पिछले दिनों महान क्रांतिकारी चे गेवारा की जीवनी राजकमल से प्रकाशित हुई थी। वी के सिंह की लिखी इस जीवनी का एक अंश पढ़िए-
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स्टूडियो जल्दी ही हम सारे गुयेवारा भाई-बहनो और हमारे संगी-साथियों के लिए पढ़ाई और रिहाइश का अच्छा-खासा अड्डा बन गया। मैं वहाँ अपनी परीक्षाओं की तैयारियों में मशगूल रहता। यही हाल राबर्टो का भी था जो कानून की पढ़ाई कर रहा था। सेलिया, छुटकी एना मारिया और उसका दोस्त कार्लो लिनो आर्किटेक्चर की पढ़ाई कर रहे थे। वे इस जगह का इस्तेमाल अपने अजीबोगरीब प्रोजेक्ट और मॉडल बनाने के लिए करते। कुछ महीनों के लिए स्टूडियो हमारी रग्बी रिव्यू पत्रिका ‘टेकेल’ के सम्पादकीय कार्यालय के भी काम आया—मगर जैसा अक्सर ऐसे प्रोजेक्टों के साथ होता है, हमारी पत्रिका की उम्र भी दो-चार महीनों से ज्यादा नहीं रही।
मैंने दोस्तों के साथ मिलकर पैसे कमाने के एक से एक नायाब शगूफे छोड़ना शुरू किए। सबसे पहले कार्लोस फिगुऐरे की साझेदारी में हमने जिला-जवार के खेतों को चाट जाने वाली टिड्डियों के हुजूम का सफाया करनेवाले कीटनाशक गेमेक्सीन को घरेलू काक्रोचों को मारने के लिए टेलकम पावडर में मिलाकर पैकेजिंग और मार्केटिंग की योजना बनाई। इसके लिए ट्रेडमार्क पंजीकृत कराना तय हुआ। सबसे पहले प्रोडक्ट का नाम ‘अल कपोने’ सोचा गया। यह अर्जेन्टीना के मशहूर घराने का नाम था जिसके इस्तेमाल की इजाजत मिलने का सवाल ही नहीं था। फिर इसका नाम ‘अतिला द हून’ रखना तय हुआ मगर यह नाम पहले से किसी और प्रोडक्ट के लिए पंजीकृत था। आखिरकार इसके लिए ‘वेंडावाल’ (तेज दक्षिणी तूफानी हवा) नाम पंजीकृत करा ही लिया गया। घर के निचले तल पर एक खाली गैरेज में फैक्ट्री शुरू हुई। सारे घर में गेमेक्सीन की मारक बीमार कर देने वाली बदबू फैल गई। घर वालों और नीचे के बुजुर्ग किराएदारों के सारे दबाव-शिकायतों के बावजूद हम दोनों उद्यमी डटे रहे। हेल्पर बीमार होकर भाग गया। कुछ ही दिनों में कार्लोस ने भी तौबा कर ली। मैं नाक पर कपड़ा बाँधे अभी भी मैदान में था। आखिरकार मैंने भी बीमार होकर बिस्तर पकड़ लिया और इस बिजनेस का ‘दि एंड’ हो गया। अगली योजना होल सेल से थोक भाव में जूते खरीदने और उन्हें घर-घर जाकर बेचने की बनी। जब सारे जूते ‘गैरेज’ गोदाम में आ गए तो उनकी जोड़ियाँ बनाकर पैकेजिंग शुरू हुई। अब पता चला कि पूरे लाट में मुश्किल से दस फीसदी जूतों की जोड़ियाँ बन सकती थीं, बाकी सब अलग-अलग नाप और रंग के। अब सारे शहर में एक पैर के लँगड़ों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर एक-एक जूता बेचने का अभियान शुरू हुआ। दस-पाँच बिके भी। बचे हुए जूतों को मैं काफी दिनों तक सधाता रहा, खासकर एक पैर में एक रंग और दूसरे में दूसरे रंग के जूते के