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‘एसिड पहले दिमाग में घुलता है तभी तो हाथ में आता है’

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छपाक एक ऐसी फ़िल्म है जिसको गम्भीर लोगों ने अपने विषय के लिए पसंद किया। हर फ़िल्म व्यवसायिक सफलता-असफलता के लिए बनाई नहीं जाती है बल्कि कुछ फ़िल्मों के निर्माण के पीछे वजह होती है किसी बड़ी समस्या के ऊपर ध्यान आकर्षित करना। ‘एसिड अटैक’ ऐसी ही एक गम्भीर बुराई है। इस फ़िल्म को देखकर एक टिप्पणी लिखी है निवेदिता सिंह ने जो लखनऊ में रहती हैं- मॉडरेटर

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छपाक के बहाने से समाज के एक स्याह पहलू को सामने लाने की कोशिश जिसे लोगों के दिल और दिमाग़ तक पहुँचना ज़रूरी है…
‘एसिड पहले दिमाग में घुलता है तभी तो हाथ में आता है’ फ़िल्म की यह लाइन न सिर्फ़ एसिड अटैक बल्कि किसी भी क्राइम को अंजाम देने के लिए सही जान पड़ती है। सच में किसी भी क्राइम का ख़्याल पहले दिमाग में ही आता है उसके बाद ही कोई अपराधी किसी अपराध को अंजाम तक पहुँचाता है।
कभी-कभी हमारे पास कहने के लिए बहुत कुछ होता है पर दिल के भीतर भावनाओं का ज्वार इतना तूफ़ान लिए होता है कि बात कहाँ से शुरू की जाए समझ नहीं आता। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है। छपाक के बहाने से जिन एसिड अटैक सर्वाइवर की कहानी बड़े पर्दे पर उतारी गई हैं उनसे हमारी कई सारी मुलाकात पर्दे के पीछे भी हुई है इसलिए मैं उनकी कहानी से कहीं भीतर तक जुड़ाव महसूस करती हूँ।  वैसे मैं इन लड़कियों को सर्वाइवर की बजाय फाइटर कहना शायद ज़्यादा पसंद करती हूँ क्योंकि जिस जज़्बे के साथ यह सब अपनी ज़िंदगी जी रही हैं उसके लिए बहुत हिम्मत चाहिए होती है। यह लड़कियाँ सिर्फ़ सर्वाइव नहीं कर रही हैं, होठों पर मुस्कुराहट लिए अपनी ज़िंदगी जी रही हैं बिल्कुल मेरी और आपकी तरह।
यह मेरा संस्मरण नहीं है इसलिए भावनाओं पर काबू करते हुए इस बात को यहीं रोकते हैं और चर्चा करते हैं फ़िल्म पर। असली हीरो फ़िल्म की डायरेक्टर मेघना गुलज़ार हैं जिन्होंने तलवार और राजी के बाद एक और रियल लाइफ स्टोरी को अपनी फ़िल्म के लिए चुना और वो भी ऐसा सब्जेक्ट जिसके विषय में अभी लोगों में बहुत कम अवेयरनेस है। इन फाइटर्स को रोज़गार देने और इनकी ज़िंदगी को बेहतर बनाने के लिए एक संस्था काम करती है और उसने देश के चार शहरों में कैफ़े खोला हुआ है पर इन कैफ़े के बारे में उसी के पड़ोस में रहने और नौकरी करने वालों को जानकारी नहीं हैं। कई बार एसिड अटैक की खबरें अख़बार में भी छपती हैं पर हम इस तरह पेज पलट देते हैं जैसे कोई सामान्य सी बात हो। इसलिए ऐसा विषय चुनना और उसके साथ न्याय कर पाना आसान काम नहीं है पर मेघना संवेदनशील डायरेक्टर हैं और उन्हें पता है कि बिना ज्यादा तामझाम के भी किस तरह से लोगों के दिल को छुआ जा सकता है और दिमाग को झकझोरा जा सकता है।
