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गंगा प्रसाद विमल की कविताओं पर सुधा उपाध्याय का लेख

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हिंदी के वरिष्ठ लेखक-कवि गंगा प्रसाद विमल का हाल में ही एक दुर्घटना में निधन हो गया। युवा कवयित्री सुधा उपाध्याय ने उनकी कविताओं पर एक लेख लिखा है। आप भी पढ़ सकते हैं- मॉडरेटर

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विस्थापन से बड़ा दु:ख नहीं

कविता में अपनी रचनात्मकता से अलग स्थान बनाने वाले हमारे समय के बड़े कवि गंगाप्रसाद विमल के नए कविता संग्रह खबरें और अन्य कविताएंको पढ़ते हुए दुर्लभ अनुभवों से साक्षात्कार होता है। इस संग्रह में विस्थापन से जुड़ी हुई पांच कविताएं हैं। अनुभव का व्यापक संसार समेटे वरिष्ठ कवि विमल जी की ये पांच कविताएं विस्थापन पर लिखे गए तमाम साहित्य से सीधे टक्कर लेती है। दरअसल ये पांच कविताएं आपस में इतनी जुड़ी और कसी हैं कि इनकी खासियत एक दूसरे के साथ मिलकर बड़ा अर्थ देती है। ये कविताएं एक कहानी की तरह हैं। ज़ाहिर है विस्थापन का सबसे बड़ा सच देश ने 1947 में देखा है और उसका घाव आज भी उतना ही हरा है जितना तब था। ऐसा नहीं है कि समय के साथ इसका दर्द कम हो गया। विस्थापन के उस इतिहास को आज के समय से जोड़ते हुए विमल जी की ये कविताएं बहुत कुछ नया कहती हैं। इतिहास और परंपरा का निर्वाह करती विस्थान पर लिखी पहली कविता की ये पंक्तियां देखिए….उन्हें धुर बचपन में/जैसा देखा हो मैंने दु:स्वप्न/उसी का विस्तार था वह एक पल/शायद पल-भर की दहशत/पूरे जीवन पर तारी थी/….. यह सच है जिसने विस्थापन का दर्द सहा है इसकी असलियत वही जानते हैं। विस्थापन सिर्फ स्थान परिवर्तन को नहीं कहा जाता। बल्कि विस्थापन तो उस पूरी संवेदना के साथ छेड़छाड़ है, उन तमाम सपनों के साथ खिलवाड़ है जिसे हर कोई देखता है। कहते हैं जब कोई बच्चा पैदा होता है तो दरअसल वो होता तो अकेला है पर उसके साथ उसका घर परिवार, समाज, आस पड़ोस भी होता हैं। इसलिए विस्थापन के बाद न सिर्फ स्थान बदलता है बल्कि वो सारे सूत्र एक झटके में टूट जाते हैं जिसकी टीस लगातार बढ़ती जाती है। उनकी ज़िंदगी एक अभिशाप है जो दिन ब दिन भारी होती जाती है।…..वे लाए थे कथाएँ/ऑसुओं में डूबे वृत्तांत/वे हत्याओं से नहीं डरे/बस उस खौफ से/जो बेवतन कर/एक शाख को काट/छोड़ देता है बंजर/छोड़ देता है बंजर/बनने के लिए धरती /वे अब कथाओं में हैं/वृत्तांत में/अब बस/कथाओं में रहने के लिए अभिशप्त/……असल में यह एक ऐसा दु:ख है देखने में क़ैद भले न लगे पर सच तो यह है कि विस्थापन अचानक से हँसते-खेलते पूरे परिवार को क़ैदी बना देता है। क़ैदी उस नई जगह का जहाँ वो साँस तो ले रहा है पर उसमें घुटन बहुत ज्यादा है। क़ैदी उस जगह का जहाँ न तो कोई अपना है और न ही गलियाँ अपनी हैं। न आस-पड़ोस है और न ही भविष्य। और इन सबका का कारण एक ही है—वह दु:ख ही था जिससे बँधे थे चुपचाप/वे क़ैदी नहीं थे पर थे बंधन में/….

