‘न बैरी न कोई बेगाना’– 390 पेज की यह किताब आत्मकथा है जासूसी उपन्यास धारा के सबसे प्रसिद्ध समकालीन लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक की आत्मकथा का नाम है. इसको पढ़ते हुए दुनिया के महानतम नहीं तो महान लेखकों में एक गैब्रिएल गार्सिया मार्केज की यह बात याद आती रही- जिन्दगी वह नहीं होती जिसे हम जीते हैं बल्कि वह होती है जिसे हम याद रखते हैं और जिस सलीके से हम उसे याद रखते हैं.
सुरेन्द्र मोहन पाठक हिंदी के लोकप्रिय उपन्यास धारा के सबसे लोकप्रिय समकालीन लेखक हैं. अस्स्सी के दशक के आरम्भ में अमिताभ बच्च्चन के बारे में यह कहा जाता था कि लोकप्रियता में एक से लेकर दस नंबर तक अमिताभ बच्चन हैं उनके बाद का अभिनेता ग्यारवहें नंबर पर आता था. वही हाल आजकल सुरेन्द्र मोहन पाठक का है. समकालीन हिंदी जासूसी उपन्यास लेखन के वे पर्याय बन चुके हैं. इसलिए उनकी आत्मकथा का विशेष महत्व हो जाता है.
सुरेन्द्र मोहन पाठक को लिखते हुए 60 साल होने जा रहे हैं. दुर्भाग्य से हिंदी के लोकप्रिय धारा के लेखकों में इतनी जिंदगी भी शायद ही किसी बड़े लेखक को नसीब हुई जितना कि पाठक जी का लेखकीय जीवन रहा है. उनकी पहली कहानी का प्रकाशन 1959 में हुआ था. उन्होंने लोकप्रिय धारा का उत्कर्ष भी देखा है और उसका पतन भी. सब इस किताब में दर्ज है.
बहरहाल, उनकी आत्मकथा को पढ़ते हुए जो बात सबसे अधिक प्रभावित करती है वह उनका संघर्ष है और उनकी वह जिद जिसने अंततः उनको एक लोकप्रिय लेखक के रूप में स्थापित किया. उस लेखक के रूप में जो आज हिंदी में लोकप्रिय लेखन का पर्याय बन चुका है. मेरे जैसे लेखकों के लिए अह किताब प्रेरक है जो यह बताती है कि कि लेखन में मुकाम बनाने के सपने को कभी नहीं छोड़ना चाहिए, असफलताओं से हार नहीं माननी चाहिए. अंततः सफलता मिल जाती है. लेखक ने अपनी आत्मकथा में अपने मित्र लेखक वेद प्रकाश काम्बोज का उदाहरण दिया है जिनको बहुत जल्दी सफलता मिल गई और वे उस सफलता को संभाल नहीं पाए. आज भी वेद प्रकाश काम्बोज उपन्यास लिख रहे हैं लेकिन उनका कोई नामलेवा नहीं है.
पाठक जी ने अपने आदर्श लेखक के रूप में कृशन चन्दर को याद किया है और इस बात पर अफ़सोस भी जताया है कि एक महान प्रतिभा का लेखक अति लेखन का शिकार हो गया और उसका वह मुकाम नहीं बन पाया जिसका वह हकदार था. जबकि राजेन्द्र सिंह बेदी ने कम लिखा और एक महान लेखक के रूप में स्थापित हुए.
‘न बैरी न कोई बेगाना’ एक तरह से लोकप्रिय साहित्य धारा का इतिहास भी है. किस तरह दशकों तक लिखकर नाम और दाम बनाने का यह दौर चलता रहा, किस तरह पैसों के लिए घोस्ट लेखन किया जाता था. खुद पाठक जी के सामने भी उस दौर में घोस्ट लेखन के प्रस्ताव आये जब वे अपने नाम से सफल लेखक नहीं बन पाए थे. लेकिन उन्होंने इस तरह के प्रस्तावों को स्वीकार नहीं किया. उनको तो अपने नाम का सिक्का चलाना था. पाठक जी ने बड़ी ईमानदारी से, बड़ी बेबाकी से हर दौर का हर किस्सा बयान किया है- चाहे वह उनके घर परिवार का हो या लोकप्रिय साहित्य जगत का.
किताब में दो बातें खटकती हैं. एक तो यह कि यह उनकी आत्मकथा का पहला खंड है, जिसमें उनकी युवावस्था तक की ही कहानी है. फिर इसमें वेद प्रकाश शर्मा के मार्केटिंग फ़ंडों की आलोचना नहीं आनी चाहिए थी. जब किताब में वेद प्रकाश शर्मा का जिक्र ही नहीं है तो उनकी आलोचना भी नहीं होनी चाहिए थी. यह बात कुछ खटकती है. दूसरे, ‘न बैरी न कोई बेगाना’ की भाषा उनके उपन्यासों जैसी ही है. मुझे उम्मीद थी कि पाठक जी की आत्मकथा में उनकी भाषा का कोई दूसरा रंग देखने को मिले शायद. बहरहाल, यह निजी अपेक्षाएं हैं. वैसे यह आत्मकथा ऐतिहासिक महत्व का है क्योंकि एक तरह से पहली बार किसी लोकप्रिय लेखक ने लोकप्रिय धारा के इतिहास को दर्ज करने की कोशिश की है. पाठक जी की यह आत्मकथा लुगदी साहित्य को इतिहास के पन्नों में दर्ज करने की एक सफल कोशिश है. जिसमें वे पूरी तरह सफल रहे हैं. अब इसके आने वाले दो खण्डों का इन्तजार है.
हाँ, इस किताब की कीमत 299 रुपये है जो संयोग से पाठक जी की अब तक की सबसे महंगी किताब है!
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न बैरी न कोई बेगाना; लेखक-सुरेन्द्र मोहन पाठक; प्रकाशक- वेस्टलैंड बुक्स; मूल्य-299.
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