजीपतियों के सभा स्थलों पर से पूछ ले। उसे इस बात की कोफ़्त तो है ही शर्मिंदगी भी भयंकर है,”…एकांत इसलिए कि मैं आईने में झांकते हुए खुद से पूछूं ,उन सिपाहियों के सामने अपना मेरुदंड निकालकर मेरा रख देना मनुष्यता में गिना जायेगा या नहीं?”

लेखक का यकीन फिर इस कायरता के खिलाफ़ इरादा बनने लगता है। नहीं ढूंढना तो होगा ही पहले रफीक को फिर उसके बहाने गायब होते उसके साथियों को। कब तक कायरता के कम्फर्ट ज़ोन में छिपा रहेगा आदमी?

सूत्रों के रूप में रफ़ीक की डायरी के कुछ पन्ने बरामद होते हैं जिसमें एक ऐसी सुन्दर दुनिया का स्वप्न है जहाँ हर बर्बरता के खिलाफ साहस और मनुष्यता की बुलंद आवाज़ें हैं। रफ़ीक इन्हीं की बदौलत दुनिया को सुन्दर बनाना  चाहता है। ऐसी सुन्दर दुनिया जिसमें कविता-कहानी हो, नाटक हो, स्वप्न हो और अस्पृश्यता, नफरत न हो। कॉलेज में अपने छात्रों को यही सब समझाते हुए, पढ़ाते हुए वह खुद क्रूरता के धीमे–धीमे फैलते ज़हर को रोज़ कुछ अधिक झेल रहा है। उसको नज़रंदाज़ करना,उससे बातें छिपाना… सब एक सतत प्रक्रिया की तरह उसके ऐन सामने  घटित हो रहा है। वह अपनी डायरी में इसे दर्ज भी करता है,”दिक्कत है कि अक्सरहाँ का यह अपमान असहनीय होता जा रहा है लेकिन दूसरी दिक्कत यह भी कि कहूँ तो किससे?” अकेले पड़ते जाने का दुःख धीमे–धीमे इन्सान को लीलता है। रफ़ीक भी थोड़ा-थोड़ा घटता जा रहा है। घटता और घुटता, अपने में सिमटता। लेखक-नायक के लिये यह कलेजे पर चोट है।

क्या शब्दों को ठीक-ठीक बरतने वाला अभी भी नहीं  समझ पा रहा है कि रफ़ीक कौन सी शै है? रफ़ीक कहाँ चला गया है? अब आल्टर ईगो नहीं है सामने लेखक है …एक पूरी लेखक बिरादरी की आवाज़ में बोलता हुआ  “इन शब्दों के बीच पड़े-पड़े मैं भी एक शब्द खुद को प्रतीत होने लगा था।वह शब्द गुमशुदा,लापता,गायब खो जाना बिला जाना कुछ भी हो सकता था लेकिन इनमें से कुछ भी नहीं था। गुमशुदा लोगों के लिए इतने विज्ञापन दिख जाते हैं लेकिन आज से पहले यह ख्याल नहीं आया कि मनुष्य पर इन संज्ञाओं को निरुपित करना अमानवीय है….मनुष्य की गरिमा को साबुत रखने के लिए कहना चाहिए कि रफ़ीक घर नहीं लौटा…”

तलाश की जद्दोजहद,निराशा और दुःख लेखक –नायक के मन में एक अत्यंत सुर्रीअल (surreal) सच का निर्माण करती है-“…मैंने खुद को समझाया कि हो सकता है जिंदगियां छवि के सहारे चलती हों।” यह सच सिर्फ हमारे अंतर्जगत का सच नहीं हमारे बाह्म्य जगत का बड़ा सच है। यह इमेजिंग –यह  छवियाँ ही हमें अपने स्टीरियोटाइप्स में बाँध कर रखती हैं और हम उनके अस्त-व्यस्त  होने की कल्पना मात्र से भय खाते रहते हैं। हम अपने लिए नहीं अपनी छवियों के भंग हो जाने से डरते हैं। हम एक नहीं अनेक छवियों में बंधकर अपनी ज़िन्दगी काटते चले जाते हैं। इस छवि को तोड़ना ही तो बड़ा ख़तरा उठाना भी है। यहाँ आल्टर ईगो के सामने भी छवि के भंग हो जाने खतरे हैं। कोई जब भीड़ में से उससे पूछता है,” आप रफीक को ढूँढने आये हैं?”

“यह प्रश्न  ऐसा था जैसे आमंत्रित मेहमान से आने की  वजह पूछना…” तुम्हें क्या लगता है?”

