युवा शायर सीरीज में आज पेश है इरशाद ख़ान ‘सिकंदर’ की ग़ज़लें। इरशाद की शायरी में रोज़मर्रा की ज़िंदगी के हालात और हर हाल में जीने का हौसला कुछ इस तरह मुँह जोड़ के चलते हैं, जैसे अंधेरे की बाँहों में रोशनी ने अपनी बाँहें डाल दी हों। एकदम अपनी ही तरह के लहजे में ग़ज़ल कहने वाले इरशाद के दो ग़ज़ल-संग्रह आ चुके हैं। आँसूओं का तरजुमा और दूसरा इश्क़। फ़िलहाल उनकी कुछ ताज़ा ग़ज़लें पढ़िए और लुत्फ़-अंदोज़ होइए – त्रिपुरारि
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ग़ज़ल-1
आसमाँ से ज़मीं पे लाये गये
सब ख़ुदा, आदमी बनाये गये
मुझको रक्खा गया अँधेरे में
मेरे खूँ से दिये जलाये गये
एक छोटी सी बात पूछना थी
कौन आया जो हम उठाये गये
नींद, रक्खा करो हिसाब इसका
रात भर कितने ख़्वाब आये गये
शह्र भर की सुलग उठीं आँखें
रात हम दोनों जगमगाये गये
सब दुखों ने उड़ाई दावत ख़ूब
जिस्म ख़ूराक था सो खाये गये
एक दिन छा गये ज़माने पर
एक दिन हम कहीं न पाये गये
ग़ज़ल-2
आती हुई अश्कों की लड़ी देख रहा हूँ
बेताब घड़ी है सो घड़ी देख रहा हूँ
मौजूद से दो चार क़दम आगे को चलकर
दुनिया तिरे क़दमों में पड़ी देख रहा हूँ
बचपन तिरे हाथों में खिलौनों के बजाए
ये क्या कि बुढ़ापे की छड़ी देख रहा हूँ
हर सिम्त से आते हुए तूफ़ान धमाधम
इक बस्ती मगर ज़िद पे अड़ी देख रहा हूँ
चलते हुए अफ़साने से बनता हुआ मंज़र
अफ़साने की मैं अगली कड़ी देख रहा हूँ
तुम कौन हो? वो कौन थी? मैं कौन था? क्या हूँ!
दुनिया थी यहाँ कितनी बड़ी? देख रहा हूँ
कुछ मेरी तबीयत भी हुई जाती है पत्थर
उम्मीद भी शीशे में जड़ी देख रहा हूँ।
ग़ज़ल-3
देखते देखते सूख गया है एक समन्दर पिछली शब
ख़ुश्क हुए हैं मेरे आँसू अन्दर अन्दर पिछली शब
दजला तट से गंगा तट तक ख़ून में डूबा है मन्ज़र
महादेव बोलो गुज़रा है किसका लश्कर पिछली शब
घट घट राम बसे हैं तो फिर घट घट रावण भी होंगे
गाते हुए रोता जाता था कोई क़लन्दर पिछली शब
कहत कबीर सुनो भई साधो दुनिया मरघट है यानी
कबिरा को ही बाँच रहे थे मस्जिद-मन्दर पिछली शब
ख़ाली दोनों हाथ थे लेकिन भरे हुए थे नैन उसके
शायद ख़ुद से हार गया था एक सिकन्दर पिछली शब
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