आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। इस मौक़े पर युवा लेखिका अनुकृति उपाध्याय का यह लेख पढ़िए- मॉडरेटर
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जब मेरा बेटा तीन या चार साल का था, हम अक्सर एक किताब पढ़ा करते थे – सालाना बाल कटाई दिवस। रंग-बिरंगी चित्र-पुस्तक थी और सरल सी कहानी – एक व्यक्ति साल भर अपने बाल नहीं कटवाता था । कटवाना दूर, कंघी-तेल भी कभी कभार ही करता था । उसके बाल बढ़ कर कन्धों के नीचे झूलने लगते, उनमें गुलझंट पड़ जाते, उनसे बास आने लगती। फिर साल में एक बार वह नाई की दुकान पर जाता और बाल छँटवा डालता। एक सालाना बाल कटाई दिवस से दूसरे तक वही पुराना बेपरवाही का सिलसिला चलता। मेरे बेटे को यह कहानी बड़ी दिलचस्प लगती। कहानी समाप्त होने पर वह तरह तरह के प्रश्न करता – वह आदमी साल भर बाल क्यों नहीं कटवाता, साल में एक ही दिन क्यों कटवाता था? पूरे साल बालों का ध्यान रखता तो बाल इतने झाड़-झंखाड़ होते ही नहीं न कि नाई को पेड़-पौधे काटने वाली कैंची से काटने पड़ें? क्या ऐसे लोग सच में होते हैं, वह पूछता, बड़े लोग भी इतने बुद्धू होते हैं ? वह छोटा था सो मैं उसे नहीं कह पाती कि दरअसल बड़े लोग ही इतने बुद्धू होते हैं।
विषय से अवांतर जाने के लिए क्षमा चाहती हूँ। यह आलेख महिला दिवस के उपलक्ष्य में लिखा जा रहा है, सो बात तो स्त्रियों के बारे में करनी थी और मैंने सालाना बाल कटाई का ज़िक्र छेड़ दिया । लेकिन बात शुरू करने से पहले इस दिन के नाम को ले कर मन में प्रश्न बिंध गए हैं जैसे बचपन में भटकटैया के पीले फूल तोड़ने के लिए बढे हाथ काँटों से छिद जाते थे। पहला प्रश्न तो यही कि हम इसे महिला दिवस क्यों कहते हैं ? स्त्री दिवस क्यों नहीं? अंग्रेज़ी में वूमन्स डे कहा जाता है, लेडीज़ डे नहीं , सो अनुवाद तो स्त्री दिवस ही होना चाहिए। हमें स्त्री दिवस कहने में अड़चन क्यों ? सड़कों-बसों-ट्रेनों में पिसती , खेतों-फैक्ट्रियों-दफ्तरों-घरों में खटतीं, भोगी जातीं, बच्चे जनतीं, पति से पिटतीं, घटतीं, छीजती औरतें स्त्रियाँ हैं , महिला कह कर एक झूठी औपचारिक सम्भ्रांतता ओढ़ना उनके जले पर नमक लगाना है। बात बात पर – प्यार में, तकरार में और राजनीतिक भाषणों में माँ -बहन-स्त्री-अंगों से जुडी गालियां देने में जब बिलकुल झिझका नहीं जाता, जब स्त्री-देह से प्रेम और स्त्री-देह पर अत्याचार के शब्द इस क़दर आपस में गड्डमड्ड हैं कि उन्हें अलग करना राई बीनने से ज़्यादा दुष्कर है और स्त्री से प्यार करना, उसे गाली देने से बस आवाज़ की उठान भर दूर है, तब स्त्री को महिला की पटोर से ढँकना कितना भदेस और अपमानजनक है इसका अंदाज़ लगाइए ।
ख़ैर प्रश्न तो द्रोणाचार्य की कुश घास की श्रृंखला हैं, एक से दूसरा जुड़ता चला जाता है, उत्तर ढूँढना, पाले वाले खेत में बच रहीं बालें ढूँढने जैसा कठिन है। स्त्री विषयक प्रश्नों के उत्तर साहित्य से ले कर मनोविज्ञान, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र में तलाशे गए हैं। बहुत से शोधार्थियों ने स्त्री की स्थिति पर आँकड़ेदार शोध किए हैं। उन विदवत्तापूर्ण लेखों में ढेरों स्त्री विषयक आंकड़े हैं – मसलन, दसवीं कक्षा तक पढ़ने वाली लड़कियों की संख्या, कामकाजी औरतों की संख्या में बढ़वार की दर, स्त्रियाँ की तनख्वाहें और पदोन्नतियों के आँकड़े, जच्चा-स्वास्थ्य और शिशु-जन्म में मरने वाली औरतों की दरें , देह-व्यापार से बचाई गई बच्चियों और तरुणियों की संख्या, बलात्कार के दर्ज़ मामलों की संख्या । सरकार या शोधार्थियों द्वारा जुटाए उन आँकड़ों में लेकिन मूलभूत, जिए जाते, सही जाते प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं ।
मसलन – विदर्भ के एक गाँव की सभी लड़कियाँ बस सातवीं -आठवीं तक ही पढ़ पाती हैं क्योंकि स्कूल में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं हैं और मासिक धर्म आने पर वे लड़के-लड़कियों के मिले-जुले शौचालय में जाने में शर्माती हैं। स्वतंत्रता के बरसों-बरस बाद ऐसा क्यों ?
