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इक्कीसवीं सदी के ग्रामीण यूनिवर्स की जातक उर्फ़ जात कथा का आख्यान

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वरिष्ठ लेखक हृषीकेश सुलभ के उपन्यास ‘अग्निलीक’ को पढ़ते हुए यह टिप्पणी लिखी है जानी मानी लेखिका वंदना राग ने, हाल में ही जिनका उपन्यास आया है ‘बिसात पर जुगनू’। यह टिप्पणी दो पीढ़ियों का संवाद है –

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अग्निलीक एक मुख्तलिफ़ सा उपन्यास है।  न सिर्फ अपने कलेवर और वितान में बल्कि एक सर्वथा नयी ज़मीन की कहानी कहने में भी।  इसे, इक्कीसवीं सदी के ग्रामीण यूनिवर्स की जातक उर्फ़ जात कथा का आख्यान कहा जा सकता है। उपन्यास पीढ़ियों की यात्रा करते हुए अपने समकाल को ख़ामोशी से चिन्हित करता चलता है।  यहाँ सन्देश देने के भावुक दावे नहीं हैं,ना ही समाधान देने की चिरपरिचित भंगिमा बल्कि यहाँ एक सरस चाक्षुष बयान है जिसमें से आप अपने तारतम्य का हिस्सा निकाल कर ग्रामीण जीवन की धड़कन महसूस कर सकते हैं-मनुष्य जीवन की धड़कन महसूस कर सकते हैं और अपने हिस्से का सुख- दुःख, ईर्ष्या – द्वेष, संघर्ष और जय-विजय सब की प्रतिछायाओं को पहचान सकते हैं।

जो स्थानीय है वही वैश्विक है- इस फ़लसफ़े की अनुगूंज इस उपन्यास में बहुत साफ़ दिखलाई पड़ती है।  यह स्थानीयता की बात स्थानीय भाषा में करते हुए, जाने कब आपको पर्यावरण और मनुष्य के गठजोड़, मनुष्य जीवन की क्रूरता, चालाकी, दमन और प्रेम के उस वैश्विक फलक से जोड़ देता कि आप चकित रह जाते हैं।

यह बदले हुए भूतपूर्व सारण ज़िले और वर्तमान में सिवान जिले के जातीय समीकरण और वर्चस्वादी राजनीति का इक्कीसवीं सदीय संस्करण है।  सिवान ज़िले में समरस से अनेक गाँव हैं, जहाँ बिहार के जिलों की साझी संस्कृति से इतर कुछ विशिष्ट पहचानें हैं-मिटटी की बनावट, लोगों की बुनावट और बोली बानी! जहाँ दुद्धी पोखर नहीं अमृत का पर्याय है, “इसका जल दूध के माफ़िक था और दुसाध टोला के लिए अमृत। ” –“दुधही और टोटहा टोले में माई-बेटे का रिश्ता था। ”

और संपहीं की भी बात निराली थी।  वह जल धार नहीं, भूगोल का टुकड़ा नहीं, प्रकृति की गवाक्ष थी और गाँव के जनजीवन की सहचर।  वह ऋतुओं के आने और जाने के हिसाब से बनती और संवरती।  कभी ऐश्वर्य से भर फूल कर लहराती तो कभी सिकुड़ कर दुबलाती -”सिकुड़ कर छिछली हो चुकी संपही के मंथर प्रवाह में अब इतनी ताकत नहीं बची थी कि वह मुन्नी बी का दुःख हर सके। ”

गाँव के ये छोटे-छोटे जल स्त्रोत दरअसल घाघरा की परंपरा के पालक हैं।  घाघरा नदी जो अपने आकार के वैभव से, कथा में विचरने वाले पात्रों के जीवन का बड़ा हिस्सा घेरती है।  महत्वपूर्ण ढंग से उनके प्रेम और विरह की साक्षी बनती है-“इधर रेवती ने मनोहर पर मुट्ठी भर अबीर फेंका और उधर अमरपुर में बहती घाघरा की जलधार पर इन्द्रधनु उग आया।  रंग गया था घाघरा का जल …इस इन्द्रहनु के एक छोर पर जसोदा थीं और दूसरे पर लीला साह।  दोनों इस इंद्रधनू की प्रत्यंचा की डोर पकड़ घाघरा की धारा में तैर रहे थे…। ” -”घाघरा के तट पर आलाप भरते लीला ,पूरी पृथ्वी सांस रोक कर सुनती । लीला साह का कंठ स्वर सुन धूसर बलुही माटी के रंगमंच पर नाचती थीं घाघरा। ”

