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शिरीष कुमार मौर्य का नया कविता संग्रह राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है-रितुरैण। शिरीष जी मेरी पीढ़ी के उन कवियों में हैं जिनको आरम्भ से ही मैंने पढ़ा है और उनके भाव तथा कहन को बेहद पसंद करता आया हूँ। उनकी कविताओं का अपना ऋतु है अपने परिवर्तन है। दिल्ली की इस बरसात डूबी सुबह में डुबकर पढ़ने वाली कुछ कविताओं का आनंद लीजिए- मॉडरेटर
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रितुरैण-16
गए दिनों की बातें
कभी आने वाले दिनों की बातें होंगी
मैं ग्रीष्म में मिलूँगा
वर्षा इस वर्ष कम होगी
शरद से मैं कभी आया था
हेमन्त में मैं अभी रहा था
शिशिर मेरा घर है इन दिनों
वसंत को मैं सदा देखता रहा
बिना उसमें बसे
मेरे रितुरैण में
चैत्र मास
वसंत के अंत नहीं
ग्रीष्म के
आरंभ की तरह रहता है
ओ मेरी सुआ
इतना भर साथ देना
कि इस ग्रीष्म में मेरा रह पाना
रह पाने की तरह हो
जैसे कोई रहे
कुछ दिन अपनी ही किसी आँच में
बुख़ार में रह रहा है
न कहें लोग
***
रितुरैण – 17
मैं ऋतु का नाम नहीं लूँगा
एक दु:ख कहूँगा अपने शिवालिक का
मैं फूल का नाम नहीं लूँगा
एक रंग कहूँगा अपने शिवालिक का
मैं दृश्य के ब्यौरों में नहीं जाऊँगा
आप देखना कि मैं कहाँ जा पाया हूँ
कहाँ नहीं
हिमालय की छाँव में
शिवालिक होना मैं जानता हूँ
उस ऋतु में
जब धसकते ढलानों से
मिट्टी और पत्थर गिरते हैं मकानों पर
एक कवि चाहता था
कि शिवालिक की छाँव में कहीं
घर बना ले
उस घर पर
जब ऋतुओं का मलबा गिरे
तो कोई नेता
मुआवजा लेकर न आए
कविता में लिखे हिसाब
गुज़री ऋतुओं का
तो चक्र में कहीं कोई टीसता हुआ
वसंत न फँस जाए
किसी भाई को पुकारे कोई बहन
तो उसके स्वर की नदी
रेता बजरी के व्यापारियों से
बची रहे
भरी रहे जल से
चैत में हिमालय का हिम भर नहीं गलता
ससुराल में स्त्रियों का दिल भी जलता है
मेरे शिवालिक पर
दरअसल मुझे महीने का नाम भी नहीं लेना था
पर रवायत है रितुरैण की
चैत का नाम ले लेना चाहिए.
***
रितुरैण – 18
शिशिर में
बूढ़े और बीमार पक्षी मर जाते हैं
नई कोंपलें
झुलस जाती हैं पाले से
शिशिर में
शुरुआत और अख़ीर दोनों को
संभालना होता है
शिशिर की क्रूरता
ग्रीष्म में बेहतर समझी और समझायी
जा सकती है
इसे इस तरह समझिए कि
जब किसी भी तरह
घर नहीं बना पातीं अपने उत्तरजीवन के
ससुराली शिविर को
चैत में
विकट कलपते हृदय से
स्त्रियाँ गाती हैं
मायके के शिशिर को
***
रितुरैण -19
शिशिर आए तो
चोट-चपेट में टूटी
दर्द के मलबे में दबी
अपनी अस्थियों को समेटूँ
और धूप में तपाऊँ
कोई पूछे
तो बताऊँ हड़िके तता रहा हूँ यार घाम में
ऐेसा ही हो शिशिर का विस्तार
जीवन के
बचे-खुचे वर्षों तक
हो
पर ज़्यादा कुहरा न हो
अस्थियों को धूप का ताप मिले
दिल को
आस बँधे चैत की
ग्रीष्म का
आकाश मिले खुला
इच्छाओं को वन-सुग्गों सी
सामूहिक उड़ान मिले
गा पाऊँ
रितुरैण अपने किसी दर्द का
छटपटाता रहे जीवन सदा
इन्हीं विलक्षण
लक्षणाओं से बिंधा
ओ मेरी सुआ
***
रितुरैण-20
शिशिर के बीच
उम्र
अचानक बहुत-सी बीत जाती है
मेरी
कुछ शीत में
कुछ प्रतीक्षा में
मैं ढलता हूँ
पश्चिम में समय से पहले ही
लुढ़क जाता है
सूरज का गोला
और ऋतुओं से ज़्यादा
इस ऋतु में
वह लाल होता है
लिखने के बहुत देर बाद तक
गीली रहती है रोशनाई
वार्षिक चक्र में
ऐसी ऋतु एक बार आती है
जीवन चक्र में
वह आ सकती है
अनगिन बार
मैं जवान रहते-रहते
अब थकने लगा हूँ
इस शिशिर में
मेरी देह
प्रार्थना करती है
– मेरी आत्मा तक पहुँचे ऋतु
शीत की
मुझे कुछ बुढ़ापा दे
कनपटियों पर केश हों कुछ और श्वेत
चेहरे पर दाग़ हों
भीतर से दहने के
इस तरह
जो गरिमा
शिशिर
अभी मुझे देगा
उसे ही तो
गाएगी
मेरी आत्मा
चैत में
***
रितुरैण -21
मंगसीर को बेदख़ल कर जीवन में
पूस आया है
गुनगुनी धूप को बेदख़ल कर कोहरा
हेमन्त से शिशिर तक आने में
राजनीति कुछ और गिरी है
देश कुछ और घिरा है
नागपाश जिसे कहते हैं शिशिर की ही बात है
विकट कोहरे से भरी रात है
दिल
जो धड़कता है देर शाम
कौड़ा तापते
मैं टूटी पसलियों के पिंजर में
महसूस कर उसे
कुछ और लकड़ियाँ
आग में
डाल देता हूँ
अपनी आँच बढ़ाते हुए
मैं शिशिर के शीत को गए बरस की याद से
बेधता हूँ
चैत से आया आदमी
चैत में जा रहा होता है तो जाने के लिए
शिशिर में
जल रही आग ही एक राह होती है
कुछ लोग
उस आग से आए थे
दुनिया से गुज़र जाने के बाद
कविता में
आज भी उनकी विकल आहटें
आती हैं
बर्बरता के शिशिर से
मनुष्यता के चैत में जाती हैं
***
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