मसलन – पूना में एक बड़े बैंक में काम करने वाले युवाओं से जब अपनी कामकाज-विषयक समस्याओं के बारे में पूछा गया तो अधिकतर स्त्रियां घर और दफ्तर की दुहरी ज़िम्मेदारियों से जूझने की चुनौतियों की बाबत कहती रहीं जबकि उनके सहकर्मी पुरुष नया काम करने की महत्वाकांक्षा, पदोन्नति, दूसरे देशों में काम के अवसरों के बारे में पूछते रहे। समान शिक्षा, समान आयु वाले इस समूह में ऐसा विभाजन क्यों ?
मसलन – खेतों में रोपाई करतीं, हल्दी-सी पीली, नितांत अनीमिक स्त्रियों को प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों में ख़ून बढ़ाने की दवाई नहीं दी जाती क्योंकि ख़ून की जाँच के लिए प्राथमिक चिकित्सा केंद्रों में साधन उपलब्ध नहीं हैं। स्त्रियों के लिए बेहद आवश्यक और मामूली रसायनों से होनी वाली इस जांच के। लिए चिकित्सा केंद्रों में कोई इंतज़ाम क्यों नहीं ?
मसलन – कलकत्त्ता के जच्चा-अस्पतालों में प्रसवपीड़ा से कराहती औरतों को नर्स और डॉक्टर दर्द से आराम वाली दवाएँ देने के बजाए घृणित गालियाँ और मार-पीट करते पाए गए। स्त्रियों के रोगों पर शोध क्यों विरल है और चुपचाप पीड़ा सहने को स्त्रियोचित क्यों माना जाता है ?
मसलन – कामकाज की जगहों पर यौन-शोषण के समाचार-सुर्ख़ी-भूषक मामले घोंघा-चाल से चल रहे हैं , दिग्गज आरोपी पूर्ण आयु पा मर गए हैं या किताबें लिख रहे हैं, पीड़िताओं पर मानहानि का दावा कर रहे हैं और सभाओं-समाज में आमंत्रित हैं । दूसरी ओर, पीड़िता स्त्रियों के जीवन ध्वस्त हो गए हैं। वे आक्षेपों और घृण्य इशारों से भरी बातों का शिकार हुई हैं। ऐसा क्यों?
मसलन – बलात्कार के लिए मृत्यु दंड नियत होने पर भी बलात्कारों की घटनाओं में कमी नहीं आई है। खेतों को जाती, स्कूलों और दफ्तरों से लौटतीं, घरों, रेस्त्राओं, सिनेमाघरों, सडकों, गलियों, बागों में बस होने भर से ही स्त्रियाँ हिंसा का शिकार हो रही हैं। उन्हें सांत्वना और समर्थन के बजाए देह ढँकने , पुरुषों से न मिलने, सार्वजनिक स्थानों से बचने, घरों में मुँदने, कभी न हँसने, आँखें झुकाने, अदृश्य हो जाने के उपदेश दिए जाते हैं। हिंसक के स्थान पर हिंसा-पीड़ित पर प्रतिबंध लगाने का यह चलन क्यों हैं ?
यदि आप कहें कि ये बहुत जटिल प्रश्न हैं , साल भर में एक दिन मनाए जाने वाले महिला दिवस पर इनके समाधान कैसे खोजे जा सकते हैं तो मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ। वाक़ई एक दिन में विश्व की आधी आबादी की समस्याएं कैसे सुलझ सकती हैं? एक दिन में तो उन पर सार्थक ढंग से बात भी नहीं हो सकती, न ही होनी चाहिए। ये बातें हर रोज़, साल भर, साल-दर-साल की जानी चाहिए, हर मंच, हर अवसर, हर घर में छिड़नी चाहिए, अपनी सुविधाओं और प्रिविलेजेज़ को स्वीकार कर, संस्कारों के उपदेशों और छिद्रान्वेषणों से उपराम हो कर होनी चाहिए। तलवार के घाव फूँक मारने से नहीं भरते, सदियों के दलन और शोषण की भरपाई एक दिन नियत कर देने से नहीं होती । अस्तु
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