बहुत कम समय में अनामिका अनु की कविताओं ने हिंदी के विशाल कविता संसार में अपनी उल्लेखनीय जगह बनाई है। उनकी कविताओं का रेंज बड़ा है और कहने का कौशल भी जुदा है। अरसे बाद उनकी कुछ कविताएँ पढ़िए- मॉडरेटर
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1.अफवाह
अफवाह है कि
एक बकरी है
जो चीर देती है सींग से अपनी,
छाती शेर की।
खरगोश बिल में दुबका है,
बाघ माद में डर से,
लोमड़ी और गीदड़ नहीं बोल
रहे हैं कुछ भी।
पर एक जोंक है
बिना दाँत, हड्डी के भी रीढ़ वाली
वह चूस आयी है सब खून बकरी का।
कराहती बकरी कह रही है-
“अफवाह की उम्र होती है,
सच्चाई ने मौत नहीं देखी है
क्योंकि यह न घटती है ,न बढ़ती है। “
2.मैं आग लिख रही हूँ
मैं आग लिख रही हूँ
तुम्हें आँखों की जलन मुबारक हो
पढ़ना! अगर चेहरे पर दाग अच्छे लगते हों l
मैं दीवारों पर खिड़कियाँ लिख रही हूँ
पढ़ना अगर देखने और दिख जाने की जुर्रत कर सको
मैं पानी भी लिखूंगी
तुम्हें डूबोने के वास्ते
तुम अपनी नाव पतवार ले कर आना नहीं
तैरने के वास्ते
३.कुछ पति
वह हर दिन ठगा जाता है
उसे पता है
फिर भी उसे ठगा जाना अच्छा लगता है।
वह पत्नी को ठगने देता है,
ठग कर हँसी मोलना
पत्नी के लिए भी जोखिम भरा व्यापार है
वह जानता है।
उसके भीतर वह खुद को महसूस
कर चुका है
उसे जीने देता है वे पल
जो जीवन ने पहले नहीं मुहैया कराया उसको
वह उसे चुनने देता है संगी मन का,
देता है खिलखिलाने की आजादी
वह नहीं टोकता है उसको
जब वह जी रही होती है
वे पल जब सब कुछ उसके मन का होता है।
नहीं देता है धमकी कि छोड़ देगा
अगर वह संसर्ग में खुश रहेगी गैर के
बल्कि आश्वस्ति देता है
कभी नहीं छोड़ेगा साथ उसका
और जीने देगा ऐसे और भी पल,
वह सेवता है पत्नी के सपनों को
ताकि उससे निकल सके चूज़े।
हर सपनों की उड़ान इन पतियों
के हृदय गर्भ से होकर गुजरती है।
4.पालयम में
प्रेम की स्मृतियाँ
कहानी होती हैं ,
पर जब वे आँखों से टपकती हैं
तो छंद हो जाती हैं।
कल जब पालयम जंक्शन
पर रुकी थी मेरी कार
तो कहानियों से भरी एक बस रुकी थी
उससे एक-एक कर कई कविताएँ निकली थीं
उनमें से मुझे सबसे प्रिय थी
वह साँवली, सुघड़ और विचलित कविता
जिसकी सिर्फ आँखें बोल रही थीं
पूरा तन प्रशांत था।
उसके जूड़े में कई छंद थें
जो उसके मुड़ने भर से
झर-झर कर ज़मीन पर गिर रहे थें
मानो हरसिंगार गिर रहे हों ब्रह्ममुहुर्त में।
5.तीन दीवारें
तीन दीवारें सफेद
चूने से निपी
बस एक नीली है
कभी-कभी मन करता है
इस गहरे नील को सफेद में मिला,
कलफ़ दे, धूप में सूखा दूं।
बिछा दूं दीवारों को ज़मीन पर
और उस कड़क सफेद नींव पर
खड़े होकर या बैठ कर लिखूं वह गीत
जो श्वेत कपोतों को उड़ान
और जैतून के पेड़ को हरियाली देती हों।
वक्त आ गया है
मजबूत दीवारें बिछ जानी चाहिए।
6.मैं इश्क़ में हूँ
मैंने कुछ सितारे नारियल के पत्तों के बीच छिपा कर रखें हैं।
रात में झींगुर आपके लिखे गीत गाते हैं।
वह हरा,वे तारे ,वह गीत ,रात और मेरा इंतज़ार
सब जब चरम पर होता है
