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अरूण देव के नए संग्रह ‘उत्तर पैग़म्बर’की कुछ कविताएँ

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अरूण देव ‘समालोचन’ वेब पत्रिका के समादृत संपादक हैं, लेकिन सबसे पहकले वे कवि हैं। इसी रूप में उनको लगभग दो दशक से जानता रहा हूँ। एक संवेदनशील कवि के रूप में। एक अंतराल के बाद उनका नया संग्रह आया है ‘उत्तर पैग़म्बर’राजकमल प्रकाशन से आई इस किताब की कुछ कविताओं का आनंद लीजिए- प्रभात रंजन

===========

उत्तर-पैग़म्बर
अरुण देव की कुछ कविताएँ
 
 
1)
पेपरवेट
 
उसका वज़न
काग़ज़ों को इधर–उधर बिखरने से रोकता है
 
भार से वह
काग़ज़ों को कुचलता नहीं कभी भी
 
ताक़त की यह भी एक नैतिकता है ।
 
 
 
 
२)
स्पर्श
 
मेरी आकांक्षा का पुष्प तुम्हें स्पर्श करने से पहले ही खिल गया है
 
 
टूट कर गिरने से पहले
तुम मुझे छू लो ।
 
 
 
 
३)
वे अभी व्यस्त हैं
जब गाँधी अहिंसा तराश रहे थे
अम्बेडकर गढ़ रहे थे मनुष्यता का विधान
भगत सिंह साहस, सच और स्वाध्याय से होते हुए
नास्तिकता तक चले आये थे
सुभाषचंद्र बोस ने खोज लिया था ख़ून से आज़ादी का रिश्ता
नेहरु निर्मित कर रहे थे शिक्षा और विज्ञान का घर
 
फ़तवों की कंटीली बाड़ के बीच
सैयद अहमद ख़ान ने तामीर की ज्ञान की मीनारें
 
तुम क्या कर रहे थे ?
 
तुम व्यस्त थे लिखने में एक ऐसा इतिहास
जहाँ नफ़रतों की एक बड़ी नदी थी
सिन्धु से भी बड़ी,
 
तुम तलाश रहे थे एक गोली, एक हत्यारा और एक राष्ट्रीय शोक !
 
 
 
4)
सुजान
सुजान कौन थी ?
प्रश्नपत्र में एक विकल्प वेश्या भी है
और उत्तर-पुस्तिकाएं इसी से भरी हैं
मैं पलटता हूँ हिंदी के सबसे बड़े आलोचक रामचन्द्र शुक्ल की किताब
और ठिठक जाता हूँ यह स्त्री यहाँ भी वेश्या ही कही गयी है
 
आखि़र कौन है सुजान ?
हमारे शब्दकोश में नर्तकियों, गायिकाओं के लिए क्या यही शब्द है ?
यह हिंदुस्तान में अट्ठारहवीं शताब्दी की शुरुआत थी
कलाओं का प्रिय मुग़ल-सम्राट नसीरुद्दीन मुहम्मद शाह का समय
जो ‘रंगीले’ के नाम से इतिहास में न जाने क्योंकर बदनाम हुआ ?
 
यह वही दरबार था जहाँ ध्रुपद और धमार की मर्दानी गायकी के बीच
नाज़ुक चंचल ‘ख़याल’ ने पंख फैलाये
संगत के लिए सितार और तबला बनाये गए
आनंदघन सुजान से इसी दरबार में प्रेम करते थे
प्रेम भी ऐसा जिसे समझने के लिए चाह के रंग में भीगा ह्रदय चाहिए
 
और सुजान !
जिसके सामने चन्द्रमा फीका पड़ जाता था
कमल मलिन हो जाते थे और अलंकार असहाय
उसका प्रेमी कवि यह कहते नहीं थकता
कि कैसे करूँ ज़िक्र कि दृष्टि चकित है और मति मंद पड़ गयी है
कहा जाता है कि दरबार की साज़िशों के शिकार होकर घनानंद वृन्दावन चले गए
वहां भी उन्हें ‘सुजान तुरकिनी का सेवक’ कहकर लज्जित किया जाता रहा
 
रक़ीबों के बीच सुजान अकेली रह गयी
वैरागी हो गए घनानंद
 
जिनके बीच कभी हार भी पहाड़ की तरह लगते थे
अब उनके बीच नदी, नाले, और जंगल थे
विरह के धुएं में घुटते हुए
पवन से सुजान के पैरों की धूल की याचना करती आनंदघन की कविताओं ने
अब उन्हें लिखना शुरू कर दिया था
प्रेम की पीर से आबाद हुई अट्ठारहवीं शताब्दी
पर यह समय कल्पना के उड़ान का न था
न ही ‘अति सूधो सनेह को मारग’ का था
 
अहमद शाह अब्दाली के घोड़ों ने कुचल दिया ‘ख़याल’
मारा गया रंगीला
और मारे गए वृन्दावन में घनानन्द
अंतिम कविता उन्होंने अपने रक्त से लिखी सुजान के लिए
 
आह ! हमारी हिंदी के पास ३०० साल पुराने उस प्रेम के लिए
न सम्मान है, न शब्द ।
 
 
 
 
5)
पराजित की दिनचर्या और उसकी सीख
 
मिलने से बचता हूँ
सामने पड़ने पर कतरा कर निकल जाता हूँ
 
लड़ने-झगड़ने का तो बिलकुल ही मन नहीं करता
हाँ भाई आप ही ठीक हैं
अब यहाँ से विदा लें
या मैं ही चला जाता हूँ
मैं आपके किसी मसरफ़ का नहीं रहा
चिड़िया ने तैयार किया है
घास-फूस-तिनकों से अपना घोंसला
उससे उमगते शिशुओं की चिंता रहती है
कहीं गिर न जाएँ
 
