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तसनीम खान की कहानी ‘भूख—मारी की नगरी में दीवाली’

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युवा लेखिका तसनीम खान को कहानियों के लिए अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं, कई प्रमुख लिट्रेचर फ़ेस्टिवल में शिरकत कर चुकी हैं। समाज के हाशिए के लोगों के जीवन को वह अपनी कहानी में बारीकी से उभारती हैं। जैसे कि यह कहानी- मॉडरेटर

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उस दिन शहर खूब रोशन था, खूब रोशन। इतना कि आकाश के सितारों को शर्म आ रही थी। जैसे वे चांद के सामने अपने को कमतर समझते होंगे, वैसे ही आज वो इस शहर, इस शहर ही क्यूं पूरे देश की रोशनी के सामने अपनी गर्दन सीने में घुसाए शर्म से टूटते जा रहे होंगे। तारे शर्म से भी टूटते हों, ऐसा शायद इस ब्रह्मांड में पहली बार ही हुआ हो। यह भी तो पहली बार ही हुआ होगा, जब बरसों की भूखमरी के साथ एक वैश्विक महामारी से जूझता कोई शहर, कोई कस्बा, कोई पूरा देश, महादेश रोशनी में नहा रहा हो, बजाय इसके कि एक प्राकृतिक आपदा के समय चेहरे स्याह पड़ जाए, रोशनी बेजार करने लगे, भीतर से बाहर तक के अंधेरे की सुध न हो, उन दिनों में भी कोई उत्सव होता होगा? इतनी रोशनी होती है भला?

होती है ना, देखो तो कितनी रोशनी है। इस 21वीं सदी के दूसरे दशक के अंतिम साल में शायद यह सदी की सबसे बड़ी महामारी थी। ऐसा टीवी और अखबार वाले कहते। लेकिन इस देश में तो इसस बड़ी भी महामारी पहले ही थी, जिससे हर दिन कई मरते पर यह रपट कोई टीवी या अखबार में पढ़ना नहीं चाहता, मतलब यह खबर बिकती ही न थी।

खैर, बात रोशनी की कर रहे थे, ऐसा भी नहीं कि हर कोई उत्साह में था, हर चेहरा रोशन था। कुछ अंधेरे में भी थे। कुछ नहीं बहुत सारे। वो जो अंधेरों में पैदा होते हैं, अंधेरा उनका नसीब नहीं होता, वो तो जानबूझकर अंधेरों के लिए शापित कर दिए जाते हैं। सही पढ़ा वो अंधेरे के लिए शापित होते नहीं हैं, शापित कर दिए जाते हैं।

तो हर घर की चौखट, दीवारों से लेकर बालकनियों, छतों, छतों से टंगी कंदीलों, बालकनी से झूलती झालरों तक से रोशनी फूट रही थी। इसी रोशनी से जगमगाते शहर की टोंक रोड की इस महावीर कॉलोनी के सबसे आखिर की कच्ची बस्ती भी जगमगा रही थी। झुग्गियों में कहीं लाइट नहीं थी, हां, हर घर के आगे आज दीया झिलमिला रहा था, जो बस्ती को रोशन कर रहे थे। बुझे हुए तो वैसे इन झुग्गियों के भीतर थे। सहमे, डरे।

हां, इस जगमगाती दीवाली सी रात में भी सब डरे—सहमे ही थे।

सुना था इस शहर में वायरस का फैलाव हो रहा है। जानें ले रहा है, लेकिन बस्ती के लोगों को पक्का यकीन था कि वायरस का असर उन पर नहीं हो सकता। वायरस से वे लोग नहीं मरेंगे। ऐसा वायरस जो विदेश से आया हो, वो इन झुग्गियों का रूख क्यों करेगा भला? सवाल उनका सही ही था। जिन झुग्गियों का रूख सिर्फ चुनावों के वक्त कोई—कोई करता है, वहां इस वक्त वो लोग तो क्या कोई वायरस भी नहीं आ सकता।

