ठंड में रज़ाई में बैठकर अच्छी रचनाएँ पढ़ने का अपना ही सुख है। आज पढ़िए अनुकृति उपाध्याय की नई रचना। बनारस की पहली यात्रा से लौटकर लिखा है- मॉडरेटर
================
हरे काँच की गंगा काशी के घाटों के पीले प्रस्तरों से टिकी बह रहीं हैं। बह क्या रहीं हैं, बहने का बहाना भर कर रही हैं। अलख तरंगें और अडोल प्रवाह। मृदुल-पसरीं अलोल-धार गंगा अपने आप में एक साधना हैं। ब्रह्म-पुत्री, शिव-साधिका, शक्ति-संगिनी, जनपदों की माँ। मृत्यु का शूल आर्द्र-मन निकालतीं, पाप तारतीं, पराए-जाए ममता से पोसतीं-तोषतीं । जन्म-मरण से अबाध जुड़ीं, वज़ू और तर्पण का अंग, जन-मानस में चिर से पैंठी। गंगा माँ। माँ गंगे। हर हर गंगे।
‘गंगा जी हैं, अपनी मौज में रहती हैं। मौसम में यहाँ तक बढ़ आती हैं।’ ड्राइवर अँगुली के इंगित से वर्षा में बढ़ी गंगा का स्तर दिखाता है। ‘बाबा की नगरी में क्या मज़ाल कि कोई उनकी आवाजाही पर रोक लगाए!’ ड्राइवर का नाम आलम है, हमें एयरपोर्ट से वाराणसी की जन -संकुल गलियों की राह अस्सी लाया है। बनारस में जन्मा है। ‘यहीं मरेंगे भी। यहाँ से कहाँ जाएँगे ? बनारस में सारी दुनिया है।’ और सारी दुनिया में एक अकेला बेजोड़ बनारस। घाटों, सँकरी बाटों, ठसक भरी बातों का नगर। कीच-कर्दम, भीड़-भड़क्कम, हॉर्न-तूतियों की कानफाड़ूँ सरगम का नगर। जो बनारस के रस में रसा, उसके लिए संसार बेरसा।
‘बाबा के सेवक हैं हम। बाप-दादा गंगा मैया में नाव खेते रहे।’ हमारा नाविक कहता है। गंगा की संध्या आरती की तैयारी हो रही है। दशाश्वमेध घाट पर भक्तों, पर्यटकों, जिज्ञासुओं भीड़ जुटी है। शत-ज्योति आरात्रिक प्रदीप जलाए जा रहे हैं। अगुरु धूम के सुगंधित धागे हवा में लहरा रहे हैं। मंत्र-पाठ से दिशाएँ रोमांचित हैं। हमारे पूर्वज भी क्या ही आध्यात्मिक सौंदर्यचेता थे, बहते जल को अग्नि से पूजते थे और अग्नि का आह्वान जल-सीकरों से पूत हो कर करते हैं। ‘आप कालभैंरो गए? और बाबा के दरबार? वहाँ बग़ल में एक मस्जिद देखे रहे? अगली बार आएँगे तो नहीं दिखेगी। बाबा की बग़ल में गड़ा काँटा है । उखाड़ फेंकेगे मोदी जी के राज में।’
पुष्पांजलि का दीपक जैसे झपक कर बुझ गया हो। तार टूट गया, मन खटा गया। ‘क्यों? उनके दादे परदादे भी यहीं धूल हुए। काशी उनकी भी है।’
‘अरे, आप नहीं जानतीं कैसे लोग हैं ये। मुहर्रम पर आइए हमारी तरफ़, तब देखेंगी। तलवारें लिए फिरते हैं कुर्ते -अचकन उतार कर। हमारे घर में माँ-बहनें हैं, हम अपने घरों से नहीं निकलते उन दिनों।’