विस्थापन की दूसरी कविता उस वास्तविक कहानी की अगली कड़ी है। जो लोग विस्थापित होकर नए शहर में आ गए उन्हें स्वीकार करने को कोई तैयार नहीं है। कैसी बिडंबना है कि जिसे वो अपनी जमीन और अपना घर कहते थे वो तो छूट गया हमेशा के लिए। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि वो जहाँ आए हैं वहां उन्हें अपनाने के लिए कोई तैयार नहीं—–कहाँ से आ गए /ये इतने लोग/कहाँ से/ xxxxxxxxxxxxxx बाढ़ के बढ़े पानी की तरह/अब इन्हें समाना है यहीं/जहाँ से भी आए हों…..विमल जी  इससे आगे बहुत बड़ी बात से सामना कराते हैं। विस्थापितों के सामने भयावह और सांय सांय करता भविष्य। जिसमें न तो कोई सपना है न ही जीवन को लेकर कोई उत्साह। कहा जाता है कि भविष्य के बारे में बुरा सोच सकने की कोई रोकटोक अपना विवेक नहीं करता पर अच्छा सोचने की स्वतंत्रता में बहुत रुकावट होती है—-गौर से देखा तो/सूनीं थीं उनकी आँखें /विचार सुन्न/न वहाँ सपने थे, न अतीत के दृश्य/अपने निपट सूनेपन को भरने/कहाँ से आ गए ये लोग/कहाँ से…..

      विस्थापन चाहे रोजगार की तलाश में हो या गांवों के उजड़ने की वजह से या फिर शहरों के विस्तार की वजह से, वह हमेशा तकलीफदेह ही होता है। भले ही इसे विकास की अनिवार्य परिणति ही क्यों न माना जाता हो। अगली कविता में गंगाप्रसाद विमल जी ने विस्थापन की सत्यता और सार्वभौमिक को बड़ी बारीकी से उकेरा है। दरअसल एक नए राष्ट्र के निर्माण के लिए जिस तरह का विस्थापन किया गया और किया जाता है उसका तलीय स्वर करुणा है। कहने को तो विस्थापित हो रहे लोग को शांति और सुकून का सब्ज़बाग दिखाया जाता है। पर सच यह नहीं है क्योंकि नए ढंग से बसने के जुनून में वो अंधेरे में फंसते चले जाते हैं और समय के साथ महसूस होता है कि वो ज़िंदा लाश हैं। लगातार चलना नियति है पर मकाम नहीं है—–मैंने उन्हें चलते ही देखा /सड़क किनारे रेवड़ों में /सरों पर लादे /बेतरतीब सामान /वे शांति की तलाश में थे वहाँ /सुकून की /कौन कहे /चलते हुए सपनों की स्मृति /हर ठोकर की कल्पना पर ही /विलो जाती है विस्मृति में/ xxxxxxxxxxxxxxxxx मैंने उन्हें चलते ही देखा /आज भी ढोते हुए अपने शरीर /वे चलते ही रहते हैं कर्मवीर /पुरुषार्थी….

