
आज युवा कवि अमित गुप्ता की कविताएँ पढ़िए। हिंदी के सबसे सुदर्शन कवियों में एक अमित गुप्ता का एक कविता संग्रह ‘रात के उस पार’ प्रकाशित है। उनके कुर्ते के कलेक्शन को देख देख कर मैं प्रभावित होता रहता हूँ। उनकी छोटी छोटी कविताओं में से भी कुछ प्रभावित करती हैं। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर
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उजाला
मुट्ठी भर उजाला
बिखेर दो
थोड़ा ही सही
उजाला तो है।
विधवा
उसके चेहरे पर वो वक़्त की झुर्रियाँ
ऐसी लगती हैं जैसे
सुहाग के लाल जोड़े पर
कोई सफ़ेद रंग के थपेड़े मार गया हो।
लहू
लाल रंग का लहू
ख़ुद को कोसता
बस काग़ज़ पर बसने की चाह थी
उसपे मात्र एक धब्बा बनकर रह गया।
लाल रंग
कोरा काग़ज़
शब्दों से वंचित
एक विधवा
लाल रंग को तरसती।
अछूत
उसकी पीठ पर ढेरों निशान थे चाबुक के
रेंगता हुआ वो कुएँ तक पहुँचा, प्यासा था बेचारा।
पूरे गाँव में हल्ला था
कुएँ में एक औरत की लाश बह रही है
किसी तरह रेंगता हुआ वो चमार जब अपने घर पहुँचा
तो पाया उसकी बीवी लापता थी।
मौन
आओ समय से आँख बचाकर
बैठ लें कुछ देर
संसार के सब झमेले भुलाकर
पथ से परे हटकर
पथिक से दूर जाकर
बैठ लें कुछ देर।
काव्य की आड़ में
भाषा के लिबास के सार में
बैठ लें कुछ देर।
सरल मन लिए जल-बिंदु सा बह जाएँ
आओ हम और तुम मौन होकर
चुपचाप कहीं बैठ जाएँ।
आओ समय से आँख बचाकर
बैठ लें कुछ देर
संसार के सब झमेले भुलाकर
बैठ लें कुछ देर।
सुना है लिखने लगी हो
सुना है लिखने लगी हो
जुमले कसने लगी हो
अपने सीने में बरसों के दफ़न मिसरों को
काग़ज़ पर दफ़नाने लगी हो
सुना है तुम भी लिखने लगी हो
कल तुम्हारी लिक्खी हुई एक नज़्म
अख़बार में पढ़ी
बहुत दिनों के बाद तुम्हारी तस्वीर देखी
हमारे घर, नहीं मेरे घर की दीवारों पर टँगी
तुम्हारी तस्वीर पुरानी हो गई है अब
उतनी ही पुरानी- जितनी कि तुम नई बन गई हो
ख़ुद के बनाए उन नए लम्हों में
और हाँ नज़्म में कुछ मिसरे
मेरी ओर इशारा कर रहे थे
अख़बार के उन काले अक्षरों में
एक-दो जुमले तो ऐसे थे
कि जैसे रूह मेरी क़ैद कर दी हो किसी ने
नफ़रत इस हद तक बढ़ जाएगी
इसका एहसास तो था मुझे
लेकिन
यह गुमान कभी न था
कि इस दुनिया के सामने
तुम मुझे मिसरे बनाकर काग़ज़ पर दफ़ना दोगी
ख़ैर अच्छा है
तुम भी लिखने लगी हो
जुमले कसने लगी हो
अपने सीने में बरसों के दफ़न मिसरों को
काग़ज़ पे दफ़नाने लगी हो
अच्छा है तुम भी लिखने लगी हो।
खोज
जानी-पहचानी इस नदी में
मैं अनजाने तट तलाशता फिरता हूँ
माझी मुझे ज़िद्दी कहकर
मेरा उपहास करता है
मैं फिर भी बहता चला जाता हूँ
भोर के वक़्त मंदिर की घंटी
जब अज़ान में मिल जाती है
दुनिया और उसके नियम-क़ानून
व्यर्थ नज़र आने लगते हैं
विकल्प बहुत हैं जीने के
पर विकल्प संपूर्ण नहीं
सिवाय किसी खोज के।
क़लम या मशाल
मेरे हाथ में क़लम है
और यह मेरी इकलौती सच्चाई है।
तुम्हारे हाथ में जलती हुई मशाल है
और वो तुम्हारी इकलौती सच्चाई है।
एक तीसरा सच यह भी है
कि तुम अपनी उस मशाल से
दुनिया को जला सकते हो
उसे ख़ाक कर सकते हो
लेकिन उसमें दुबारा ज़िंदगी नहीं फूँक सकते।
आख़िरी सच यह है
कि मैं अपनी क़लम से
दुनिया को जला सकता हूँ
उसे ख़ाक भी कर सकता हूँ
और साथ ही उसमें
दुबारा ज़िंदगी भी फूँक सकता हूँ।
दरवाज़े की घंटी
कहने को तो दरवाज़े की घंटी
किसी के आने का संकेत देती है
लेकिन कई बार वो
किसी के न आने का ज़िक्र भी
चुपके से कर जाती है।
कहानियाँ
आज बरसों बाद जब कठपेंसिल छीली
लहू जैसा कुछ ज़मीन पर बिखर-सा गया
पूरी रात लग गई फिर कहानियाँ समेटने में।
मधुशाला
चाँद अटक गया अंगूर के पेड़ पर
ढूँढ़ने निकला था वो मधुशाला।
साक़ी बैठा ज़मीन पर
कैसे पहुँचाए उसे वो हाल।
मार्च रूपी खिड़की
मार्च रूपी खिड़की से मेरे
जब मैं वसंत की ओर देखता हूँ
तब अक्सर सोचता हूँ
तुम्हारे लायक कोई गीत लिक्खूँ
गीत जिसमें छवि हो श्याम की
और हो विरह मीरा
सुधखोर नींद
कल जब चाँद ने अंगड़ाई ली
पूरी क़ायनात उजाले से रौशन हो गई।
अब सुधखोर नींद मेरी आँखें बंद कर यह भी छीन ले जाएगी।
शमशान
आज शमशान थोड़ी अलग लग रही है
कल तक मेरे अलावा यहाँ सारे ख़ामोश थे।
चलो, मौत का कुछ तो फायदा हुआ।
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