तो गालों पर मोती की बारिश होती है।
एक एक मोती कलम को गीला
और कागज को पाक करते हैं।
मैं इश्क़ में हूँ।
7.मिलन प्रतीक्षा की मौत भर है
मैंने कितनी दुआओं के झुरमुटों के बीच
तुम्हें हरे जतन से छिपा रखा था
पर तुम क्यों बहा आते हो
उन नदियों में उम्मीद के दीये
जो मनोकामना पूर्ण करती हैं
क्यों छोड़ आते हो तुम
हर दरगाह पर मिलन के तारीख की गुजारिशें
मुझे पसंद है तुम्हारी बातों की गहराई
और
तुम्हारी रवादार आवाज़ का वह अक्खड़पन
सुनो! तुमको सुनकर
मैंने एक सुंदर झील गढ़ा है
क्यों तुम मिलकर बाढ़ होना चाहते हो
क्यों तोड़ना चाहते हो उस संयम के बांध को
जो जोड़ता है दो किनारों को
मिलन की बाढ़
टूटते बाँध और खुलती मुट्ठी,
सब पानी
मैं आकंठ डूब कर बह रही हूँ!
जीवन तट पर मिलेगी
मेरे प्रेमपूर्ण प्रतीक्षा की लाश
जिसे मिलन वाला कौवा नोंच- नोंच खाएगा
“मिलन प्रतीक्षा की मौत भर है”
8. मैं नहीं करती वे बातें जो पुल नहीं होती
मैं नहीं करना चाहती वे बातें
जो पुल नहीं होती
उन संवादों को नहीं देती रास्ता
जो एकांत में हुए
हमारे सबसे आत्मीय संवाद की पुल को
अपने पदचाप से कोलाहल में तब्दील कर दे
मुझे पसंद है तुम्हारी चुप्पी
घंटों फोन पर पास होते हुए भी
एक दूसरे की साँसों को महसूस करना
कुछ न कहने सा कहना
और अंत में रखता हूँ कहकर
बड़ी देर तक फोन नहीं काटना
मुझे पसंद है तुम्हारे वे जंगली उन्मुक्त ठहाके
जो तुम फोन पर लगाती हो
और तुम्हारे गंभीर चेहरे को
देखकर मेरे सिवा कोई नहीं जानता
कि ये लड़की हँसती भी है
कितनी बार हम मिले
काॅफी की बड़ी-बड़ी मगों को खत्म किया घंटों मे
पर बिना कहे एक शब्द
वह मौन संवाद आखिर उस बिंदु पर पहुँच ही जाता था
जो पुल गढ़ती थी
आँखों से आँखों के बीच
दिल से दिल को जाती
9.स्मृति
स्मृतियाँ प्रवासी पक्षी नहीं होती
जो वापस हो जाए एक अंतराल के बाद।
मेरे लिए श्वेत हिरणों का झुंड
जिसने हरा खाया है
जो पददलित करता है हृदय को
रक्त से लथपथ चिथड़ा हृदय,
चटक लाल कतरा उनके खुरों पर अलते-सा रचा,
हरा खा चुकी स्मृतियों का रंग लाल या श्वेत होता है।
10. कवि कोलम्बस होता है
कवि कोलम्बस होता है
और अपनी कविता का द्वीप स्वंय तलाशता है
फिर एक दिन उस द्वीप का स्वामी हो जाता है
अपने हर हरे,काले भाव, छंद, शिल्प, कविता
और कहन का एकाधिपति
उस द्वीप के कण-कण में उसके भाव होते हैं
और चप्पे-चप्पे में उसकी कविता
कविता कभी पात, कभी रात, कभी गंध, कभी पंक्षी
कभी शेर बनकर घूमती रहती है
कभी सागवान के पेड़ बनकर खड़ी
कभी बाँस बनकर झूमती
कभी कचनार बनकर बिखरती
कभी झुरमुट बन झाँकती
कभी सफेद हिरण बन भागती-भगाती
कवि उत्तम पुरूष होता है
उससे बेहतर उसकी कविताओं को न कोई समझ सकता है
न ही संशोधित या विस्तृत कर सकता है
11..अंतिम प्रेमपत्र
अंतिम प्रेमपत्र
मौन प्रार्थना,
दर्द से लबालब मुक्ति पत्रl
बेटिकट माथे में घुमरते
पंख बांधे शब्द
बुझी स्मृतियों की गर्म बाती
बेसुध पड़ी अखंड दीप पर
तीखे खट्टे सींके शब्दों से भरा
अखबारी ठोला
अंतिम प्रेम पत्र-
झूले की तख्ती!
