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Channel: जानकी पुल – A Bridge of World's Literature.
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ये रौशनी में कोई और रौशनी कैसी

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‘मौजूद की निस्बत से’ महेंद्र कुमार सानी का पहला शे’री मज्मूआ है जो रेख़्ता से प्रकाशित हुआ है । इसकी भूमिका प्रसिद्ध शा’इर और सम्पादक आदिल रज़ा मंसूरी ने लिखी है। उन्होंने सानी के मुख़्तलिफ़ तख़्लीक़ी पहलुओं पर इस तरह रौशनी डाली है कि क़ारी की अपेक्षाएँ बढ़ जाती हैं । किताब का उन्वान ‘मौजूद की निस्बत से’ है और आदिल रज़ा मंसूरी कहते हैं कि ‘किताब का नाम मुसन्निफ़ की फ़िक्र का आईना होता है’, उनका ये क़ौल इस किताब पर सादिक़ उतरता है । यहाँ ये महत्त्वपूर्ण नहीं है कि सानी की निस्बत किस मौजूद से है ; वो मौजूद जो मौहूम से तश्कील हुआ है या जो दा’इमी मौजूद है। सानी को मौजूद से निस्बत है और इस निस्बत के उजाले से किताब के बेश्तर वरक़ रौशन हैं । काव्य में जीव,जगत,माया और ब्रह्म के अस्तित्व पर ख़ूब लिखा गया है । फिर ये सोचने की बात है कि फ़ल्सफ़ियाना सवालों को बहर में बाँध कर शे’र कहने की क्या ज़रूरत है ? इसका जवाब सानी की कलन्दराना रविश है और साथ ही उन सवालों को पूछने का और उनका हल ढूँढने का वसीला है । इस तरह शा’इरी उनके लिए न केवल ज़ात का इज़्हार है बल्कि उस मौजूद का तर्जुमा भी है जिससे उन्हें निस्बत है । उन्हें हयात और कायनात के असरार हैरान और परेशान करते हैं और यही हैरानी-परेशानी महेंद्र की शा’इरी का केंद्रीय भाव बन गई है । चन्द अश्आ’र देखिए-

ये रौशनी में कोई और रौशनी कैसी
कि मुझमें कौन ये मेरे सिवा चमकता है

जाने किस बहते हुए दरिया की परछाईं है दहर
कोई कश्ती भी नहीं पार उतरने के लिए

ऐसी ताज़ाकारी इस बोसीदा वरक़ पर !
मेरी शक्ल में आने से पहले कहाँ थी ख़ाक

कभी दीवार लगती है मुझे ये सारी वुसअ’त
कभी देखूँ इसी दीवार में खिड़की खुली है

सानी की ये हैरानी जिज्ञासा में भी बदलती है और वो इस हैरानी का जवाब पाने की भी भरपूर कोशिश करते हैं । उनकी शा’इरी भी इसी जवाब को हासिल करने का एक ज़रीया बन जाती है-

मुझे भी देखना है उन फ़लक ज़मीनों को
हवा-ए-शाम कभी अपने साथ ले मुझको

किस लफ़्ज़-ए-कुन से उसने तख़्लीक़ की हमारी
सौ-सौ तरह से ख़ुद को इज़्हार करके देखूँ

तमाम सौत-ओ-सदा की रियाज़त-ए-पैहम
है इसलिए कि ये दिल अपनी ख़ामुशी में आए

उसी का तर्जुमा भर मेरी शा’इरी ‘सानी’
वो एक लफ़्ज़ जो मुब्हम सा मेरे कान में है

सानी की ये हैरानी और जिज्ञासा अनुभूति की तीव्रता से मिलकर रहस्यानुभूति में बदल जाती है ।वास्तव में यही रहस्यानुभूति मौजूद से उनकी निस्बत को गहरा करती है ।मौजूद से निस्बत गहरी होने पर सानी का मुशाहिदा और बारीक होता जाता है और उन पर हस्त-ओ-बूद के असरार खुलते हैं और वो ‘जागृति की अ’जब- अ’जब मंज़िलों’ से गुज़रते हुए अपने तज्रबात को अल्फ़ाज़ देते हैं –