पहनावे ने मेरी शोहरत में काफी इजाफा किया। अगली योजना हमारी मेडिकल पढ़ाई की लाइन से थी। हमने घर पर ही मेडिकल एक्सपेरिमेंट करने की ठानी। अब हम कैंसर का कारगर इलाज ढूँढ़ कर माला-माल और मशहूर होने की फिराक में थे। मेरे बेडरूम की बालकनी सफेद चूहों और गुयेना पिग्स के पिंजरों से भर गई। हम उन्हें कैंसर के मारक इंजेक्शनों से संक्रमित करते। फिर हमने अपना प्रयोग इनसानों तक आगे बढ़ाने की सोची। कार्लोस फिगुऐरे को राजी कराया और उसे थोड़ा कम मारक प्रभाव वाला इंजेक्शन दिया गया। इंजेक्शन वाली जगह फूलकर गुब्बारा हो गई और तेज बुखार अलग से। मैंने जल्दी से दूसरा इंजेक्शन उसकी काट के लिए दिया। कार्लोस को आराम आ गया और लक्षण चले गए। मैं खुशी से उछल पड़ा, हमारा प्रयोग सफल रहा। वैसे इन बिजनेस वेन्चरों के अलावा भी मेरी रोजमर्रा की हरकतें कुछ कम दिलचस्प नहीं थीं। एक बार मैं विश्वविद्यालय की लैब से आदमी का पैर अखबार में उलटा-सीधा लपेट कर एक पिंजरे में रखकर घर पर प्रयोग के लिए लेता आया। रास्ते में अखबार सरक गया और फिर अगल-बगल गुजरते सहयात्रियों-तमाशबीनों में मचने वाला हड़कम्प देखने लायक था।
ऐसी ऊटपटाँग मस्तियों के लिए कार्लोस फिगुऐरे के साथ मेरी जोड़ी खूब जमती थी। अक्सर हम दोनों दोस्त रास्ते की सवारियों से लिफ्ट माँगते कार्डोबा की तरफ निकल जाया करते। कार्डोबा ब्यूनस आयर्स से कार द्वारा दस घंटे की दूरी पर था जिसे हम ट्रकों के पिछवाड़े सामान के ढेर पर बैठकर बहत्तर घंटों में तय किया करते। जरूरत पड़ने पर उन ट्रकों के सामान की ‘अनलोडिंग’ कराकर कमाई भी कर लिया करते।
लम्बी यात्रा पर अकेले निकल पड़ने का मेरा पहला अनुभव पहली जनवरी 1950 को शुरू हुआ। मैं तीसरे साल की पढ़ाई पूरी करने के बाद अर्जेन्टीना के सुदूर ग्राम्य अंचलों को देखने के लिए घर से शाम को एक बाइसिकिल से रवाना हुआ जिसमें एक छोटा-सा इटालियन कुविन्चयोलो इंजन लगा हुआ था। थोड़ी दूर तक इंजन के सहारे चलने के बाद मैंने इंजन बन्द करके पैडिल मारना शुरू कर दिया जिसमें एडवेंचर और बचत, दोनों थे। रात आते-आते रास्ते में एक और साइकिल सवार मिल गया और हम सारी रात एक दूसरे से होड़ लेते साइकिल चलाते रहे—सुबह होने तक। रास्ते में ब्यूनस आयर्स की बाहरी सीमा पर बसे एक छोटे-से शहर पिलार से गुजरते हुए, जिसे मैंने अपना पहला पड़ाव तय किया था, मैंने जीवन में पहली बार ‘एक विजेता की खुशी’ महसूस की। मानो मेरे पंख निकल आए थे। मैं अब अपनी राह पर था—आजाद-अकेला-अलमस्त।
