कल पुस्तक मेले में युवा लेखक चंदन पाण्डेय के पहले उपन्यास ‘वैधानिक गल्प’ के लोकार्पण का कार्यक्रम है। इस उपन्यास के बारे में अलग से मैं बाद में लिखूँगा, फ़िलहाल आप इसका एक अंश पढ़िए- मॉडरेटर
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घर में प्रवेश करने के लिए ओसारे और दालान से गुजरना था. उसके पार आँगन था. ओसारे से दालान और दालान से आँगन की ओर खुलते दरवाजे एक सीध में थे. यहाँ दरवाजे पर कदम रखते हुए देखा, आँगन में तमाम महिलायें थी और दीवाल से टिक कर एक महिला बेसुध सी बैठी हुई थी. मुझे भीतर आते हुए उसने देखा और शायद इसलिए कि उनकी बेबसी और लाचारी को एक अजनबी द्वारा इस कदर नजदीक से देख जाना उनसे संभल नहीं पाया होगा कि जब उन्होंने मुझे देखते हुए देखा तब उनकी आँखों में आंसू साफ़ साफ़ झलक रहे थे.
हम पाँच पुरुषों को अंदर आता देख चुपचाप बैठी वह स्त्रियाँ, जो इसी सूरत में बैठी थीं जैसे मातम के वक्त बैठा जाता है, संभल गई. कोई कुर्सी लाने के लिए बाहर जाना चाहता था, मैंने मना किया और हम सब उसी बड़ी तिरपाल पर बैठ गए जिस पर सभी स्त्रियाँ बैठी थीं.
सिपाहियों को कमरे की खानातलाशी लेते देख कर लगा कि इधर से दाहिनी तरफ जो कमरा दिख रहा है वही जानकी का कमरा रहा होगा. उस कमरे के बारे में पुलिसियों से जुड़ा यह दृश्य खासा खराब था इसलिए जब दूसरी कोई पहचान देने के लिए ध्यान से देखा तो पाया कि उस कमरे के दरवाजे से ठीक ऊपर, कोई दो फीट की ऊँचाई पर, मुक्तिबोध की वह मशहूर तस्वीर टंगी थी. तस्वीर के दाहिने हिस्से में मुक्तिबोध थे और उनकी बीड़ी और सुलगाने का प्रयत्न इतना जीवंत बन पड़ा था, जैसे अब सुलगी कि तब सुलगी. बायीं तरफ उनकी कविता की कुछ पंक्तियाँ काले स्केच के स्ट्रोक से रची गई थीं:
‘अहंकार समझो या
सुपीरियरिटी काम्प्लेक्स
अथवा कुछ ऐसा ही मान लो,
लेकिन सच है यह
जीवन की तथाकथित
सफलता को पाने की
हमको फुर्सत नहीं,
खाली नहीं हम लोग!!
बहुत बिजी हैं हम.’
आँगन का बारजा छोटा था शायद इसलिए पानी की बौछारों ने आख़िरी पंक्ति ‘बहुत बिजी हैं हम’ को मिटाने का भर दम प्रयास किया था लेकिन वह पंक्ति साबूत थी. दाईं तरफ मुक्तिबोध का चित्र जहाँ खत्म हो रहा था, वहाँ कुछ लिखा था. पोस्टर बनाने वाले का नाम, शायद. इतने छोटे छोटे दो अक्षरों में वह नाम लिखा था कि देख पाना मुश्किल था. नाम में प्रयुक्त दूसरी लकीर को ‘ब्रश’ के अंदाज में उकेरा गया था.
आँगन में हरे रंग का एक चापाकल था जिसकी मूठ घिस गई थी. वहाँ बर्तन रखे थे जो हो सकता है मांजे जाने के लिए रखे हों. दूसरी तरफ सिंगर कंपनी का सिलाई मशीन रखा हुआ था. उस पर ढेरो कपडे लादे गए थे. उन कपड़ों के बीच से एक पुस्तक झाँक रही थी. किताब का रंग जाना पहचाना लग रहा था. मटमैला लेकिन सफेद. ऑफ़ व्हाईट. सन्नाटा बर्दाश्त से बाहर हो रहा था इसलिए मैं उठा और उस किताब को पलटना चाहा.
किताब को देखते ही मेरे मुँह से पहले जो उदगार निकले वह यही थे, हू ब हू यही: ओ माय गॉड! प्रश्न का जवाब मेरे पास लगभग था लेकिन फिर भी वह प्रश्न, उत्साहातिरेक में उच्चारित हो ही गया: इसे कौन पढता है?
एक बच्ची ने जवाब दिया: ‘रुक्खी दी.’
‘तुम उनकी बहन हो?’
‘हाँ.’
‘उनकी कोई तस्वीर देख सकता हूँ?’