जो लोग एक बार अपनी ज़मीन से विस्थापित हो जाते हैं उनके लिए जीवन आग पर चलने जैसा है। असल में विस्थापितों के लिए आगे भी आग का दरिया है और पीछे जो कुछ बचा था वो भी रोज़ रोज़ जलता है, राख में तब्दील होता जाता है। स्मृतियों में जो गाँव, खेत, खलिहान, पेड़, पौधे रहते हैं वो सूखने लगते हैं—-अग्नि के राही /दूसरों से माँगते रहे सच /उनका अपना सच /इतना झुलस गया था कि देख नहीं पाए /राख में तब्दील होते /कहाँ थे उनके गाँव /उनके खेत /उनके पेड़ /वे सब उनकी इंतज़ार में /सूख गए……ऐसे लोगों के लिए ज़िंदगी का जीना मानों स्थगित मौत को जीना है। पर सच तो यह है कि बहुत दिनों तक स्थगित मौत को भी नहीं जिया जा सकता। ज़िंदगी आत्महत्या करते हुए मौत की प्रतीक्षा बनने लगती है। सच तो यही है कि ज्यादातर लोगों के जीने का तरीका आत्महत्या का तरीका होता है। यह कहना बेमानी है कि जिन्होंने अपना सारा कुछ छोड़ा उन्होंने कोई सपना नहीं देखा था। सपना देखा था हरियाली का। सपना देखा था अच्छी ज़िंदगी का। सपना देखा था खुशहाल परिवार और दुख के सागर से निकलने का। पर हुआ क्या—–फिर से /हरियाली उगाने के सपने / नहीं उगा पाए / XXXXXXXXX एक आग के रास्ते से / दूसरों की तरफ / धकेल दिए गए/

      विस्थापन की आखिरी कविता मानवीयता की तमाम असलियत को मानों खोलकर सामने रख देती है। बेवतन होने के बाद बदलते चेहरे और उसके साथ बदलती मानसिकता को साफ-साफ परिलक्षित कर देती है। अब से पहले तक सब एक थे पर अचानक वही एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए। जिनके साथ बचपन का हर लम्हा जिया, उसकी हर धड़कन से परिचित थे वही अचानक बेगाने हो गए। बदल गई उनके प्रति नियत। बदल गई एक दूसरे के प्रति सोच, समझ और तौर तरीके…..जिस पल बेवतन हुआ / चेहरा बदल गया / जिस्म की चमड़ी से भी तत्काल / परदेसी हो गया / इस पूरी बिडंबना का गंगाप्रसाद विमल जी ने बड़े सधे शब्दों में चित्रांकन किया है। उन्होंने कहा है कि असल में सिर्फ नाम नहीं बेवतन होते हैं—बेवतन होता है पूरा का पूरा नजरिया। राजनीति का इससे घिनौना चेहरा और क्या हो सकता है कि जो हर पल के साथी थे वो अब एक दूसरे के लिए बेगाने हो गए। सिर्फ बेगाने ही नहीं बल्कि राजनीति ने एक दूसरे को मजहबी तौर पर कट्टर दुश्मन बना दिया। असल में मनुष्य मनुष्य का दुश्मन नहीं होता दुश्मन होती है राजनीति। जो दो लोगों के बीच विष का काम करती है और दोनों के सामने कई तरह की दीवार खड़ी कर देती है। जब विष है, दीवार है तो यक़ीन मानिए परिणति श्मशान और कब्र की तो होगी ही। गंगाप्रसाद जी ने कविता की आखिरी पंक्ति में वो सबकुछ कह दिया है जो उन्हें और बड़ा कवि बनाता है—- अब हम सबके नाम से मुहल्लों में / कब्रें हैं / और श्मशाम / अब हम यहीं रहते हैं बँटकर/….देश को जो बँटवारा हुआ। घरों का जो बँटवारा हुआ वो तो हुआ है। पर सच सिर्फ यही नहीं है। सच तो यह है कि उस बँटवारे के बाद भी कई बँटवारे हो चुके हैं। शहर में, मुहल्लों में, घरों में, रिश्तों में, अपनों से। हम लगातार बँटते जा रहे हैं और यही हमारी मानवीयता के लिए आज सबसे बड़ा खतरा है। कवि की जो अंतर्ध्वनि निहित है वो यही है कि अगर हो सके तो उसे बचा लो। मानवता को बचा लो। एक दूसरे को बँटने से बचा लो।

इतनी जल्दी घटा है सबकुछ/ कि अब लगता है अभी/ तक कुछ हुआ ही नहीं….