‘भैया, मैं जहाँ बड़ी हुई हूँ वहाँ मुहर्रम के जुलूस देखें हैं मैंने। यह त्यौहार ऐसे है मनाया जाता है , हमारे यहाँ तो बच्चों को निकालते थे ताज़िए के नीचे से कि सेहतयाब रहें, बुरी नज़र से बचे रहें। आपके मन के डर हैं , सही बात जान जाने से ख़त्म हो जाएँगे। अपने मुसलमान पड़ोसियों से पूछ देखें, वे बताएँगे कि मातम क्यों करते हैं मुहर्रम पर।’
“ये बात नहीं। हमारे धर्म में तो ऐसे जुलूस नहीं निकलते, त्यौहारों में हिंसा नहीं होती। ‘
‘धार्मिक जुलूसों में सब जगह शोर शराबा होता है , गणेश विसर्जन हो या कांवड़िए। मेरे शहर के एक मंदिर में वर्षों काली को बलि दी जाती थी। खैर यह ग़लत सही का प्रश्न नहीं। अपने धर्म पर सबको श्रद्धा है, अपने रिवाज़ों से सबको प्रेम। प्रश्न आपके डर का है, उसके समाधान का है। ‘
‘अरे, आप क्या बात करती हैं ? हम कहाँ डरते हैं? बनारसिए हैं हम। हमें किसी का डर नहीं।’
‘तो फिर क्या बात? उन्हें अपनी पूजा करने दीजिए, आप अपनी इबादत कीजिए। बनारस क्या इतना छोटा है कि सब रह न पाएँ ?’
‘अरे… ‘ बाक़ी शब्द उसने घूँट लिए।
चौदह -पंद्रह जनों से भरी नाव में उसके मस्जिद गिराने के ऐलान पर किसी ने गला तक न खँखारा था। एकाध ने बेचैन पहलू बदला था कि व्यर्थ की बहस। बाद को कुछ स्त्रियों ने कहा – अच्छा कहा आपने , हम भी कहना चाहते थे लेकिन अजनबी शहर, अनजान माहौल, कुछ कहने पर बवाल न हो। हर ओर वही अजाने का डर।
पौ नहीं फटी है। गंगा पर कोहरे की परियाँ नाच रही हैं, हल्की, तरल, शब्दहीन पैंछर वाला अलौकिक नृत्य। हवा का हाथ पकडे, सफ़ बाँधे, यहाँ से वहाँ मद्धम डोलती, जल-छाहीं चूनरें लहराती। नाव की मस्तूल पर अकेला बैठा किलकिला विरह में कुरला उठता है। सारसों की पाँत अँधेरे आकाश में शलाका सी खिंच जाती है। शिवाला घाट पर के छोटे से मंदिर में आरती के घंटे बजने लगते हैं। एक जन गाता हुआ निकलता है ‘मेरा नन्हा कन्हैया जाग जाएगा… ‘ उसका सुरीला स्वर सुन कर जाने क्यों आँखें भर आती हैं। नन्हे कन्हैया के लिए मन में ममता की लहरें उठती हैं। कोई शब्द न करे , बाल कन्हैया लिहाफ में लिपटा, माँ की बाँह के मोह-भरे घेरे में भोर की मीठी नींद सो रहा है…
‘ऐ , रुपैया द्यो !’
मेरे घुटनों से नीची छोटी लड़की है। फ्रॉक पर छेदों के बूटे हैं और पैरों में फटे मोज़े, चेहरे पर चंचल मुस्कान है लेकिन, दंतुरियों हँसते कन्हैया जैसी।
‘ऐ , द्यौ न। कछु खाब!’
‘क्या खाओगी ?’