यह रादुगा प्रकाशन की पुरानी किताबों में से एक थी. अब तो इसका मिलना भी मुश्किल होगा. माय्कोवेयेस्की की कविताओं का दूसरा खंड. मेरे पास दोनों खंड थे लेकिन उनमें से एक भी मैं आजतक पढ़ नहीं सका था. रादुगा ने माय्कोवेयेस्की की लम्बी कविताओं को इस दूसरे खंड में रखा था. किताब के पहले पन्ने पर, जो कि तख्ती वाले कवर से जुड़ा था उस पर माय्कोवेयेस्की का ढीला ढाला एक स्केच उकेरा गया था. नीचे में हस्ताक्षर के शिल्प में ‘रफीक नील’ लिखा हुआ था. यह धुनी आदमी एक पूरी पीढी तैयार कर रहा है, उस वक्त मैं बस इतना ही सोच पाया. लेकिन जगदीश और मुकेश मुझ तक आ गए थे. जगदीश चुप रहा, मुकेश ने बताया: ‘रफीक सर हर महीने एक किताब पढने का काम दिया करते थे. इस किताब का पहला खंड सर ने मुझे दिया था. महीने के आख़िरी सोमवार को, शहर-बाजार की साप्ताहिक छुट्टी रहती है, उस दिन गोष्ठी में सबको उस किताब, उस कविता या जो भी रचना हो, उस पर बोलना पड़ता है. सबसे मुश्किल किताब इस महीने कुशलपाल के लिए है.’ इसे आख़िरी वाक्य को कहते हुए किताब का नाम बताये बिना वह ज़रा हंसा. निर्दोष हंसीं.
मैंने धीरे से उसके कान में कहा: ‘थे नहीं, हैं.’
हम सबकी आवाज सुनकर उन सिपाहियों में से एक बाहर आ गया. वही था, कल जो तीसरा सिपाही मिला था, यह वही था. मुझे देख कर बहुत खुश हुआ या शायद खुश होने का सफल अभिनय किया. क्योंकि मेरा अभिवादन करते हुए उसने वह किताब मेरे हाथ से ले ली थी. बताया: ‘तलाशी.’ मेरे पास कल के अपमान से अलग याद करने के लिए कुछ भी नहीं था इसलिए मैंने जाते हुए उस सिपाही से कहा: ‘कविता की किताब है.’ उसने बिना पीछे देखे ही हुंकारी भरी थी.
उसकी बहन ने अपना नाम मैथिली बताया और आठ दस तस्वीरों का बंडल मेरे हाथ में रख दिया. कल जो अखबार में जानकी की तस्वीर दिखी थी उससे कहीं बेहतर तेज उसकी इन तस्वीरों से झलक रहा था.
मैथिली ने जब भोजन करने का आग्रह किया तब हमारा ध्यान घड़ी की तरफ गया. घड़ी सवा बजा चुकी थी.
मैंने सोचा बहुत था लेकिन जानकी की माँ से आँख नहीं मिला पा रहा था. मैं उन्हें जानता नहीं था लेकिन यह जो वज्र उन पर टूटा है उसे समझ सकता था. उस समझ सकने से मिली हिम्मत के मार्फ़त ही कुछ कहना चाहता था लेकिन बोल नहीं फूट रहे थे. वह भी मुझे नहीं जानती थी लेकिन मुझे और साथियों को बारम्बार देख रही थीं. जानकी के पिता से अलग ये चुप थीं. जो कुछ भी कहना था इनकी पथराई आँखें कह रही थीं. आँखों के उन कोयों को देख कर लग रहा था कि आँसू सूख चुके होंगे. लेकिन मैं और सही हो जाऊं! यह इस जीवन में नहीं होना था.
चलने से पहले कुछ न कह पाने की स्थिति के कारण उनके पैर छूने लगा. लेकिन! ओह! लेकिन के आगे का बयान माओं के संदर्भ में कैसे किया जाए. उलटा वे ही मेरे पैरों पर गिर पड़ीं, वह रुलाई ! भूलने के विरुद्ध थी वह रुलाई. बैठे बठे उन्होंने अपना सिर इतनी तेजी से पटका कि जमीन से टकराने की आवाज आई. मैंने शिष्टाचार बस अगर पैर न हटाए होते तो उन्हें कम चोट आती. चोट वैसे यहाँ दूसरी बड़ी बात थी. उनकी रुलाई ने सब के बाँध तोड़ दिए. वह एक ही लकार में रोए जा रही थीं और मुझसे, हाँ, मुझसे कहे जा रही थीं: ‘हमरी बहिनी के खोजिs दs ए बाबू. हमरी बहिनी के बोलाs दs.’ उस आँगन में मौजूद हर शख्स रो रहा था. जगदीश और नीरज एक दूसरे के कंधे पर लग कर रो रहे थे. मुकेश दीवाल से लग कर रोये जा रहा था. महिलायें अपने आंचल से अपनी आखों को ढांप रही थी. रोती हुई माँ को रोती हुई मैथिली संभाले हुए थी. मैं सबको चुप कराना चाहता था लेकिन मेरा गला भर्राया हुआ था.
इस सामूहिक रुदन ने हमें एक कर दिया.
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