इन्हें तो जिस चीज से डर लगता है, वो तो बरसों से इनकी झुग्गियों के भीतर ही है। हां,  इस जगमगाहट को हर बच्चा कौतूहल से देख रहा था, वहीं मनु आज झुग्गी के भीतर ही तो था। काले चेहरे पर आंसुओं की लकीरें खुदी हुई थी जैसे। उसकी आंखें कुछ फटी हुई थीं। एक दिन पहले कोई सुबह के वक्त आधा पेट खाना खाया था। और उससे पहले भी खाने ने पेट में जाने का दो दिन का अंतराल लिया था कोई। वो अपनी फटी शर्ट से अपने कमर तक चिपक चुके पेट पर हाथ भी नहीं फिरा पा रहा था। हां, उसे नहीं पता था कि हाथ तो ओवरईटिंग टाइप कुछ करने वालों के बाहर निकले पेट पर ही फिराया जा सकता है। उसे अंडर ईटिंग को कॉन्सेप्ट पता न था।

वो रह—रहकर एक मासूम सी नजर माई पर डालता। वो खटिया से नीचे उस धूल में पैर  फैलाए बैठी, मनु को पूरे दिन से देखे जा रही थी और जैसे ही मनु उसे देखती वो अनदेखा करने की कोशिश करती। अपनी फटी धोती से  चेहरे पर जाने आंसू पौंछती कि पसीना, मनु तय नहीं कर पाता। वो मांई को अनदेखा करते देख समझ जाता और फिर कमर तक चिपके पेट के गड्ढे में उसका हाथ उतर आता।

‘ई हाथ ही से पेट भर जाता, तो कित्ता आराम मिलता। न ई मांई?’

मांई की रूह कांपने लगी। दिनभर से मनु को कुछ न दे पाने का दर्द उसके लिए लिए भी सहने जैसा नहीं था। उसे पता था कि छह साल का मनु कब तलक ही भूख सहेगा। इस एक सप्ताह में तो शरीर आधा भी नहीं रहा। अभी उसकी इतनी कोई आदत ही न पड़ी थी, कि भूखा सो सके। मांई भी तो सुबह—शाम मनु को थाली भर खाना खिलाती रही। मनु का बाप जितना लाता, उतना वो मनु के पेट भरने के उपाय में खर्च कर देती। उसे पता था खाली पेट की जलन न सोने देती है और न जीने।

वो भी तो अपने कमर तक चिपके पेट को लिए ही बड़ी हुई। पर उसे तो आदत थी। जरा भात में वो दो दिन तो निकाल ही लेती। अभी चार दिन हुआ, कोई मनु के झूठे बर्तन में एक आध दाना चिपका बचा रह जाती तो उसे जीभ पर रख ही मन भर लेती। उन दो—चार दानों का नमक भरा स्वाद जीभ पर चढ़ते ही वो पेट को भुला देना जानती थी।

कुछ ही दिन पहले तक उसकी और मनु के मुंह पर दिनभर तो नमक का स्वाद रहता। मनु का बाप इतना कमा लिया करता कि इस झुग्गी में भरपेट खाया जाता। भरपेट भी वो लोग यूं खा लेते कि दोनों ही मरद—औरत बचत में नहीं, पेट भरने में ही जीवन समझते। जो भूख सहते बड़े हुए हों, उनके लिए पेट भरना ही सब कुछ होता है, जेब भरने का तो वो सोचते भी नहीं। कुछ बचाते भी किसके लिए, गांव में मांई ही बची मनु के बाप की। बिहार के शेखपुरा के शेरपुर से कोई आठ साल पहले ही मनु का बाप भाग आया। अपनी मेहरारु को लेकर नहीं, भुखमरी से भाग कर। उसकी आंखों के सामने ही उसके बाप ने भुखमरी से दम तोड़ दिया। भूख के बीच बड़ा हुआ मनु का बाप भूख की मौत बर्दाश्त नहीं कर पाया। तब से ही वो उस गांव की उस झुग्गी छोड़ आ गया यहां जयपुर। मांई वहीं गांव में बची रही। कोई उस मांई की जीवटता ही रहती होगी कि औरत की जीवटता कहें कि भुखमरी में मरद मर गया, पर वो जीती रही। बेटे को खुद भूखी रह खिला देती।

वो ना आई यहां, हां, मील मजदूरी पक्की सी लगने लगी। हर महीने जरा पगार मिलने लगी तो उसने मनु के बाप का लगन कर बहू को भी बेटे के साथ यहां भेज दी। मां अपने भाईयों के बीच झुग्गी में मिल—बांट खाकर ही खुश थी।  साल में कोई एक बार मनु अपने मां—बाप के साथ वहां पहुंच जाता। तब जाकर उस बुढ़िया को भरपेट खाना मिला करता, लेकिन वो इसे आदत नहीं बनाती। जानती कि मनु का बाप चार दिन में लौट जाएगा, तब उसे आधा पेट ही रहना है।