“…लोग कह रहे हैं आप अपनी एक्स–गर्लफ्रेंड से मिलने आयें हैं।”

लेकिन लेखक अपने आल्टर ईगो को इस पत्थरबाज़ी की वजह से टूटने नहीं देता। वह अपने नायक को रीसरेक्ट(resurrect)  करता है, पुनर्गठित करता है, एक जुझारू नौजवान के रूप में। धीरे-धीरे मना, धीरे सब कुछ होय… धीरे धीरे ही होता रहता है इस जीवन में सब कुछ। एक छोटे से सड़े से कस्बे नोमा में। धीरे–धीरे साम्प्रदायिकता की सड़ांध फ़ैल रही है बदस्तूर। धीरे–धीरे लोग भीड़ के बीच से निर्वासित कर दिए जा रहे हैं। दुःख धीरे–धीरे कथा नायक को घेर रहा है और अनुसूया धीरे-धीरे बेहाल हो निराशा की गर्त में डूबती जा रही है। इस धीरे-धीरे में एक पुख्तगी की ठसक भी है। आबनूसी कस्बे में मन की धूप तो छलावा है ही प्रकृति भी कौन सा न्योछावर रहती है? ”सुबह की धूप उसकी बालकनी में फिसलकर गिरने की तरह पड़ी थी।”

ऐसी औचक और बेज़ार।

चूँकि खोया सिर्फ रफ़ीक नहीं है धीरे –धीरे ही पता चल रहा है कि उस छोटे से कस्बे में रफीक की दुनिया से जुड़े लोग भी एक-एक कर खोते चले जा रहे हैं। जानकी का खोना थोड़ा बहुत घटना होने का दर्ज़ा रखती है। युवा लड़की का खो जाना चटखारे लेने के लिये बढ़िया मसाला है। स्त्रियों को लेकर चन्दन हमेशा संवेदनशील रहे हैं और उसी जज़्बे से  भर उन्होंने जानकी के घर का वह दृश्य रच दिया है जो संतान के खो जाने पर एक सार्वभौमिक दृश्य का ऊँचा आकार पाता है और एक पारंपरिक समाज के घर में बेटी के  खो जाने पर भी घट जाता है। यह रुदन का दृश्य है। खोयी हुई बेटियों की माओं के रुदन का दृश्य जो लेखक–नायक के सामने जानकी के आंगन में पसर जाता है। जानकी की माँ का रुदन सभी खो गयी, भुला दी गयी, शोषण-अत्याचार और साज़िश की भेंट चढ़ गयी बेटियों के लिए रुदन प्रतीत होने लगता है। एक सामूहिक रुदन,”भूलने के विरुद्ध थी वह रुलाई।”  इस वाक्य को कह लेखक हमें पुनः ज़मीन पर पटक कर कुछ खरे सच दिल में चस्पा करने की ताकीद करता है। हमें भूल नहीं जाना है, भले ही रो कर हम उससे सम्बंधित स्मृति को बचाए रखना पड़े।

कैसे चन्दन बार-बार भूलने के विरुद्ध  उपन्यास में तर्क गढ़ते चलते हैं, यह रोंगटे खड़े कर देने वाला अनुभव बन जाता है।

उपन्यास अपने छोटे से कलेवर में इतनी सघनता से अपनी बात कम्यूनिकेट करता है कि पाठक चमत्कृत होकर रह जाता है। बेचैन भी। बहुत –बहुत बेचैन।

कई बार इस यात्रा के दौरान लेखक के आल्टर ईगो से ज़्यादा लेखक का भय उजागर होता दिखलाई पड़ता है। क्या यह सिस्टम के नाकाम हो जाने से उपजा भय है? या अपनों को न्याय नहीं दिला पाने का भय है? लेखक चाहता है कि आपके मन में यह बात उपजे कि यह अपने कौन हैं? हम निरंतर किन अपनों की बात करते रहते हैं? यह बात उपन्यास का कथा नायक भी नहीं जानता बहुत ठीक–ठीक, लेकिन जिसे हम जानते हैं पर  समझना नहीं चाहते बहुत ठीक-ठीक? चन्दन इसके लिये हमपर आक्षेप नहीं करते बल्कि इस कंसर्न को धीमे –धीमे धँसते दुःख की तरह हमारे अन्दर समो देते हैं। कई मौकों पर सिसकी कथा–नायक को नहीं आती क्योंकि वह तो जीवन के एक ख़ास मिशन पर चल पड़ा है, सिसकी उसके बदले पाठक के अन्दर घुटती है। ख़ासतौर से तब, जब इसी नक्कारा समाज के भीतर से कोई अकेला निकलकर चला आता है अपने बीच के उस “अन्य“ को बचाने जिसे भीड़ लिंच करने पर आमादा हो। शुरू से अंत तक यह उपन्यास ऐसे ही विरले किरदारों के पक्ष में खड़ा होता है। यह उपन्यास उस समाज के पक्ष में खड़ा होता है जिसे नायक–नायिका के हर इमोशन के बीच ”सामने देखो” कहकर व्याख्यायित किया गया है। उर्फ़  सामने देखो, साफ़ देखो।

