केदारनाथ सिंह को श्रद्धांजलि देते हुए यह लेख अंजलि देशपांडे ने लिखा है. अंजलि जी ने हाल में ही जगरनॉट ऐप पर एक जबरदस्त सामाजिक थ्रिलर ‘एक सपने की कीमत’ लिखा है. इससे पहले राजकमल प्रकाशन से इनका उपन्यास ‘महाभियोग’ प्रकाशित है- मॉडरेटर
======================
“जो कवि कविता के साथ इतना लंबा समय गुज़ार दे और लगातार लिखता रहे, कविता उसके लिए विधा नहीं रह जाती, व्यक्तित्व बन जाती है, अभिव्यक्ति नहीं रह जाती, अस्तित्व की शर्त बन जाती है। वह आती-जाती सांस जैसी हो जाती है जिसकी बेआवाज़ लय हमेशा साथ बनी रहती है।”
कैसे सुन्दर शब्द हैं.
केदारनाथ सिंह के लिए इतना ही कहना काफी था शायद. विचार और भाव के संगम पर स्थित इस श्रद्धांजलि ने मन को छू भी लिया, मस्तिष्क को उद्वेलित भी कर दिया. संघर्ष के किन पलों में भावना विचार को अंगीकार कर लेती है और कब विचार भावना की मुलायमियत से ओतप्रोत हो जाते हैं यह कोई नहीं जान सकता शायद. पर परिवर्तन की इस लय को जो पकड़ पाए वही कालजयी कवि हो है क्योंकि उसने परिवर्तन की बेआवाज़ लय सुनी है, पकड़ी है.
केदारनाथ सिंह ने जैसे देश के संक्रमण काल को आत्मसात कर लिया था, उसके तनाव को महसूस करके उसके सुर में अपने शब्द पिरोये. भोजपुरी और हिंदी के बीच के अपनत्व और दूरी को एक साथ कोई उन जैसा मूर्धन्य कवि ही माप कर असीम विस्तार दे सकता था. एक में दूसरे को खोजने की उनकी सबसे विख्यात पंक्तियाँ एक परिवर्तनशील जग में अपने अस्तित्व की बदलती पहचान पर स्व से ‘उस’ के मिलन और ऐसे में भी अपने अस्तित्व की अक्षुण्णता के बचाए रहने की कैसी अद्भुत अभिव्यक्ति है! इतनी सुन्दर कि एक नया मुहावरा बन जाए.
ऐसा कवि इतिहास को वह आयाम देता है जो सबूतों के मोहताज पेशेवर इतिहास लेखकों के लिए कठिन है. पर जो आवश्यक है. ऐसा आयाम जो इतिहास में होना ही चाहिए, मानव की मांसलता का, भविष्य की उसकी कल्पना शक्ति का. ऐसा शिखर केदारनाथ सिंह ने हासिल किया तो इसलिए कि घास उनको प्रिय थी, कि जड़ें उतनी ही नीचे थीं जितनी ऊंची उनकी कवि कल्पना की उड़ान थी. जैसा कि बुनाई का उनका गीत कहता है.
उठो
झाड़न में
मोजो में
टाट में
दरियों में दबे हुए धागो उठो
उठो कि कहीं कुछ गलत हो गया है
उठो कि इस दुनिया का सारा कपड़ा
फिर से बुनना होगा
उठो मेरे टूटे हुए धागो
और मेरे उलझे हुए धागो उठो
उठो
कि बुनने का समय हो रहा है
समय हो रहा है कवि. तुम्हारी देह जिस आत्मा का घर थी उसे विदा कर दिया है, तुम्हारी आत्मा को हम अपनी आत्मा में रचा बसा सकेंगे या नहीं यह अब हमारी जवाबदेही है.
लगता है हिंदी साहित्य फिर प्रतीक्षारत हो गया है. जाने कब, कौन आये…
The post तुम्हारी देह जिस आत्मा का घर थी उसे विदा कर दिया है appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..