जाने भुखमरी से ही कि जाने कौन बीमारी से, वो अभी 21 दिन पहले ही मर गई। और 21 दिन ही हुए मनु के बाप को गांव गए। तब से लौट नहीं सका। सब बता रहे कि मांई की तेहरवीं से पहले ही यहां तक आना बंद हो गया। कोई गाड़ी ना मिल रही। पड़ोसी के मोबाइल पर फोन आया तो भी तो मनु का बाप यही कहा, कि कोई गाड़ी—घोड़ा नहीं होता, तब तक नहीं आ सकता। हो सकता है वो किसी तरह कभी भी वहां पहुंच जाए। वो दोनों किसी तरह उसकी राह देखें।

मनु की मांई ने फिर अपनी छोटी टूटी पेटी खोली। अपनी एक धोती को उंचा—नीचा किया, झाड़ा भी, लेकिन वहां कोई बचत न झड़ी। यह तो वो भी जानती थी, कि इस पेटी में कुछ न मिलेगा।

मनु फिर कराह उठा।

‘मांई, खाने की गाड़ी न आई।’

वो पेटी छोड़, बुझते उस चेहरे को देख बिलख पड़ी। किसी तरह भर्राती आवाज को काबू किया।

‘कोई ना आया अब तलक।’

‘मांई, वो थोड़ी देर पहले जो बस्ती  में भीड़ जुटी थी, वो क्या लेने थी। क्या लेने दौड़े सब ही।’

मांई से बोला ना गया। उसने इशारा कर झुग्गी के बाहर टिमटिमाता दीया दिखाया। जो इस जगमगाते शहर में अपना एक हिस्सा दे रहा था।

‘इस टैम थोड़ी आती दीवाली। फिर दीया क्यूं कर बांटा, खाना क्यूं नहीं लाते ये लोग?’

इस बार मनु मचल गया। बेजान शरीर पर भी वो चिल्ला उठा। बेचारगी और गुस्सा उसकी बाहर निकल आई आंखों से टपक रहे थे, आंसू की लकीर खींच गई उस चेहरे पर।

मनु की मांई ने अपने दिल को हाथ से निचोड़ लिया।

‘मैं भी कहां समझी रे मनु। पर वो लोग खाना नहीं दीया ही लाए, कह गए। दीया जलाकर रखना, हम खाना लाएंगे।

ना, ना। रोना नहीं मनु, अभी आती होगी गाड़ी। वो बोलकर गए, जो दीया जलाएगा, उसे वो खाने को बांटेगे।’

मनु के आंसु की लकीर को अपनी धोती से पौंछती मांई पूरी उसकी देह से लिपट गई।

‘मांई, बायरस यहां नहीं आता तो बाबू लौट आते ना और हम भूखा ना रहते।’

‘हां रे मनु, जाने क्या मनहूस आया यह वायरस। दीया बांटने वाले भी बोले कि यह जलाने से वायरस चला जाएगा और तेरा बाबू लौट आएगा। फिर हम भरपेट खाना खाएंगे।’

‘पर मांई, ये खाने की गाड़ी ले आते लोग, हमको पूरा खाना क्यूं नहीं दिए कभी।’

‘वो नासमझ ठहरे मनु। कहते— हम बाहरी लोग हैं। पहले वे अपने लोगों का पेट भरेंगे। जैसे बाकियों को भगवान ने भूख नहीं दी हो।’

‘तो तू कहती क्यूं नाही कि हम विदेश से ना आए।’

मांई ने मन मसोस लिया। आंसू बह निकले। इन झुग्गियों के हजारों मजदूरों के लिए कुछ सौ के अंक में खाने के पैकेट कुछ पुलिस वाले लाते, जो सरकार भेजती शायद। जाने वो चेहरों से पहचान लेते कि राजस्थान के मजदूरों को देते और दूसरे राज्यों से आने वालों को नहीं।

कहते— ‘उनके पास इतने ही हैं कि अपनों का पेट भर सकें।’