रौशनी के लफ़्ज़ में तहलील हो जाने से क़ब्ल
इक ख़ला पड़ता है जिसमें घूमता रहता हूँ मैं

एक नुक़्ते से उभरती है ये सारी कायनात
एक नुक़्ते पर सिमटता फैलता रहता हूँ मैं

रस्ता कोई मौजूद से आगे नहीं जाता
मैं शम्अ तिरे दूद से आगे नहीं जाता

होनी के इस ठहरेपन में आख़िर मुतहर्रिक है कौन
दरिया अपने अंदर जामिद बहते हुए किनारे,देख

इस क़दर सोचता रहता हूँ उसे
वो मिरा ध्यान हुआ जाता है

जो हो रहा है वो भी कहाँ हो रहा है देख
सब कुछ हुआ रखा है गुमाँ हो रहा है देख

आख़िरी शे’र में ‘देख’ लफ़्ज़ की ‘टोन’ विशेष प्रभाव उत्पन्न कर रही है । शा’इर ख़ुद से भी मुख़ातिब है और क़ारी से भी । यहाँ ‘देख’ लफ़्ज़ में जो यक़ीन और एतिमाद है उससे लगता है जैसे सानी को मौजूद और ना-मौजूद से जुड़े सभी सवालों के जवाब मिल गए हैं या उन्हें पहले से ही पता थे और वो हैरान होने का नाटक भर कर रहे थे । उनके ये अशआ’र इस बात की तस्दीक़ भी करते हैं-

वो मिरे सामने हो के भी मुझको को यक्सर दिखाई नहीं दे रहा
इसका मत्लब यही है कि मैं उसको अपनी रसाई नहीं दे रहा

इक ग़ुबार-ए-सदा उड़ रहा है फ़ज़ा में समा’अत की हैरान हूँ
सब समझता है दिल और कहता है कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा

प्राकृतिक उपमानों और प्रतीकों का प्रयोग सानी की शा’इरी की विशेषता है । इस संदर्भ में वे मजीद अमजद, शकेब जलाली, और वज़ीर आग़ा की परंपरा को आगे बढ़ाते नज़र आते हैं ।आज जब ज़िन्दगी की तेज़-रफ़्तारी ने आदमी को प्रकृति से दूर कर दिया है और अब जब शा’इरों के लिए प्रकृति का अर्थ दश्त-ओ-सहरा तक ही महदूद हो गया है,ऐसे में सानी प्रकृति से मकालमा करते हुए अपने सवालों के जवाब पाने की कोशिश करते हैं । गंगा का ठहरा आब,रेत की खेती,ध्यान-मग्न सब्ज़ दरख़्त,आब की गिरहें, दरिया की सुस्त लय,ज़र्द टहनी,माह और दरिया,बरहना पेड़, फूलों की बाड़ियाँ ,कोहसार से उतरते झरने,दरिया की परछाईं, ज़मीं की पस्त ग़ार, बहते हुए किनारे ,ज़रख़ेज़ मिट्टी ,शाम की सर-सर हवा आदि लफ़्ज़ियात का इस्तेमाल अर्थपूर्ण छवियाँ प्रस्तुत करता है-

वक़्तों का ये मिलाप,ये दरिया की सुस्त लय
टुक आँख फेर देख कैसा समाँ हो रहा है देख

इन ध्यान-मग्न सब्ज़ दरख़्तों के इर्द-गिर्द
ये कैसी रौशनी का निशाँ हो रहा है देख

सरसब्ज़ है ता-हद्द-ए-नज़र रेत की खेती
मौजूद के सहराओं में पानी कोई शय तू

जान जाओ अस्ल की मौजूदगी का भेद सारा
ध्यान से बहती हुई गंगा का ठहरा आब देखो

उस फूल को निहारूँ और देर तक निहारूँ
शायद इसी बहाने मैं ताज़गी को पहुँचूँ

आखिरी शे’र में फूल को निहारने का अमल और फिर देर तक निहारने का अमल बहुत मानीख़ेज़ है और वहीं ‘शायद’ लफ़्ज़ इम्कान नहीं बल्कि इस यक़ीन को समेटे हुए है कि जीवन-रस प्रकृति के सान्निध्य से ही मिलेगा ।