इसी के साथ मेरे जीवन में दो नयी आदतों की शुरुआत हुई—घूमना और डायरियाँ लिखना—बाईस साल की उम्र से। अगली रात मैं अपने जन्मस्थान रोजारियो पहुँच गया—उसके अगली शाम को ठीक 41 घंटे, 17 मिनट बाद कार्डोबा में अपने दोस्त ग्रेनाडो के परिवार में था। मगर मैं सही-सलामत बिना किसी रोमांच के वहाँ जाता तो मेरे होने का मतलब ही क्या रहता। रास्ते में मैं रस्सी के सहारे ट्रक के पीछे चालीस मील प्रति घंटे की रफ्तार से अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहा था। अचानक पिछले चक्के का टायर फट पड़ा, रस्सी टूट गई और मैं अपनी साइकिल के साथ हवा में उड़ते हुए सड़क किनारे कचरे में धड़ाम। वहाँ एक खानाबदोश मजदूर सड़क के मेकशिफ्ट चूल्हे पर अपनी धुआंठी काली केतली में खूब मीठी मेट चाय बना रहा था। उसने मुझे चाय पिलाई, उसके साथ यहाँ-वहाँ का हाल-चाल हुआ और मैं अपनी साइकिल घसीटता अपने दोस्त के घर पहुँच गया। कार्डोबा में अपने दोस्तों के साथ मैंने कई दिन बिताए जिसके बाद अल्बर्टो के दोनों छोटे भाइयों—टॉमस और ग्रेगों के साथ शहर के उत्तर में झरने पर कैम्पिंग करने निकल पड़ा—पहाड़ी चट्टानों पर चढ़ाई करने, झरने में नहाने-तैरने का मजा लेने। नहाते समय अचानक से आए पानी के तेज बहाव से बहकर डूबते-डूबते बचे। इस एडवेंचर के बाद मैं अपनी साइकिल से, जिसकी मरम्मत हो चुकी थी, मैं अल्बर्टो से मिलने उसके जोसजे पुयेन्टे लेप्रोसारियम कुष्ठ उपचार और शोध संस्थान पहुँच गया। आगे चलकर हम दोनों—अल्बर्टो और मुझमें साझा रुचियाँ बनीं—कुष्ठ रोगियों की इम्यूनोलाजिकल ससेप्टिबिलिटी और एलर्जी शोध। फिलहाल उस वक्त तक तो हम दोनों की साझा रुचियाँ रग्बी और किताबें ही थीं।
अल्बर्टो के साथ मैं वहाँ उसके क्लिनिक में जाता जहाँ वह कुष्ठ रोगियों का इलाज और इस बारे में शोध कर रहा था। इलाज और शोध के तौर-तरीकों को लेकर हम लम्बी-लम्बी बहसें करते। खासकर एक बेहद खूबसूरत कमसिन लड़की के इलाज को लेकर हम दोनों में जबर्दस्त नोंक-झोंक हुई। लड़की की पीठ पर सफेद दाग के अलावा सारे शरीर में अन्य कोई लक्षण नहीं थे। बावूजद इसके लड़की को अलग तनहाई में गम्भीर बीमारों की तरह रखे जाने से वह हताशा में थी। मेरी राय भी लड़की की राय से मेल खाती थी और मेरे विचार से दवाइयों के अलावा उसे तनहाई में रखे जाने की बिलकुल जरूरत नहीं थी। मगर अल्बर्टो उसे एक लाइलाज मामला साबित करने पर आमादा था। अगले दिन अपनी बात साबित करने के लिए अल्बर्टो ने, उस लड़की को जाँच के लिए बुलवाया और उसके पीछे जाकर उससे बातें करते हुए हाइपोडर्मिक सूई आधी से ज्यादा उसकी पीठ पर दाग वाली जगह में घुसा दी। लड़की को कुछ भी पता नहीं चला और वह आराम से बातचीत करती रही। अल्बर्टो ने आँखों में बिजली की चमक के साथ मुस्कराते हुए मेरी ओर देखा। मैं गुस्से से लाल हो रहा था। मैंने उसे लड़की को बाहर भेजने का इशारा किया। लड़की के बाहर जाते ही मैं अल्बर्टो पर आग-बबूला होकर पिल पड़ा। मैंने अल्बर्टो से कहा, ‘पेरिसो, मैंने कभी नहीं सोचा था कि तुम्हारी संवेदना इस हद तक मर जाएगी। तुमने महज अपने पांडित्य के अहं के लिए उस लड़की के साथ ऐसा क्रूर बर्ताव किया।’ खैर जल्दी ही हमारी सुलह हो गई और इस घटना से भी हमारी दोस्ती पर कोई आँच नहीं आई।