मांई के मन में मनु का सवाल कौंधता रहा।

‘क्या हम इनके अपने नहीं? नहीं, नहीं बस्ती के लोग तो अलग नहीं मानते। वो पैकेट हम सबके साथ बांट लेते हैं। खुद भी तो आधा पेट भूखा ही रहते। भले ही बस्ती के सभी लोग एक—एक कोर ही खा लें, लेकिन वे बराबर ही बांटते।’

वो मन ही मन बुदबुदाई। एक बार फिर झुग्गी के बाहर तक गई झांकने। देखा बस्ती सूनी सी थी। हां, हर झुग्गी के बाहर एक—एक दीया झिलमिला रहा था। शायद हर कोई खाने के इंतजार में इनके देर तक जलते रहने की प्रार्थना करने अंदर खामोश हैं।

वो फिर मनु के पास लौट आई।

‘मांई, गाड़ी आई क्या?’

‘आती होती तो मैं तुझे अपने हाथों से खिला देती।’ उसने मनु के सिर पर हाथ फेरा। मनु ने एक नजर बाहर झिलमिला रहे दीये पर डाली। उसकी रोशनी में भी उसे अपनी भूख का कोई उपाय नजर नहीं आया। उसने आंखें मूंद ली।

कहीं दूर खूब शोर की आवाजें आने लगी अचानक। ढोल—ताशे, थालियां, पटाखे, आसमान तक पहुंचती आतिशबाजी, आसमान में कौंधती बिजलियों सी रोशनियां झुग्गी के दरवाजे से दिखने लगी।

मनु ने आंख खोल किसी टूटते तारे को देखा था। वही तारा जो असल में टूटा नहीं, मनु के सामने शर्म के मारे झुक गया।

‘मांई, बस्ती में सब भूखे होते तो खुसी मनाया करते क्या?’

मांई ने धोती का कोना मुंह में ठूंस मुंह फेर लिया। कैसे बताती उसे कि झुग्गियां पेट भर खाना खाकर ही खुश होती हैंं। ये उत्सव तो भरे पेट वालों की हैं। मनु को पता नहीं कि इस बस्ती से कुछ ही दूरी पर जो कॉलोनियां हैं, वहीं से ये खुशियों का शोर उठ रहा है। उस शोर में खाने वाली गाड़ी की आवाज सुनने की कोशिश मांई और मनु ही नहीं हर झुग्गी के भीतर के देहों पर जड़े कान कर रहे थे। पर देर तक आवाजें किसी उत्सव की ही आती रहीं।

मनु ने एक बार फिर आंख खोली।

‘मांई, कहीं बबुआ हुआ लगता। थाली तब पीटते ना।’

मांई को जवाब न सूझा, घड़े से फिर पानी पीया और मनु से पूछा,

‘पानी पी ले मनु।’

बंद आंखों में ही मनु ने हल्की सी गर्दन हिलाई। वो जाने कब सो गया। उसे सोता देख मांई ने लम्बी सांस भरी। राहत नहीं दर्द की। वो पूरी रात उसके सूते हुए चेहरे को देख, कल कहीं न कहीं से खाना जुटा लेने की कसम खा रही थी। बाहर निकलने पर भले पुलिस मारे, लेकिन वो खाना लाएगी ही। शायद कहीं दूर, कोई गाड़ी बिना भेद सभी को खाना बांटती हो। किसी कॉलोनी में भीख देने वाला ही मिल जाए। वो अपने दोनों हाथों को देखने लगी। जैसे भीख मांगने के लिए उन्हें तैयार कर रही हो।

सुबह शहर का शोर थम गया था, लेकिन बस्ती में बड़ा शोर था। खाने की गाड़ी का इंतजार भूल हर कोई भागा जा रहा था। कोई लकड़ी इकट्ठा कर रहा था, कोई आग के लिए कागज बीन लाया था। कोई रात का थोड़ा जलने से बचा दीया ढूंढ लाया था।

जिसे मनु के सिरहाने जलाया गया। मांई के रुदन का शोर इतना था कि किसी भी पटाखे, थाली, ढोल—ताशों के उत्सव का शोर कम जान पड़ता।

इसी रुदन के शोर वाली सुबह बंटे अखबारों के पहले पन्ने पर रात की रोशनियों की आठ कॉलम खबर थी। नीचे वायरस से हुई मौतों के आंकड़े थे। अंदर किसी पेज पर उन नेताजी की खबर के बीच उनकी इस बस्ती में दीए बांटते तस्वीर भी थी।

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