फ़िल्म की कहानी है दिल्ली के लक्ष्मी अग्रवाल की जो फ़िल्म में मालती बनी है और इस भूमिका को निभाया है फ़िल्म इंडस्ट्री की एक बेहद खूबसूरत और सशक्त अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने। सबसे पहले तो इस नॉन ग्लैमरस रोल के लिए हाँ कहने के लिए दीपिका की तारीफ़ की जानी चाहिए। ऐसे रोल के लिए बहुत हिम्मत चाहिए जब अपने प्रशंसकों के सामने आप एक जला हुआ चेहरा या समाज की नजरों से देखें तो बदसूरत क्योंकि उसकी नज़र में आज भी ख़ूबसूरती के पैमाने बहुत अलग हैं लेकर जाएँ। पर दीपिका ने यह हिम्मत दिखाई है और बख़ूबी दिखाई है क्योंकि फ़िल्म में मालती के रूप में देखते हुए एक बार भी यह एहसास नहीं होने पाता कि दीपिका हैं।
मालती भी सभी लड़कियों की तरह सपने देखने वाली एक उन्नीस साल की लड़की थी और सिंगर बनना चाहती थी पर बशीर खान ने न सिर्फ़ उसके चेहरे पर बल्कि उसके सपनों पर भी तेज़ाब डाल दिया। जो लड़की गायिका बनने का ख़्वाब देख रही थी उसने सपने में भी ऐसे चेहरे के बारे में नहीं सोचा होगा जो तेज़ाब ने उसे उम्रभर के लिए दे दिया था। मालती की ज़िंदगी एक अदद नौकरी खोजने और कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने में बीत रही थी पर उसका दिल कमजोर नहीं पड़ा था इसलिए उसने लड़ने की ठानी पर कोर्ट में तेज़ाब की बिक्री को बंद करने के लिए PIL डाली। इसी क्रम में उसकी मुलाकात होती है अमोल (विक्रांत मैसी जो पत्रकार की नौकरी छोड़ एसिड अटैक को रोकने के लिए एक NGO चलाता है) से और मधुरजीत सर्गी से जो न सिर्फ उसकी वकील है बल्कि उसकी कोशिश है कि किस तरह से केस को मजबूत किया जाए जिससे अपराधी को अधिक से अधिक सजा मिले और लोगों के मन में ऐसे जघन्य अपराध को लेकर डर पैदा हो। मालती इन दोनों का साथ पाकर फ़िर से हँसना सीखती है और आख़िरी दम तक लड़ती है। उसका मानना है कि एसिड ने उसके चेहरे पर हमला किया है मन से अभी भी वह वही है यानि उसके इरादे अभी भी पहले जैसे ही मजबूत है जिसकी बदौलत वह अपने पैरों पर खड़ी होकर अपनी माँ और बीमार भाई की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाती है। एसिड के ख़िलाफ़ किस तरह वह अपनी लड़ाई लड़ती है इसकी पूरी कहानी जानने के लिए आपको सिनेमाघर तक जाना पड़ेगा।
फ़िल्म के डायलॉग बेहद सिंपल और सधे हुए हैं जिसमें कहीं भी कोई बनावटीपन नजर नहीं आता है।  कुछ सीन फ़िल्म में ऐसे हैं जिसे देखकर आँखें ख़ुद ब खुद नम हो जाती हैं पर फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी पर थोड़ा और काम हो सकता था। फ़िल्म में मात्र दो गाने हैं जिसे लिखा है गुलज़ार साहब ने और संगीत दिया है शंकर, एहसान, लॉय ने।
फ़िल्म का सबसे सुखद पहलू यह है कि यह फ़िल्म मालती को बेचारी साबित नहीं करती है बल्कि लड़ते हुए भी मुस्कुराना सिखाती है। यह फ़िल्म आपके दिल को छूने के साथ ही विषय की गम्भीरता के बारे में भी बात करती है कि किस तरह से किसी की हँसती हुई जिंदगी पल भर में दर्द और तड़प में बदल जाती है । कुल मिलाकर यह एक मस्ट वॉच फ़िल्म है।

 

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