वहाँ से मैं प्राकृतिक छटा से भरपूर, आधुनिकता के हमलों से लगभग अछूते उत्तरी और पश्चिमी अंचलों की तरफ चला। मेरे साथ अपनी बाइक पर अल्बर्टो भी था। मेरी साइकिल एक रस्सी से उसकी बाइक से बँधी थी जो हर चार-छह मिनट पर टूट जाती। झल्ला कर अल्बर्टो वापस सेन फ्रांसिस्को डेल चिनार अपनी क्लिनिक लौट गया और मैं अपनी यात्रा पर अकेले आगे बढ़ गया। रात होते-होते मैं सीमावर्ती शहर लोरेटो पहुँचा जहाँ रात पुलिस स्टेशन में बितानी पड़ी। पुलिस को जब मैंने बताया कि मैं एक डॉक्टर हूँ, उन्होंने मुझे फुसलाना शुरू किया कि मैं उस शहर में इकलौते डॉक्टर के बतौर स्थायी रूप से बस जाऊँ। उन्हें मेरी फितरत का क्या पता था! सुबह हुई और मैं एक बार फिर सड़क पर यह जा-वह जा। लोरेटो से निकलकर मैं सेन्टियागो डेल एस्टेरो पहुँचा जहाँ मेरी मुलाकात प्रान्तीय ‘तुकमान’ अखबार के स्थानीय संवाददाता से हुई जिसने एक डॉक्टर और निरुद्देश्य घुमन्तू के बतौर मेरा इंटरव्यू लिया जो अगले दिन अखबार में छपा। वह मेरे जीवन पर पहला ‘आर्टिकिल’ था।
तुकमान शहर की ओर बढ़ते हुए, जब मैं अपनी साइकिल का पंचर बनवा रहा था, मेरी मुलाकात सड़क किनारे डेरा जमाए एक और खानाबदोश मजदूर से हुई जो चाको में कपास की फसल की कटाई में खटनी और कमाई के बाद अब सान जुआन अँगूर बागानों में खटने-कमाने जा रहा था। आपस में बातें करते और खानाबदोश ‘लिनियेरा’ की खूब मीठी मेट चाय की चुस्कियाँ लगाते जब मैंने उसकी कहानी जानी और अपने बारे में बताया कि मैं बस यूँ ही अर्जेन्टीनी अंचलों की सैर को निकल पड़ा था, उसकी आँखें फटी रह गईं। उसके दिमाग में अँट ही नहीं रहा था कि बिना किसी कमाई की मंशा के कोई क्यों अपना पैसा और वक्त बर्बाद कर सकता है, ‘अरे बाप रे, इतनी फजीहत बिना किसी मतलब के।’ ‘लिनियेरा’ की बातों ने पहली बार मुझे अपने अन्दर गम्भीरता से झाँकने को मजबूर किया—ज्यादा गहराई से खुद को जानने-समझने की राह पकड़ाई। कौन था मैं? क्या मकसद था मेरे होने का? कहाँ जाना है मुझे? क्या करना है मुझे? इन सवालों ने मुझे मथना शुरू किया और मेरी साधारण डायरी अब जीवन के अनुभवों को ज्यादा गहराई से देखने-समझने की ओर मुड़ने लगी।
साल्ता शहर की ओर जाते हुए रास्ते में अपनी साइकिल एक किनारे फेंक मैं सामने घनी मनभावन हरियाली में दूर तक धँसते चले जाने का लोभ सँवरण नहीं कर पाया। उन हरियाले घने जंगलों में घूमते हुए मैंने महसूस किया कि कोई चीज जो मेरे अपने अन्दर न जाने कब से आकार ले रही थी…अचानक परिपक्व हो गई है और वह है सभ्यता की तथाकथिक आधुनिकता के प्रति मेरी वितृष्णा, कानफाड़ू शोर की ताल पर पागलों की तरह नाचते-फिरते लोगों की निरर्थक छवि के प्रति मेरी वितृष्णा।