प्रकृति और ग्रामीणों का बंधन इस क्षेत्र में बरसों से चला आया है और किम्वदंतियों  की उर्वर भूमि को पोसता आया है।  इक्कीसवीं सदी में भी कमोबेश यह सम्बन्ध बरक़रार है, भले ही उसका रूप विपन्न और छीजा हुआ हो गया हो।  अब यहाँ ट्रेक्टर से खेती होती है।  अब पुराने किस्म के हलवाहे नहीं रहते यहाँ, लेकिन मौसम अभी भी दगा दे जाता है और खेती सहती है।  अभी भी यहाँ बांस की गाछी है ..करोंदे के फल हैं और किस्म- किस्म की मछलियाँ-तैरतीं हैं जलाधारों में -चल्ही,गैची और गरई,पंडुक पक्षी की तान है अभी भी, धान है तो ईख भी है अब यहाँ, और यदि अभी भी लंगटू ब्रह्म पीपल के पेड़ पर रहते हैं और खीर और गांजे का चढ़ावा पसंद करते हैं तो पाकड़ के पेड़ की तो बात और भी निराली है- तरह तरह के प्रेत रहते आये थे उसपर, जिनमें जाति धर्म और लिंग का भेद ही नहीं था।  एक अस्फुट से स्वर की निल्ही कोठी भी है इस क्षेत्र में जो अंग्रेजों के फुटप्रिंट्स की कहानी भी इंगित करती है।

लेकिन बात सिर्फ इन्हीं मसलों पर ठहरती नहीं।  आगे बढ़ती है पूरे वेग से और शमशेर साईं की उपन्यास के प्रारंभ में ही हत्या की गुत्थी सुलझाने से अधिक, उसके बहाने से राजनीतिक व्यवस्था और जातीय समीकरण पर खुल कर पसर जाती है।

राजपूतों और ब्राहमणों की दुर्दशा हो चुकी है।  राजनीति में कोई अस्तित्व बचा नहीं उनका इस क्षेत्र में।  और पूजा-पाठ करते ढोंढाई बाबा अब सिर्फ एक पेटू ब्राह्मण हैं जिनकी जातिगत कुटिलता को ग्रहण करने वाले भी कम बचे हैं।  अब यादवों और मुसलमानों और अन्य पिछड़ी जातियों के गठजोड़ से चुनाव लड़े जाते हैं यहाँ।  और जाति की नाल तो ऐसी गड़ी है इस देश के समाज में कि हिन्दू का विधर्मी मुसलमान  भी जाति अनुसार उंच -नीच मानता हैं और सय्यद और पठान के आगे अंसारी बेचारा तो निकृष्ट ही ठहरा।

उपन्यास में इस क्षेत्र के बदलते  जातीय समीकरण की सच्चाई को बहुत बेबाकी से दर्शाया गया है और बाबासाहब के कहे की अनेक अर्थ छवियाँ को यहाँ हम मौजूद पाते हैं।

ज़ात एक इरादा है जो पितृसत्ता और ब्राम्हणवादी सोच के घटक मिश्रण से पैदा होकर युगों से भारतीय समाज का स्थायी सच बना हुआ है।

बस कभी एक जात तो कभी दूसरी एक को कोहिनीयाके वही करने लगती है, जिसको नष्ट करने का दावा करते हुए वह सत्ता पर काबिज हुई थी।

 मुखिया लीलाधर यादव का शमशेर साईं के साथ मिलकर गाँव की राजनीति पर वर्षों तक बने रहना और फिर सरपंच अकरम अंसारी का शमशेर साईं को तोड़ कर अपने पाले में कर लेने में ही कहीं शमशेर साईं की हत्या की गुत्थी उलझी हुई है क्या? उपन्यास इस सवाल के जवाब के लिए आपको पन्ने दर पन्ने उकसाता है।

स्त्रियाँ यहाँ अपने पूरे वैभव के  साथ हैं।  उनकी उपस्थिति को लेकर बहुत बातें की जा सकती हैं।  वे इस उपन्यास में  सशक्त किरदार निभाती हैं और प्रतिरोध और राजनीति की सिर्फ़ नजीर नहीं पेश करतीं हैं बल्कि प्रेम की गाथा में भी अगुआ बनी रहती हैं।  चाहे वो जसोदा हों जो आज बुज़ुर्ग हैं लेकिन जो हमेशा से जिद्दी रही हैं और  जिन्होंने युवावस्था के अपने प्रेमी लीलाधर साह से प्रेम का इज़हार करने से गुरेज नहीं किया कभी।  अलबत्ता प्रेम की परिणिति प्रेम की अमर प्राप्ति में नहीं होती।  जातीय संरचना यहाँ भी आड़े आती है।  लेकिन उत्साहजनक बात यह है कि शायद उनकी यही जिद उनके डी एन ए से होती हुई उनकी पड़पोती में प्रवाहित होती है, साहस बन।  पड़पोती-रेवती