इस नई सदी में बहुत से नए ख़तरे नई चुनौतियां नए प्रश्न और नई जिज्ञासाएं हमें देकर बेचैन किया है। बेचैनी का सबब ही कविता है। यह ठीक है कि आज कई नए विमर्श कविता से जवाबदेही मांग रहे हैं पर ये विमर्श अलगाव अधिक बढ़ाते हैं। कविता का सत्य और वास्तविकता का तथ्य दोनों अलग-अलग हो सकता है। सत्य और तथ्य के बीच हमेशा विरोध रहता है। कविता को किसी भी खेमे में बंधने से बचना चाहिए। खुले शब्दों में कहूं तो कविता को विचारधारा से अधिक संवेदनात्मक होना चाहिए। कविता पोस्टर, पैंफलेट या होर्डिंग नहीं नारों का इश्तहार भी नहीं उसका अपना आर्थिक सामाजिक राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास है। दिक्कत यहीं से शुरु होती है। मध्यम वर्ग जो अपनी बोली और भाषा से पहचाना जाता था, जो विचार परिवर्तन की बुनियाद रखता था खतम हो रहा है। लोग खत्म हो रहे हैं भाषाएं भी खत्म हो रही हैं। गंगाप्रसाद विमल जी के इस संकलन पढ़कर कई बार ऐसा लगा। व्यक्ति आजीवन अतीत मोह से ग्रस्त रहता है बिना भवितव्य की चिंता किए। उसके आसपास खबरों का संसार है जहां बाखबर करने के लिए कुछ भी नहीं…..उसे बांच लो समूचा उसी में अंकित है रात, अंधेरा/ उसी में चीख की तस्वीर, उसी में उभर आई/ आखिरी हंसी….

यहां रचनाकार केवल यथार्थ की रट नहीं लगाए है बल्कि अपने सामने एक वैकल्पिक संसार भी रच रहा है। जो मानवीय सम्बन्धों को तलाश करता हुआ ठीक ठाक देख पाता है कि पुरानी मूल्य व्यवस्था और सम्बन्ध व्यवस्था टूट रही है। यही संक्रमण का दौर है। शून्य की सी स्थिति है। नया कुछ नहीं उगता न अंत: जगत में न बाहर। विमल जी की ये कविताएं जीवन के जटिल सवालों का जवाब न भी दें पर यह क्या कम है कि अपने सवाल बार-बार दोहराती हैं….

इतिहास का आखिरी गवाह / उसके बाद न संकेत होगा न स्वर न चित्र/ और न पहचान

प्रत्येक कविता में एक ही अंतर्ध्वनि मौजूद पाती हूं। इन ध्वनियों की भी खुलकर चर्चा होनी चाहिए। ये ध्वनियां भाषा विज्ञान से इतर हैं। क्योंकि अन्य अभिव्यक्तियों से कविता की प्रकृति अलग होती है। अत: अपने अनेकार्थी ध्वनियों में कविता केवल एक शब्द चित्र, एक बयान या बिम्बों का संगुफन और अर्थमय रहस्य भर नहीं है। जैसे-जैसे कविता में प्रतिरोध बढ़ेगा बाहर का अंधेरा चीन्हा जा सकेगा। यहीं आकर कवि और कविता की भूमिका बढ़ जाती है। जीवन जगत के मर्म को जानना उघारना भर काफी नहीं। उसपर अमल करने की जवाबदेही किसकी है….

यह अंधेरा ही है अंधेरा /जिसे हम समझते हैं आलोक/ यह सबकुछ दिखा सकता है पर/ नहीं दिखा सकता हमें अंधेरे का सच….

