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स्मृतिलोप का दौर: भविष्य की कविता: सुधांशु फ़िरदौस

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सबसे अंत में कवि बचता है, कविता बचती है। 28 फ़रवरी को आयोजित राजकमल स्थापना दिवस के आयोजन ‘भविष्य के स्वर’ में एक युवा कवि का वक्तव्य था, सुधांशु फ़िरदौस का। हम उनकी कविताओं में ऐसा खो जाते हैं कि यह भूल जाते हैं कि वे गणितज्ञ हैं, तकनीक के अच्छे जानकार हैं। उनके वक्तव्य ‘स्मृतिलोप का दौर: भविष्य की कविता’ में सब कुछ था। बहुत क़रीने से था। पूरा वक्तव्य यहाँ पढ़िए-  मॉडरेटर

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जिन्हें मां की याद नहीं आती
उन्हें मां की जगह किसकी याद आती है?
जिन्हें बहन की याद नहीं आती
उन्हें बहन की जगह किसकी याद आती है?
याद नहीं आती जिन अभागों को अपने बाबा की
उन्हें बाबा की जगह किसकी याद आती है?
बाजार
हिंसा
सताने वाली व्यवस्था
याद ही को नष्ट कर दे
अभी मैं मानने को तैयार नहीं इसे
यही है वजह
मैं पूछता हूं सबसे सब जगह
जिन्हें अपने गांव की याद नहीं आती
उन्हें गांव की जगह किसकी याद आती है?
• प्रभात
परिदृश्य भरा-भरा है. रोजमर्रा की मोर्चेबाजी थकाऊ और बोझिल है. हर तरफ अतिशय उत्पादकता- चाहे वह कविता लिखने की ही क्यों न हो, का हाहाकार है. ऐसे में सृजन शील मस्तिष्क में अधैर्य स्वाभाविक हो गया है. कुछ भी नया सृजित करने की संभावना न्यून से न्यूनतम होती जा रही है.
अब जो कुछ भी है वह समकाल में उलझे आदमी के क्रियाओं–प्रतिक्रियाओं का एक संजाल है. वक्ती दबाव और दुनियावी तनाव ने स्मृति को एक तरह से असम्बद्ध कर दिया है. विचार- शृंखला में मौजूद अनिरंतरता का इस Fractured Memory से कोई मैप नहीं हो पा रहा है.
कोई भी लड़ाई कोई भी संघर्ष स्मृति के बिना संभव नहीं है. जब याद ही नहीं रहेगा तो तो कोई उम्मीद भी नहीं रहेगी. धीरे-धीरे जीवन जीने की इच्छा का भी लोप होता जायेगा. नशे का प्रभाव और उसपर  निर्भरता बढ़ती जाएगी. अवसाद बढ़ जाएगा और वह विभिन्न तरह की हिंसा के माध्यम से अलग-अलग रूपों में प्रकट होगा.
स्मृति के बिना आदमी कला सौन्दर्य से विलग हो जायेगा. ऐसे संगीतहीन जीवन में भीड़ बनने की संभावना प्रबल होगी. अकेले में जो डरपोक और दब्बू होगा भीड़ या किसी सत्ता (चाहे वह धर्म जाति की ही क्यूँ न हो ) का सहारा पाकर आततायी में तब्दील हो जायेगा.
स्मृति बहुत हद तक क्रिया और प्रतिक्रिया के बिच एक बफर का काम करती है .स्मृति के लोप होने से आदमी  मैथ्मेटिकल और पोएटिक दोनों कल्पना से रहित हो जायेगा. ऐसी स्थिति में संवेदनशीलता बेतरतीब होगी .आदमी में भावनात्मक और तार्किक प्रतिरोध कम होगा. भीड़ आपके सोच विचार को नियंत्रण में ले लेगी और दुर्भाग्य यह आपको खुद को नियंत्रित करने की कोई इच्छा भी नहीं होगी.
बिखराव और विस्थापन ने हमें उन्मूलित कर दिया है. सब तरफ रफ्तार इतनी है कि ठहर कर सोचने का किसी को वक्त नहीं मिल पा रहा! एक प्रवाह है- नदी के सतह पर तेज पानी में बहते कटाव से गिरे पेड़, छप्पर आदि जैसा, सब अपनी निरंतरता में बिना किसी व्यवधान में  बहे चले  जा रहे  हैं. किसी को अंदर डूबने या गोते लगाने की फुर्सत नहीं है. न ही ऐसी कोई महत्वाकांक्षा, जिसमें आदमी ठहर  कर, ठिठक कर, प्रचलित से अलग कुछ सोचने का साहस कर सके.
निश्चित शब्दों, निश्चित अनुभवों, निश्चित चित्रों से गुजरने के कारण धीरे-धीरे हमारी अधिकांश स्मृति कुंद पड़ गयी है या यों कहें जैसे मृत हो गयी है. हमारा सोच और कल्पना का दायरा निश्चित कर दिया गया हो, जैसे एक चौहद्दी खींच दी गयी हो.