पूरा चन्द्रमा
काली रातों में चमकते तारे
जल से उठती सूरज की लालिमा
 
खींचती गंध के पीछे-पीछे उन लताओं तक पहुंच जाता हूँ
कुछ देर वहीँ मंडराता हूँ
जो मिल जाए खा लेता हूँ
पहन लेता हूँ
पौधों को पानी देता हूँ, फूलों पर पड़ी धूल साफ़ करता हूँ
 
किताबों के पन्ने पलटता हूँ
कोई अच्छी चीज़ मिलती है, डूब कर पढ़ता हूँ
जबरन नहीं पढ़ा जाता
हूँ, हाँ, करता हूँ
चुप रहता हूँ
 
काली चाय की चीनी कम करता जा रहा हूँ
 
सुबह टहलता हूँ
ख़ुद के साथ
 
एक रोज़ पेड़ के नीचे एक कच्चा आम मुझे मिला
मैं तो भूल ही गया था कि हर चीज़ खरीदी बेची नहीं जाती
अख़बार एकाध मिनट में पढ़ लेता हूँ
चैनलों को बदलता रहता हूँ
अतियों को सुनता हूँ
यह नशा आख़िर कब उतरेगा ?
 
कभी-कभी रात में नींद उचट जाती है
उठकर कोई बिसरी हुई भूल याद करता हूँ
उससे जुडी हुई बातें याद आती हैं
 
कहीं बाज़ार में ज़िन्दा शव घसीटा जा रहा है
पीछे-पीछे पत्थर फेंकता हुजूम है एक
 
कभी सपने में वह गली दिख जाती हैं जहाँ से गुज़रते हुए
किसी की धूप तन पर पड़ती थी
कोई पुराना गीत मन में बजता है
गूगल में उसे तलाशता हूँ
 
पर वहाँ उसे सुनना अच्छा नहीं लगता
 
बच्चे जब कोई प्रश्न करते हैं, ख़ुश होता हूँ
प्रश्न अभी बचे हैं
और किये जा रहें हैं
 
उनसे कहता हूँ संशय रखो
दूसरे पक्ष की ओर से भी सोचो I
 
 
 
 
 
६)
मिलना
 
मिलना तो पानी की तरह मिलना
 
जल जब शीत से मिलता है
ओस बन जाता है
चमकता हुआ हरे पत्ते पर सूरज की पहली किरण के लिए
कि इस चमक में कहाँ जल है, किसकी रश्मियाँ और कहाँ शीत
 
शब्दों से अर्थ मिलते हैं पर गिर नहीं जाती उनकी ध्वनियाँ
शहद अपनी मिठास में घुलता जाता है
पहले तो वह फूल में घुलता है फिर पराग में फिर गुंजार में
 
लय से नृत्य मिलता है और दोनों बचे रहते हैं एक होने के उत्कर्ष पर
जैसे देह पर उसका नमक
 
उच्चरित जब कंठ में घुलता है
एक नदी बह निकलती है पत्थरों को तराशती हुई
 
धूप में रहती है गर्माहट
चाँदनी में शालीनता
पूर्णिमा पूर्णता का संतुलन है
अमावस अपने को खो देने की गरिमा
 
मिलना तब जब कोई उम्मीद न हो कोई
आहट भी नहीं
उदास स्त्री को मिले उसका व्यतीत प्रेम
प्रेम को मिले उसकी आतुरता
 
आकर्षण में कुछ इस तरह घुल जाए कामुकता कि मिलना
पिघल जाना हो
 
चेहरे पर जैसे आभा
दाँतों पर रुकी हुई हँसी
होंठों पर चुप्पी की सिलवटें
 
प्रेमियों के मिलने के बाद भी
बची रह गयी उत्कंठा
 
मनुष्य में न मिलना क्रूरता और कपट की तरह
 
मिलना प्रकाश की तरह कि जिससे वह मिले
उसका होना और दिखे ।
 
 
 
7)
बहुमत (एक)
 
हम बहुमत का सम्मान करते हैं
अल्पमत कृपया बहुमत आने तक शांत रहें
 
बहुमत !
 
बहुमत !
 
बहु मत !
 
 
 
8)
बहुमत – (दो)
 
जो बहुमत के साथ नहीं हैं
कृपया यहाँ से प्रस्थान करें
करें प्रस्थान
 
जाओ यहाँ से
 
करोगे राष्ट्र का अपमान
 
बे ?
 
 
 
 
9)
बहुमत – (तीन)
 
एकमत इसपर एकमत हैं कि अब वे बहुमत में हैं
वे हर जगह हैं
यहाँ तक कि सुबह की सैर को निकले ढलती उम्र के थके घुटनों में भी
बातें कीजिये मत जानकर
डपट जाने का डर है
 
गली से गुज़रते हुए बहुत से एकमत देखते हैं आपको
फुसफुसाते हैं
फिर हँसते हैं
 
चौराहे पर तो रास्तों का मतान्तर है
ट्रैफिक पुलिस ने हाथ से इशारे करते हुए हुड़का
दाएं बाजू से निकलो
 
सभा में पीछे की ओर चुप बैठ सुन रहा था एकमत की दहाड़
 
आप ताली नहीं बजा रहे हैं
एक कार्यकर्ता ने चेतावनी दी
 
एक अल्प का पीछा करते तमाम एक
भोज भात में यह किसके साथ खड़ा था
इसके घर कितनी बार अल्पमत की डोर-बेल बजती है
यह जो किताब इसने खरीदी है
पता करो इसका कौन है लेखक ?
मुनादी फिर रिक्शे पर बज रही है
न जाने ज़िल्ले-इलाही क्या नया पैगाम देंगे ।
 
 
 

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