अनिश्यच, गुमराही और संशय की रात कब की बीत चुकी है। हम जिस उत्तर औपनिवेशिक युग में जी रहे हैं वहां हमें अतीत के माया जाल से निकलकर बाहर की तमाम चुनौतियों से टकराना ही होगा। क्योंकि माना जा चुका है कि कविता केवल जीवन के प्रसंगों तक जाना ही नहीं उसके भीतर पैठकर उसकी स्पंदन को पकड़ना, जीवन के भीतर भी एक जीवन होता है-दिखाना है। एक असहिष्णु युग में जीते हुए गंगाप्रसाद विमल लिखते हैं—

अभी है कुछ बाकी जैसे पाना/ और पाने के बाद भी, कुछ नहीं जैसा पाया तो/ वह था कुछ-कुछ प्यार जैसा / और भी/ मुक्ति मुझसे बाहर ही रहती है उन्मुक्त और उदार/ तमाम खुशियों की तरह बहुत दूर/ कुछ ज्यादा ही दूर

इस संकलन में एक और बड़ी चिंता जो बार-बार जाहिर होती है कि खबरों के समूचे संसार में खबरदार करने के लिए कुछ भी नहीं होता। सूचना क्रांति के इस चौथे चरण में लगातार खबरों में बढ़ता फैब्रिकेशन, बेखबरी, फिलर्स ही अगर खबरें हैं तो भूकंप, बाढ़ और सूखा किसी भी सदी के लिए त्रासदी नहीं हो सकती। कभी सुंदरी का चित्र, कभी लौटरी का फैसला तो कभी बार बालाएं हमेशा आकर ढक लेती हैं वास्तिवक खबर दुर्घटना की, मातमी दृश्य के, बाढ़ से मरे लोगों पर हावी है ये रंगीन दुनिया…..

घर में मातम था खुशी का/ किसी को मिलनी थी जायदाद/ किसी को उम्मीद थी करुणा के बहाने कुर्सी मिलने की….

और भी

दंग थे दंगों के कारोबारी/ फायदा ही फायदा था दोहरा तिहरा/ औपे पौने मिलेगीं जगहें/ सस्ते मिलेंगे     विधर्मी मजदूर….

इन्हीं चुनौतियों से जूझ रहा है रचनाकार। एक तो ये कि अतीत कितना भी मोहक, सुंदर हो वहां ताकत की पूजा चापलूसी का रस और स्मृतियों का बखान ही बार-बार मिलता है। कविता का ध्येय इतना भर नहीं। कविता भविष्य के प्रति उत्तरदायी है क्योंकि वही साक्षी है उस यथार्थपरक जगत की जहां भेड़ बकरियां और बुद्धिजीवी एक साथ बिकाऊ हैं….

लालाओं के गिरोहों ने काटी है फसलें/ वे तो जा पहुंचेगे स्वनिर्मित चांद पर कुछ दिन/ ले जाएंगे चुराकर बौद्धिक संपदा/ खरीद लेंगे भेड़ बकरियां बुद्धिजीवी

रचनाकार के सामने दूसरी चुनौती है खबरों की दुनिया से निरंतर खबरों का गायब होते जाना। यही आज की सबसे बड़ी सच्चाई है कि सभी खबरिया चैनल्स सूचना संदेश और विचार के स्थान पर फूहड़ मनोरंजन परोस रहे हैं। कैसा घालमेल है जिनका दायित्व लोगों को जागरुक करना, सावधान करना और आंदोलनधर्मी बनाना था वे बहला फुसलाकर सुला रहे हैं। यह सब होने पर भी गंगाप्रसाद विमल भविष्य के प्रति आशान्वित हैं और लिखते हैं—

यह मत सोचना घट गया/ बीत गया एक एक आत्महत्या से तैयार होंगे औजार/और वे इतिहास में दफन हत्यारों को खोज लाएंगे….

कविता को मुहिम की तरह देखने वाले प्रतिबद्ध कवि गंगाप्रसाद विमल अपने जैसे लोगों और उनके सरोकार के प्रति भी चिंतित हैं। कविता लिखने का आखिरी उद्देश्य क्या है, क्यों और किनके लिए लिखी जा रही है कविता—इसी संकलन में लोग नाम की कविता का अंश देखिए—

कामनाओं ने उन्हें मारा/ मारा जन्म ने/ गरीबी ने मारा बाज़ार में/ मरने के लिए जन्मे वे/ पलते हुए मरे/ हर हाल में मरना ही था उन्हें/ इसलिए भी मरे….