दुर्भाग्य यह है कि जो रफ़्तार में घिसटता या भागता चला जा रहा है वह अपनी मौत मर रहा है और जो रफ़्तार पकड़ने से छुट जा रहा वह अपनी मौत मर रहा है. मन और बाहर का कोलाहल किसी बिंदु पर कन्वर्ज  नहीं हो पा रहा है. इसलिए आदमी की हालत आखें तो कहीं दिलोदिमाग कहीं वाली हो गयी है.
हमारा नया परिवेश और विशेष परिस्थियों में पुराना परिवेश भी हमसे बिलकुल नए तरह से व्यवहार करने लगा है. कभी-कभी हम अपने परिवार, गाँव, समाज, संबंध, जिसमें हम बचपन से रहते आ रहे हैं, में भी रहते हुए धीरे-धीरे एलियेनेट हो जाते हैं.
बचपन का भूला हुआ कोई शब्द किसी के मुंह से सुनने पर हम इतने खुश हो जाते हैं कि लगता है हमारे स्मृति का कोई स्याह घेरा उस शब्द रूपी जुगनू से प्रकशित हो गया है. कोई धूल से सना जाल लगा हुआ साज बज उठा हो जैसे…कोई मृत कोशिका तरंगित हो गयी हो!
एक अघोषित शर्त है, एक सेल्फ सेंशरशिप है, जिसके लिए हमें अनुकूलित किया गया है .टेक्नोलोजी का जितना प्रभाव बढ़ेगा, हम उतना ही अनुकूलित होते जायेंगे, हमारा पूरा व्यवहार पैटर्न प्रेडिक्टेबल होते जाएगा. ऐसे वातानुकूलित परिवेश और व्यवहार में कैसी कविता संभव होगी, वह हम खुद तय कर सकते हैं!
पिछले दिनों जब नागरिकता संशोधन बिल संसद में पास हुआ हमने देखा राज्यसभा और लोकसभा में इतने संवेदनशील बिल को पास करते हुए सत्ता पक्ष के सांसदों की भावभंगिमा बहुत ही असंवेदनशील थी . उन्हें इस बात का कोई अहसास नहीं था कि वह जो करने जा रहे हैं, वह कितने लोगों के जीवन में क्या प्रभाव डालेगा!
हम मित्रों ने आपस में बात किया कि कैसे होगा! ऐसे तो नहीं चलेगा! यह संसद तो पूरी तरह निरंकुश हो गयी है और हमारी राजनीतिक चेतना को बिल्कुल ही हर फैसले को लादे जाने के लिए अनुकुलित किया जा रहा है. तो फिर सोचा गया कि इस पूरी राजनीतिक चेतना- सामाजिक चेतना को डिस्टर्ब करना होगा. लोगों को नींद से जगाना होगा. उनकी स्मृति में कुछ हस्तक्षेप करना होगा.
इस नींद से जगाने का नतीजा हुआ कि लोगों का रोजमर्रा प्रभावित हुआ. उनका कम्फर्ट जोन उलट पुलट गया . एक नया विमर्श सामने खड़ा हुआ और इस कम्फर्ट को डिस्टर्ब करने का परिणाम क्या हुआ हम देख रहे हैं. मैं इसके विवरण में नहीं जाऊँगा. इतना पता चलता है कि समाज एक दायरे से बाहर सोचने वालों पर बहुत ही हमलावर हो जाता है. यह कुछ- कुछ वैसा ही है कि ज़रूरत पड़ने पर किसी सोये व्यक्ति को जगा देने पर वह झल्ला जाता है.
तात्कालिकता और कविता से बहुत काम लेने की विवशता धीरे धीरे सृजनात्मक स्पेस को संकुचित करते जा रही है. इसलिए कविता के लिए भविष्य में फॉर्म के रूप में चुनौती बढ़ती जा रही है. इसमें दबाव प्रदत्त उछल-कूद की संभावना तो है, लेकिन कोई बड़ी उड़ान नहीं दिख पा रही है.
फिक्र में उलझे आदमी से एक मुद्दा छूटता है, तब तक दूसरा मुद्दा उसे अपने गिरफ्त में ले लेता है. ऐसी ऊब-डूब में कोई विचार लम्बे समय तक सोच का हिस्सा नहीं बन पाता है. ज़रूरी वक़्त तक जेहन से संगत नहीं कर पाने की वज़ह से विचार प्रक्रिया को स्मृति का अवलम्बन और यथोचित आधार नहीं मिल पा रहा है, जिससे वह एक व्यापक फैंटेसी का रूप नहीं ले पा रही है.
ऐसी स्थिति में आधे-अधूरे संक्रमित भाव विभिन्न रूपों प्रकट होते हैं .लोगों को अच्छे भी लगते हैं, सराहे भी जाते हैं. फिर कभी आप अकेले में सोचते हैं, यह वैसा तो नहीं जैसा मैंने सोचा था.