दरअसल वे “अन्य”(The others) हैं। उन्हीं के खिलाफ़ अलग पृष्ठभूमि में फासिज्म की नींव रखी गयी थी बीसवीं सदी में। तर्क वही था जो कथा- नायक महसूस कर रहा है– वे जो हमसे भिन्न हैं, जो दूसरे हैं उनकी शुद्धतावादी  संस्कृति में कोई ज़रूरत नहीं। वे प्रदूषणकारी  तत्व होते हैं जिन्हें नेस्तनाबूद करना ही चाहिए। इससे सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से हम स्वच्छ और स्वस्थ हो जायेंगे। उन दूसरों को भुलाने की कवायद के ख़िलाफ़  द्वितीय विश्व युद्ध के लड़े जाने वाले अनेक कारणों में उस “अन्य” को बचाना, उसकी स्मृति को बचाना भी था। चन्दन उसके बरक्स भारतीय मध्यम वर्गीय परिप्रेक्ष्य में एक छोटी सी एकल कवायद करते हैं। उनका कथा–नायक इन आशाविहीन परिस्थितियों में कोशिश करता है। यह मनुष्यता के पक्ष में उठने वाला सबसे सुन्दरतम अकेली कोशश है। इसमें पराजय और जय की कोई मानी नहीं। गाँधी ने तो बहुत पहले ही कह दिया था– सिर्फ मंजिल तक पहुंचना ज़रूरी नहीं मंज़िल पर पहुँचने वाले रास्ते और नीयत भी ज़रूरी हैं।

मंज़िल तक पहुँचने की कवायद जारी रहती है। प्रयास जारी रखना ,लड़ाई लड़ते रहना निहायत ज़रूरी है।“…रफीक का पता लगाने के साथ …उसकी डायरी,उसके नोट्स, पटकथाएं सब सच बतला रही थीं लेकिन सबकी पहुँच के दायरे में अख़बार थे,पुलिस थी, मोर्चा था, नरमेधी महत्वकांक्षायें थीं।”

उपन्यास अंत में सबकुछ पाठकों पर छोड़ देता है। चन्दन का अल्टर ईगो, लेखक नायक आपकी ऊँगली पकड़ कर एक राह पर लिए चलता है लेकिन मंज़िल तक आपको खुद पहुंचना होगा ऐसा कहकर खुद भी कहीं चला जाता है। पहले तो कह चुकी हूँ कि सुन्दर चीज़ें छोटे कलेवर में सजती हैं फिर भी अंत में खीज से भर जाती हूँ। इतनी जल्दी क्यों राह पर छोड़ दिया अकेले भटकने को? लेखक बच नहीं सकता यह कह- भले ही वह रफ़ीक की डायरी के पन्नो की मार्फ़त कहे; -“..दर्शकों को बिठाना। मंच तुम्हारा घर है। उन्हें समझाना कि कौन सी कहानी कहने जा रहे हो? उन्हें यह बतला पाना कठिन काम होगा कि बचाने वाले भगवान होते आयें हैं।”

सचमुच भगवान का आना अभी बाकी है।

इस बेहद खूबसूरत और मानीखेज उपन्यास का भरपूर स्वागत हुआ है।

चन्दन को बहुत बधाई और अगले उपन्यास का अभी से, दिल से स्वागत। उम्मीद है उपन्यास त्रयी की अगली खेप से हम चन्दन की कुछ और ज़रूरी बातों और ज़रूरी हस्तक्षेपों से जल्द वाबस्ता होंगें।

(चंदन पाण्डेय का उपन्यास वैधानिक गल्प राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है। वंदना राग का उपन्यास भी इसी साल प्रकाशित हुआ है ‘बिसात पर जुगनू’, यह भी राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है)

The post वैधानिक गल्प:बिग थिंग्स कम इन स्माल पैकेजेज appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


Viewing all articles
Browse latest Browse all 1525

Trending Articles