वह हँसती आँखें नचाती है। दुकानें अभी खुली नहीं हैं। हम उसे बिस्कुट के पैकेट देते हैं और मन का खिलाने का वचन भी। भयंकर गरीबी संघर्ष में भी बच्चों का बचपन वाला विश्वास अक्षुण्ण है कि माँगने से मनचाहे व्यंजन मिल जाएँगे। कल भी एक बच्ची ने फटे दुशाले से हाथ बढ़ाया था और लस्सी की फ़रमाइश की थी। अस्सी घाट के पास कहीं लस्सी की दूकान नहीं दिखी तो वह मलइयो के कुल्हड़ से संतुष्ट हो गई।
हम घाट-घाट होते घूमने निकलते हैं। प्रात की हलचलें शुरू हो गई हैं। घाट पर सोने -जागने वालों की तापी आग बुझ गई है। उस की गर्म राख में कुत्ते मुँह पेट में डाले सोए हैं। हिम-शीतल जल में रगड़-रगड़ कर स्नान किया जा रहा है, कपडे मले जा रहे हैं, कड़वे तेल की महत्ता और सुंगन्धि वाले तेल की हेयता पर व्याख्यान दिए जा रहे हैं, हाथ-शीशे में झाँकते हुए माथे पर तीली से तिलक आँका जा रहा है । स्त्रियाँ धुले केश सुखा रही हैं, पैरों में अलक्तक लगवा रही हैं। मुझे देखता पा एक कहती है, ‘तुम्हई लगवा ल्यो आलता।’
मैं उसके बिवाई-फटे, रूखे पैरों पर द्रुत-सूखती आलते की लाली को देखती हूँ और नगरीय शिष्ट कपट से कहती हूँ, ‘आपके पैरों में सजता है ये।’
वह आँख से काजल निकाल तलवे में ढिठौना देती है, ‘नजर लग जाई!’ और खिलखिला कर हंस पड़ती है।
घाट के कारोबारी आने लगे हैं। कान का मैल निकलवाने और नीम्बू -मसाले की चाय की पुकारें लगने लगी हैं, चन्दन घिसा जा रहा है, पिंडदान के पिंड बनाए जा रहे हैं। पग-पग पर नाविक गुहारते हैं – ‘नाव में जाएँगे ? नाव में जाब ?’
हम दरभंगा घाट पर महल की ऊँची भीत को देख रहे हैं। पीले पत्थर की दीवार, दुमंज़िले तक नींव है। ‘गंगा मैया चढ़ी आती हैं सीतला को ठंडा करने,’ पास खड़ा वृद्ध हमारे आँखों का प्रश्न पढ़ कर कहता है, ‘ऊ ऊपर तक जहाँ सीतला मंदिर है। ई महल छज्जे तक डूब जाता है। दो बड़ी बाढ़ देखे हैं हम , अड़तालीस की और अट्ठत्तर की, नब्बे में एक कम उमर है हमाइ। ‘ हम अचरज से उसकी सतर काठी देखते हैं। ‘धरम-संजम से रहते हैं, सब विकारन की जड़ अधरम है। चार लड़के हैं हमाए, एक छत्तीस की उमर में चल बसा। नसा की लत… यहीं हरचंदर घाट पर जलाए उसे।’ वह गर्म चादर फैला कर ओढ़ता है और हाथ काँख में दबा लेता है। ‘नाव पर जाएँ तो कहें। ‘
‘आप ले जाएंगे ?’
‘नाहीं, लड़के को कहेंगे। ले जाएगा। हम भी आ जाएँगे साथ। ‘
उसका मध्यम वय का बेटा नाव खींच कर घाट से टिकाता है। ‘कड़े-कड़े जाब तौ नाव ना हिली।’ नब्बे में एक कम का जवान लकड़ी की नैया में दृढ क़दम रख चढ़ता है। पुरातन गंगा लहरों में अपनी मुस्कान छुपाती है। हम नाव में चढ़ने लगते हैं।
‘ऐ, इटली खिया दैब!’ दंतुरिया हँसती छोटी लड़की ने हमें खोज लिया है और अपना मनचाहा पकवान भी। सीढ़ी के पास बकुची में इडली और पतीले में चटनी भरे आदमी की ओर अनधुली, नन्हीं अँगुली से इशारा करती है।
‘खिया दौ ,’ वृद्ध हँसता है , ‘हम चाय पी लेई तब तक !’
The post गंगा पर कोहरे की परियाँ नाच रही हैं appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..