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प्रवीण कुमार झा की पुस्तक ‘वाह उस्ताद’का एक रोचक अंश

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प्रवीण कुमार झा की नई किताब आई है ‘वाह उस्ताद’, जिसमें हिंदुस्तानी संगीत घरानों के क़िस्से हैं। हिंदी में इस तरह की किताबें कम लिखी गई हैं जिनमें शास्त्रीय संगीत के प्रति आम पाठकों में भी रूचि जागृत करने की कोशिश की गई हो। राजपाल एंड संज से आई यह किताब उस कमी को काफ़ी हद तक दूर करने का प्रयास करती है। फ़िलहाल आप अंश पढ़िए- मॉडरेटर

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निसार हुसैन ख़ान साहब कमाल के उस्ताद थे। एक बार वह ट्रेन पर बिना टिकट सफर कर रहे थे, तो नीचे उतार दिए गए। उनके रियाज का वक्त था। वहीं हाथ कान पर लगाया और प्लैटफॉर्म पर ही गाने लगे। उन्हें सुन कर कई यात्री मंत्र-मुग्ध होकर ट्रेन से उतर गए। कोयले गाड़ी की इंजन की आवाज, और सीटी को चीरती उस्ताद की तान। यही तो है ‘कड़क बिजली’ तान। आखिर गार्ड को उन्हें भी ट्रेन पर चढ़ाना पड़ा, तभी ट्रेन चली।

वह गवर्नर जनरल के पास कलकत्ता पहुँचे, तो लाट साहब ने कहा- कुछ सुनाइए। उन्होंने राग बड़ा हंस सारंग में उनका राष्ट्रीय गीत गाना शुरु किया,

“गॉड सेव आवर ग्रेसियस क्वीन/ लॉन्ग लिव द क्वीन”

यह पहली बार था कि हिंदुस्तानी राग पर यह गीत बाँधा गया।

यह गाने के बाद उन्होंने कहा, “हज़ूर, इजाजत हो तो एक अपने मन की सुनाऊँ?”

लाट साहब ने कहा, “हाँ हाँ! सुनाओ।”

उन्होंने रेलवे की सीटी और इंजन के साथ तालबद्ध तराना गा दिया। यह उस जमाने का ‘फ़्यूजन म्यूज़िक’ था।

गवर्नर खुश हो गए और पूछा, “टुमको क्या ईनाम चाहिए? बोलो”

उस्ताद ने कहा, “हजूर! आपके अफसर मुझे ट्रेन से उतार देते हैं। आप एक पास बनवा दो कि देश भर घूमूँ और कोई कहीं टिकट न पूछे।”

उन्हें फिर कभी टिकट की जरूरत नहीं पड़ी।

निसार हुसैन साहब से सीख कर मराठा पंडित परिवार तो ग्वालियर में ही बस गया, लेकिन एक मराठी, नंगे पाँव महाराष्ट्र से चल कर आए और जब लौटे तो पूरे महाराष्ट्र में ऐसी जोत जलाई कि आज तक प्रज्ज्वलित है। वह थे- बालकृष्णबुवा इचलकरंजीकर। उनकी शुरुआत भी कुछ ऐसे हुई जैसे कभी गांधी की दक्षिण अफ्रीका में हुई थी। यह भिक्षुक ब्राह्मण जब ग्वालियर में एक गुरु के घर नौकर बन कर रहे, तो एक दिन गुरु की पत्नी ने कुपित होकर उनकी गठरी बाहर फेंक दी और कहा,

“निकाल बाहर करो इसे घर से। इसकी सूरत मुझे बिल्कुल नहीं भाती।”

उस वक्त तो उन्हें लगा कि आत्महत्या कर लें, लेकिन स्वयं को संभाला। घनी सफेद मूँछों और पेशवा पगड़ी में इनकी इकलौती तस्वीर जब देखता हूँ, उनकी आँखों में जैसे हिंदुस्तानी संगीत के इतिहास से वर्तमान तक सामने घूम जाता है। सड़क पर बेघर होकर पड़े रहना बालकृष्णबुवा के लिए बड़ी बात न थी। वह तो भिखारियों के परिवार से ही आए थे। उनकी चिंता तो यह थी कि अगला गुरु कहाँ मिलेगा? आखिर उन्हें हद्दू ख़ान के शिष्य वासुदेव राव जोशी मिले, जो उनके गुरु बनने को राजी हुए। उनके घर में सुबह चार बजे से आठ बजे रियाज और बाकी पूरे दिन नौकरों की तरह काम करना होता। भगवान् ने उनकी इस कठिन तपस्या का आखिर वरदान दिया।