हिंसा चाहे वह किसी रूप में हो इतनी सहज हो गयी है कि आदमी खुद से ही आक्रांत हो हास्य और चुटकुलों की शरण में चला गया है. हर पल बनने वाले मीम इस वक्त के क्षणभंगुरता और भावनात्मक बदलावों को समझने के लिए बहुत ज़रूरी हैं. आदमी टेक्नोलोजी के प्रभाव में इतना क्षणजीवी हो गया है कि उसका आर्ट भी उसी अनुपात में क्षणिक होकर रह गया है.
आदमी ने खुद को अभियव्यक्त करने के लिए मीम का सहारा लेना शुरू कर दिया है. एक मीम आता है, कुछ ही पलों में दूसरा मीम भी चला आता है और इस तरह किसी मुद्दे पर मीम के ना खत्म होने वाला कारवां शुरू हो जाता है. हर नया मीम पुराने मीम का अपडेटेड वर्सन होता है. नए मीम के आते ही पुराने मीम की प्रासंगिकता खत्म हो जाती है. एक तरह से वह मृत हो जाता है. एक पल पहले जो मीम या वीडियो आपको हंसा रहा होता है, उत्तेजित कर रहा होता है,  अगले पल अपना असर खो देता है .
कविताओं के साथ भी अभी कुछ सालों से ऐसा ही शुरू होना शुरू हुआ है. दो चार दिन तक वह खूब वाइरल होती हैं . फिर लोग उनसे भी ऊबने लगते हैं .चेतना के विखण्डित होने से क्षणजीविता बढ़ी है. आदमी के जीवन में न कोई निरंतरता है, न ही उसके आर्ट में. फिर कविता कैसे इन चुनौतियों का सामना करे!
टूट फूट और खरोंच का सीधा असर हमारी स्मृति पर हो रहा है. स्मृति लोप और क्षीण इतिहास बोध ने हमें एक अँधेरे कुँए में ढकेल दिया है. यह एक ऐसा लूप है जिससे बाहर निकलने की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं दिख रही है. ऐसे में हर पल दृश्य और ध्वनियाँ पैदा होती हैं.  फिर प्रतिक्रिया में और तीव्र दृश्य और ध्वनियाँ पैदा होती हैं. ध्वनि- प्रतिध्वनि दृश्य-प्रतिदृश्य ने चेतना को युद्ध के मैदान में बदल दिया है.
हम इस अंधे युग के अश्वत्थामा की तरह टूटे बिखड़े, मनुष्यता के भग्नावशेषों के बीच भटक रहे हैं. कहीं कोई बिंदु नहीं दिखता, जिसे केंद्र बिंदु मानकर अपनी स्थिति का अनुमान किया जाय. किधर से आये हैं, किधर स्थित हैं और किधर को जाना है! ऐसी स्थिति में स्मृति भी कोई सहारा नहीं दे रही! मैं लोगों से मिलता हूँ. उनके पास कोई स्मृति नहीं है. स्मृति नहीं होने से जातीय चेतना नहीं है. कोई किस्सा- कहानी नहीं है. कोई त्याग और शहादत नहीं है. अब लोग भीड़ में तब्दील हो गए हैं. मनुष्य बिल्कुल एक मशीन की तरह व्यवहार करने लगा है, क्योंकि उसकी स्मृति की जगह व्हाट्सएप, फेसबुक, अख़बार, मीडिया ने तमाम तरह के मेसेज भर दिए गए है. उसका मस्तिष्क तमाम तरह के झूठ और विभ्रमों से ठसाठस भरा है,अब ऐसे में उसपर कविता कितना असर करेगी यह चिंता का विषय है!
पुरानी घिसी पीटी शब्दावली भी हमारे स्मृति के आयाम को संकुचित कर रही है . जिससे सोच  को  नए चैलेंज से लड़ने के लिए पर्याप्त  वैचारिक धार नहीं मिल पा रहा है . जैसे दिल्ली में हो रही हिंसा राज्य द्वारा प्रायोजित एक नरसंहार है, लेकिन हम अभी भी पुराने शब्दों दंगा, कम्युनल टेंसन इन्हीं में उलझे हुए हैं. पुराने शब्दों के इस्तेमाल से स्मृति पर कोई जोर नहीं  पड़ता है. बड़ी से बड़ी घटना पुरानी शब्दावली की वज़ह से बेअसर रह जाती है. कविता के साथ भी बेअसर रह जाने का संकट गहरा रहा है.
क्या हमारे समकाल के फ़रेब और मक्कारियाँ, मानव मन की बहुस्तरीय जटिलताएँ और मनुष्यता की भीषण असफलताएँ, कविता की भाषा में दर्ज नहीं की जा सकतीं?
फिलहाल तो मैं इस समकाल की उधेड़बुन में उलझा भविष्य के लिए कुछ लिखने की तैयारी में हूँ. रोज़ कोशिश करता हूँ और लिख नहीं पाता!

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