कविता में जिस आग की ज़रूरत है वह विमल जी के यहां है….जो अपने आपको, पूरे परिवेश के संदर्भ में जानने समझने खोजने और पाने की ईमानदार कोशिश करते हैं। इस मायने में उल्लेखनीय है….

वे मरते हैं अपने यहां दूसरों की जमीन पर/ दरिद्रता की प्रयोगशालाओं के निर्माता/ बढ़ा रहे हैं जगह, वे भी बढ़ रहे हैं संस्था में/ बढ़ रही है घटनाक्रम….मरने के…

हर किसी की निगाह दूसरे पर है, अपने भीतर झांकना हमें कब आएगा?  जगत बोध बहुत हुआ, आत्मबोध पर बहुत कम लिखा जा रहा है ऐसे में गंगाप्रसाद विमल उत्साह की आँधी में बहते नहीं बल्कि विवेक को ज़िंदा रखना चाहते हैं—-

अग्निपथ के राही दूसरे से माँगते रहे सच/ उनका अपना सच, इतना झुलस गया था कि देख नहीं पाए/ राख में तब्दील होते…   

विमल जी की ये कविताएं आने वाली पीढ़ियों में लोकोन्मुखी आत्मसंघर्ष के लिए एक डगर बनाकर जा रही हैं, जो गहरी भी हैं और व्यापक भी। ये कविताएं किसी सुविधा को अपनाने से परहेज करती हैं….इतिहास के साथ वफादारी वही कविताएं करेंगी जो प्रश्नों से भागकर नए प्रश्न खड़ा करने पर आमादा न रहें। इन कविताओं में बदलते परिवेश से जन्मा टूटता बिखरता व्यक्तित्व ही नहीं है विमल जी उन्हें जोड़ना और सहेजना भी जानते हैं—-

लिखा जा होगा वही नहीं बाँचा जाएगा/ बाँचा जाएगा अभिप्रेत/ शताब्दी के शुरू में ही सजग हो गए हैं कर्मठ लोग/ सजग हो गए हैं देख गठबंधन/ संभव के रास्ते, गुज़रेगा बेखौफ असंभव….

इस कविता संकलन में प्रत्येक कविता में आंतरिक धुन की तरह जो व्यापक जीवन दृष्टि विद्ममान है उसे भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। गंगाप्रसाद विमल जी कविता को केवल सब्जेक्ट या मन: स्थिति का वर्णन ही नहीं मानते बल्कि इन कविताओं में समीक्षक को जो आब्जेक्टिविटी देखने को मिली, वह अन्य समकालीनों में दुर्लभ है। अभिप्राय है कन्टेंट और फॉर्म दोनों ही क्षेत्रों में विमल जी सचेत दिखाई देते हैं। उनके पास समृद्ध भाषायी कोश और व्यापक बिम्ब कोश हैं जिनका सहारा लेकर वे जटिल, सघन और विविध जीवनानुभवों को जिस पैनी निगाह से तौलते हैं ठीक उसी सलीके से कविता की आंतरिकता (कथ्य) के साथ भी ईमानदार रहते हैं। इनका कवि मन एक आंदोलनधर्मी विचारक भी है। जो केवल जोश से ही नहीं, पूरे होशोहवास में समय और समाज से संवाद करते हैं। संघर्ष के बड़े अंतराल को पाटकर भी वे आशान्वित हैं कविता के अभिप्रेत के लिए—–

एक निरानंद सुख/ उम्मीद के सहारे टंगा है अदृश्य में/ इतना ही देना/ न जान सकूँ असलियत, न भेद, न रहस्य/ टोहता रहूँ भाषाओं में/ ठहर-ठहर वे संकेत/ इतना ही देना…..

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कविता संग्रह- ख़बरें और अन्य कविताएं

कवि-गंगाप्रसाद विमल

प्रकाशक-किताबघर

पृष्ठ-116

मूल्य-175   

 

 

 

 

 

 

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