उदयपुर में देश भर से संगीतकार ऐसे इकट्ठे हुए थे जैसे आज-कल डोवर लेन या सप्तक सम्मेलनों में होते हैं। आखिर युवा बंदे अली ख़ान जैसे बीनकार (रुद्रवीणा वादक) का विवाह था, वह भी ग्वालियर के राजगायक हद्दू ख़ान की बेटी से। बंदे अली ख़ान डागरों के पहले गुरु बहराम ख़ान के भांजे भी थे, तो यहाँ जितने खयालिए आए, उतने ही ध्रुपदिए भी। हद्दू ख़ान के बेटे छोटे मुहम्मद ख़ान मंच पर आए, तो उनके पीछे तानपुरा पकड़ कर दो मराठी गायक बैठे थे। जब छोटे मुहम्मद ने तान लिया, तो उन्होंने भी पीछे से साथ दिया।

“यह कौन लड़का है? यह तो कमाल का गाता है।” हद्दू ख़ान ने पूछा।

“अब्बा! यह वासुदेव राव का शागिर्द बालकृष्ण है।” छोटे मुहम्मद ख़ान ने कहा।

“वाह! फिर तो यह मेरा ही पोता है।”

इतने में एक समधी ने चुटकी ली, “आपका पोता कुछ अकेले गाए तभी तो समझें कि इसमें दम है या नहीं।”

बस, फिर क्या था? बालकृष्णबुवा को गाने कहा गया और उन्होंने गाना शुरु किया। गाना खत्म होते ही हद्दू ख़ान खड़े हो गए और गले मिल कर कहा,

“एक दिन यही लड़का मेरे घराने का नाम दुनिया में रोशन करेगा!”

हद्दू ख़ान की बात पत्थर की लकीर निकली। बालकृष्णबुवा ऐसे गायक रहे जिनकी एक बुराई कहीं नहीं मिलेगी। देवास में एक तुनकमिजाजी गायक हुए रज़ब अली ख़ान, जिनसे सबकी बुराई ही निकलती।  उन्होंने भी कहा, “हिन्दुओं ने बस एक काबिल गायक पैदा किया- बालकृष्णबुवा!”

बालकृष्णबुवा को एक बार पटियाला दरबार से न्यौता आया। पटियाला में उस वक्त हद्दू ख़ान के शिष्य अली बख़्श (आलिया-फत्तू में से एक) हुआ करते, जिनकी पंजाबी बुलंद आवाज का सिक्का पूरे देश में जमा था। वह किसी को खुद से बड़ा नहीं समझते थे। उस समय उनकी उम्र 77 वर्ष थी। बालकृष्णबुवा भी हद्दू ख़ान के शिष्य थे, तो गुरुभाई ही हुए। दरबार में अली बख़्श मसनद पर अपना भारी-भरकम शरीर टिकाए लेटे थे। सूर्यास्त में कुछ समय शेष था तो बालकृष्णबुवा ने पुरिया की बंदिश गायी,

“कगवा बोले बोल अटरिया/ अटरिया सुकुन भइलवा/ सखी री! मोर भुज फड़कन लागे,

आवन करो तुम मोर पियरवा/डारु गले फुलन के हरवा/सखी री उन पर तन-मन वारूँ।”

इस बंदिश के बाद उन्होंने दरबारी की बंदिश ‘तू ऐसो है करीम’ गाकर दरबार में माहौल बना दिया। अली बख़्श ने एक और बंदिश गाने का इशारा किया। बालकृष्णबुवा ने गति बढ़ाते हुए द्रुत में भूपत ख़ान (मनरंग) की बंदिश गायी,

“नैन सो नैन मिलाए रहो जी/हो मनवा मोरा चाहत तुमसो बलमवा;

सगरी रतिया तू तो प्यारे/रहिलो काहू सौतन के धाम/‘मनरंग’ पिया कहत प्यारे/हो मनवा मोरा चाहत तुमसो बलमवा ।।”

अली बख़्श खुश हो गए और महाराज मोहिन्दर सिंह की ओर मुख़ातिब होकर कहा,

“महाराज! आपकी मुझसे शिकायत रही है कि मैं किसी की तारीफ़ नहीं करता। सच तो यह है कि नई पुश्त में मुझे कोई ढंग का फ़नकार मिला ही नहीं। मुझे तो लगा कि ख़याल गायकी खत्म हो गयी। लेकिन आज एक फ़नकार आपके सामने है – बालकृष्णबुवा। यही मौसिक़ी आगे ले जाएगा।”

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