लेकिन रेवती से पहले यहाँ ज़िक्र की हक़दार है अद्भुत रेशमा कलवारिन जिसकी उत्पत्ति उसके सामाजिक मान मर्दन को जन्म देने के लिये काफी है।  जिसे भोगने वाले उसकी जाति भूल कर उसे भोगते हैं फिर चाहे वे राजपूत हों या मुसलमान सरपंच अकरम अंसारी। उपन्यास इस बात को मजबूती से रेखांकित करता है कि स्त्री की मजबूरी या मन मर्ज़ी पर यदि जोर आज़माइश की जाए तो विस्फोट भी हो सकता है, जो प्रतिशोध से अधिक प्रतिरोध के सकारात्मक अस्मिता संघर्ष में तब्दील हो जाता है।  रेशमा कलवारिन के अन्दर जब धैर्य का तथाकथित मजबूर धागा चटकता है तो वह न सिर्फ अकरम अंसारी को शारीरिक सबक सिखाती है उसकी छाती पर चढ़ कर बल्कि स्त्री अस्मिता की अवधारणा के मूल फ़लसफ़े को भी ठीक से खोल कर बता देती है,”हरामी साला,…हमको रंडी बूझता है का रे?..जबर्दस्ती मेरे घर में घुसेगा?..साले, बिना मेरी मर्जी के तू मेरी अंगूरी तक नहीं छू सकता..। ”स्त्री निर्णायक भूमिका  में है यहाँ और यह उसका मौलिक अधिकार है।  रेशमा कलवारिन की मार्फ़त उपन्यास में सिस्टरहुड -बहनापे की ख़ूबसूरत संरचना की गयी है, जिसमें गुल बानो, मुन्नी बेगम, पतिया हजामिन,सब संगमिलात हो गाँव की युगों से चली आ रही सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य की संरचना ही पलट देती हैं।

 और अब रेवती की बात जो खुद मुखिया लीलाधर यादव के ताकतवर खानदान की वारिस है दलित मनोहर रजक से प्रेम कर बैठती है।  और रेवती की प्रेम कथा पुनः उस जातिगत बंधन को चुनौती देने वाली कथा साबित होती है जो पीढ़ियों पहले जसोदा ने भी झेली थी।  यह कैसी अभूतपूर्व त्रासदी है कि इस पेचीदा और चुनौतीपूर्ण जीवन में जब प्रेम को ही सभी बंधों से पार जा पृथ्वी को सिंचित करना था तभी उसकी तरलता को नष्ट कर, उसे अन्य सुविधाभोगी और व्यापार –विनिमय के कारोबार में उलझाकर  हम अपने जातिगत अहम् को तुष्ट कर सफलता का विजय गान गाते हैं..जो न सिर्फ फ़र्ज़ी है बल्कि बेहद असंतोष से भरा और फानी भी। तो फिर क्या राजनीति ही जीवन है,  ताकत ही सबकुछ।  और जिसे हम ब्राम्हणवादी व्यवस्था कहते हैं न, वही चोले बदलकर –बदलकर भारतीय समाज में अवतरित होती है और दीमक की तरह सभी सुन्दर बातों को चाटती चली जाती है।

यह क्रूरता है! उपन्यास यह कहता नहीं, मैं उसमें से यही ग्रहण करती हूँ।

लगभग 35-40 वर्षों के लेखन के बाद, हृषिकेश सुलभ अपना पहला उपन्यास शाया करते हैं और बिहार के बदलते हुए ज़िले सिवान को हमारे सामने ऐसे प्रस्तुत कर देते हैं जैसा वह है! यह कितनी सुन्दर बात है! रही बात कला की, तो नाटक लिखने वाले बहुआयामी लेखक के पास भाषा की जादूगरी तो है ही, चित्रण का जादू भी लाजवाब है। कला की बानगियाँ इसमें कूट-कूट कर भरी हैं।  उसका आस्वाद अप्रतिम है।

 दरअसल उपन्यास अग्निलीक,नोस्टाल्जिया का प्रतिपक्ष रचता है और भारतीय गाँवों की अनेक संवेदनशील धारणाओं को भंग करता है।  कथा –कहानी और स्मृति से घटते ग्रामीण जीवन के स्पेस को यह् नए सिरे से खंगालता है जिसकी आज बहुत ज़रूरत है।  यह प्रासंगिकता ही इसे लम्बा जीवन देने को प्रतिबद्ध करती है।

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‘अग्निलीक’ तथा ‘बिसात पर जुगनू’ उपन्यास का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन से हुआ है।

 

 

 

 

 

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