सानी के यहाँ ‘सफ़र’ पर भी ख़ूब शे’र मिलते हैं । उसके सफ़र में दिशाहीनता है,भ्रम है,पलायन है,बेध्यानी है,उजलत है लेकिन उसका यह सफ़र भी उसी मौजूद और ना-मौजूद की तलाश की एक कड़ी है –

अपनी तलाश में हम भटके तमाम आ’लम
अब हम जो मिल गए हैं,लगता है हम यहीं थे

पेड़ कहते थे रुक के साँस तो ले
मुझको जल्दी कहीं पहुँचना था

मैं ऐसी यात्रा पर जा रहा हूँ
जहाँ से लौटकर आना नहीं है

सफ़र आज़ाद होने के लिए है
मुझे मंज़िल का कुछ धोका नहीं है

सानी ने इश्क़,महरूमी और रायगानी जैसे पारम्परिक विषयों पर भी शे’र कहे हैं लेकिन ये अश्आ’र उनकी मौजूद से निस्बत के कारण हाशिये पर चले गए हैं –

अगर वो वस्ल का लम्हा हमें मयस्सर हो
तो सारा इश्क़ ही कार-ए-ज़ियाँ ठहरता है

किसके ख़याल ने मुझे ख़ुशबू किया कि आज
बाद-ए-सबा मुझे भी गुलों में पिरो गई

हम कार-ए-ज़िन्दगी की तरह कार-ए-आ’शिक़ी
करना तो चाहते थे मगर कर नहीं सके

मैं उसकी धूप से तो कभी का निकल चुका
दिल से मगर उस अ’क्स का साया नहीं गया

किसी लफ़्ज़-ए-कामिल को पहुँचा नहीं
सफ़र-दर-सफ़र इस्तिआ’रा था मैं

शाम के चराग़ों से रौशनी के बाग़ों से
हम कहाँ निकल आए इक उदास हैरत में

शिल्प के स्तर पर देखा जाए तो सानी ने मुख़्तलिफ़ बहरों में ग़ज़लें कही हैं जिससे उनकी खोजी प्रवृत्ति का पता मिलता है। ये और बात ये खोज कई बार उन्हें ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर भी ले जाती है लेकिन ये रास्ते भी खोज का हिस्सा ही होते हैं। सानी ने अपनी ग़ज़लों में जागृति, सृजन, धूमिल, उपाय, ध्यान, चेतन, दया, अधीन, महापुरुष जैसे संस्कृत-हिंदी शब्दों का प्रयोग भी किया है जो उनकी ग़ज़ल को नया रंग अता करता है।

दरअस्ल सानी की शा’इरी का मिज़ाज फ़ल्सफ़ियाना है, जबकि फ़लसफ़ा ख़ुद एक ख़ुश्क विषय माना जाता है, लेकिन सानी ने फ़लसफ़े को अपनी चेतना और भाव के रंग में रंग दिया है। सानी ने औरों की रुचि का ध्यान रखते हुए शे’र नहीं कहे हैं, यह उनके अंदर की आवाज़ है और सच्ची आवाज़ है, उसमें आडम्बर नहीं है। हाँ, उनकी शा’इरी क़ारी से होमवर्क और तर्बियत की डिमांड ज़रूर करती है। इसे सरसरी तौर पर नहीं पढ़ा जा सकता। बक़ौल ‘सानी’
“ठहर के देख घड़ी भर के वास्ते सानी”

ये मज्मूआ ठहराव का तक़ाज़ा करता है। मैं महेंद्र कुमार सानी को इस किताब के लिए मुबारकबाद पेश करता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि यह किताब हर उस पाठक की लाइब्रेरी का हिस्सा होगी जो अच्छी शाइरी का तज्रबा करना चाहता है।

किताब– मौजूद की निस्बत से
विधा– ग़ज़ल
शायर– महेंद्र कुमार सानी
समीक्षक– विकास शर्मा राज़
प्रकाशक– रेख़्ता बुक्स
क़ीमत– 200/-

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