आगे रास्ते में मेरी मुलाकात एक मोटरसाइकिल सवार से हुई जो अपनी नयी चमचमाती हर्ले डेविडसन बाइक पर था। उसने मुझे रस्सी के सहारे चलने का न्योता दिया। अल्बर्टो की बाइक के साथ रस्सी के अनुभवों को याद करते हुए और कुछ यूँ ही मैंने उसे मना कर दिया। खैर, हम दोनों ने साथ कॉफी पी और अपने रास्ते चल दिये। उसकी बाइक देखते-देखते हवा से बातें करती आँखों से ओझल हो गई। कुछ घंटे बाद मैं भी अपनी साइकिल पर पैडिल मारता अगले शहर की सीमा में दाखिल हुआ। वहाँ मैंने एक ट्रक वाले को अपनी ट्रक से हर्ले को उतारते देखा। यह वही हर्ले थी जिसके सवार से अभी कुछ घंटों पहले मैं मिला था। ट्रक वाले ने बताया, बिचारा बाइक वाला रास्ते में दुर्घटना का शिकार होकर भगवान को प्यारा हो गया था। यह सोचकर कि इनसान बिलकुल निरुद्देश्य किसी भी जनोपयोगी-सार्थक काम की आकांक्षा के बगैर अनजाने खतरों से खेलने निकल पड़ता है, तनिक भी सोचे बगैर कि सड़क के अगले किसी मोड़ पर बिना किसी के देखे-सुने उसके जीवन की इहलीला अचानक समाप्त हो सकती है। मुझे लगा कि वह अनजाना एडवेंचर किसी रहस्यमयी आत्मघाती आवेग के वशीभूत था। एक बार फिर इस घटना ने मुझे अपने बारे में ज्यादा गम्भीरता से सोचने पर मजबूर किया।
आखिरकार मैं प्रान्त के सुदूरवर्ती उत्तरी छोर के शहर जुजुए पहुँच गया। रात गुजारने के लिए मुझे स्थानीय अस्पताल में एक बिस्तर मिल तो गया मगर एक इंडियन बीमार लड़के के सर से सारी जुएँ निकालने के रूप में कीमत अदा करने के बाद। बहरहाल जाना तो अभी मैं और बहुत आगे-अपने देश की बोलिविया से लगी अनगढ़ पथरीली सीमाओं तक चाहता था मगर रास्ते की उफनती नदियों, आग उगलते ज्वालामुखियों और अगले चन्द हफ्तों में शुरू होने वाली मेरी चौथे साल की पढ़ाई ने रास्ता रोक दिया।
अपनी इस पहली यायावरी से मैंने जाना कि अपने देश की आत्मा को आप अस्पताल के बिस्तरों पर पड़े बीमारों, पुलिस लॉकअप में कैद लाचारों या आम-भीरु राहगीरों में ही पा सकते हैं—ठीक उसी तरह जैसे हमारा महानद रियोग्रान्डे अपने अन्दर की उथल-पुथल को अपने घहराते उफानों से दिखाता रहता है।
अपने वयस्क जीवन में पहली बार मेरा साबका अपने देश की कड़वी सच्चाइयों-उसके निकृष्ट दोगलेपन से हुआ था। इस यात्रा ने मुझे अपनी आयातित यूरोपी सभ्यता का चोला उतारकर अपने देश के पिछड़े, उपेक्षित, देशज हृदय-प्रदेश में धँसने और उसकी अनुभूतियों को आत्मसात करने का मौका दिया। अपनी इस समूची यात्रा के दौरान मेरी जीवन की अनर्थकारी अनीतियों से पहचान बढ़ी—कोढ़ी, खानाबदोश, घुमन्तू होबो मजदूर, कैदी, अस्पताल में असहाय रोगी—यह थी हमारे देश की रियोग्रान्डे सम्पन्नता के गर्भ में बजबजाती उथल-पुथल। हमारा रियोग्रान्डे महानद मानो मैक्सिकन-अमेरिकी सीमा से लगा सम्पन्न उत्तर और विपन्न दक्षिण के बँटवारे का राजनीतिक प्रतीक था। सदियों से उत्तर के सम्पन्न धनवान सभ्य जन अपने पुरखों के बनाए औपनिवेशिक मायामहलों में निरीह, गुमनाम, अस्तित्वहीन स्थानीय बहुसंख्या के दक्षिणी अछूत सहअस्तित्व में रह रहे थे और इन पर अकल्पनीय जुल्म तोड़ते हुए देश पर किसी क्रूर क्षत्रप-सामन्त की जागीर की तरह शासन कर रहे थे। अर्जेन्टीना का यह वह इलाका था जहाँ से हजारों-हजार इंडियन ‘कोया’ और गरीब मिश्रित ‘काबेगिरा नेग्रा’ (छोटे कपटी कलुए) शहरों की ओर काम की तलाश में पलायन कर रहे थे। कार्डोबा में हमारे घर के सामने बसी झुग्गी-झोपड़ी की तरह असंख्य झोपड़-बस्तियों में नर्क से भी बदतर जीवन जीते हुए ये घरेलू नौकरानियों ‘ला नेग्रा’ और उद्योगों व सरकारी निर्माण कार्यों-परियोजनाओं के लिए सस्ता श्रम बनकर शहरी सम्पन्नता और सभ्यता को अपना लहू पिला रहे थे। इन निरीह वंचितों ‘डेस्कामिजाडोज’ को राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करने के आह्वान पर इसकी कल्पना मात्र से अपने ‘आलीशान और सभ्य’ मेट्रो महानगरों के श्वेत अभिजात स्वामियों का खून खौलने लगा था। इस यात्रा के बाद अब ये निरीह जन मेरे लिए नौकर, निकृष्ट या गुमनाम-अस्तित्वहीन प्रतीक नहीं रहे। मैं इनके बीच इनके देश गया था और ‘उस अर्जेन्टीना’ की नब्ज को अन्दर से महसूस किया था।
इस तरह छह हफ्ते सड़कों पर गुजारने के बाद मैं अपनी आगे की पढ़ाई के लिए वापस ब्यूनस आयर्स लौट आया। जीवन की इस पहली आजाद यायावरी में मैंने अर्जेन्टीना के 12 प्रान्तों और 25000 मील का सफर तय किया। वापस लौटकर मैं अपनी बाइक को वापस उस कम्पनी के पास इंजन ओवर हालिंग के लिए ले गया, जिसने वह बाइक बेची थी। कम्पनी वालों ने जब बाइक के साथ मेरी दिलचस्प और हैरतअंगेज दास्तान सुनी तो उन्होंने बाइक की मुफ्त ओवर हालिंग के एवज में मेरी बाइक के साथ फोटो और मेरे वक्तव्य का कि ‘इस बाइक ने मेरा छह हफ्तों में 25000 मील का साथ दिया और इंजन का बाल भी बाँका नहीं हुआ’ अपने स्टार विज्ञापन के रूप में इस्तेमाल किया। मेरी इस यात्रा ने अखबारों और विज्ञापनों की भी पहली शोहरत का रोमांच दिया और वह भी बिलकुल मुफ्त।
मेडिकल का चौथा साल। पाँच और परीक्षाएँ पास कर ली मैंने। क्लिनिक पिसानी में मेरी व्यस्तता बदस्तूर जारी और बढ़ती रही। इसी के साथ पिसानी परिवार का मेरे प्रति स्नेह और वात्सल्य भी बढ़ता गया। अपने एक अंकल जार्ज के सान्निध्य में मैंने पिछले साल से एक और शौक पाल लिया था—ग्लाइडिंग, जो इस साल भी जारी रहा। इसी तरह रग्बी में मेरी रुचि और व्यस्तता भी चलती रही। किताबों का जुनून और डायरी की आदत छूटने से रही। पिछली यायावरी ने दुनिया-जहान छानने की भूख पैदा कर दी—सो अलग।
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