शब्द झूल रहे हैं पेंडुलम से,
स्मृति और वेदना के बीच,
धीरे-धीरे पेड़ विलग शाखा से!
अंतिम प्रेम पत्र-
हरा तोता!
बैठा बिषमुष्टि के वृक्ष पर।
सजल नयन से निहारता
मूक इश़्क!
12.बिंदु
उसकी बेतरतीब सी दुनिया में कहीं तो थी वह
एक बेजान बिंदु की तरह
वह बेजान बिन्दु
अब सांस और शब्द चाहती थी
उसने खींच दी एक मौन लकीर
और चुप्पी ओढ़कर सो गया
गंभीर निंद्रा में
बिंदु को लकीर बना देना
उसका विस्तार नहीं ,
उसे अस्तित्वविहीन करना है
उसे लकीर की फकीरी में मिला देना है।
13..आवाज़ की बुनावट को खोलती एक प्रेम कथा
मन की अल्मारी के किसी खूबसूरत कोने में
जहाँ नैप्थलीन बाॅल नहीं रखे हों
वहाँ एक हल्की सी रौशनी भी पहुँचती हो
वहीं तह और इस्त्री कर रखी हैं तुम्हारी
रवेदार आवाज के सारे कसीदे और बुनावट को
फुरसत में हम पहन लेते हैं आपके दिये शब्दों क
यह पैरहन बहुत जँचती है मुझपर!
14.काश
काश सड़कें बारिश से पहले बनती
और बारिश के बाद भी बनी ही रहती
किसी बड़े ठेकेदार का घर छोटा होता
जनता चकमक सफेद कुर्तों में निकलती
और नेता सारे साधारण कपड़ों में ,
काश कि एक दिन राजा काम पर न जाता
और उस दिन उसके पास खाने को कुछ नहीं होता
15.मैं रेत हूं
मैं रेत हूँ
तट पर पड़ी प्रतीक्षा करती
समुद्र को चारों तरफ से बांहों में समेटे
भींग जाती हूं
आती जाती भावों की बारंबार लहरों से
पर यह आवर्ती प्रक्रिया भर है
प्रेम जैसा है पर प्रेम नहीं
शायद प्रेम को बांधना
और फिर साधना नामुमकिन है
मैं भींगती तो हूं,पर उस इश्क को अवशोषित नहीं कर पाती
वह मेरे किसी कण के भीतर समा नहीं पाता
बस बाहर ही लगा रहता है
फिर मुश्किल दौर की उस धूप में मैं छोड़ देती हूं उसे
या वह उड़ जाता है मौका देखकर पता नहीं
कहा न ये इश्क नहीं संसर्ग है
संपर्क है जो गाढ़े वक्त में खत्म हो जाता है
चाहे कितना भी लंबा और आनंददायक हो
समुद्र और बालू का वही चिरकालिक रिश्ता है
संपर्क, संसर्ग और काम इच्छा वाला
भींगते भींगाते,सिमटते बहाते
आती जाती भावों की लहरों वाला
नियमित, आवश्यक, पारंपरिक
ठीक वैसा ही,जैसा वि…
16.कविता से लड़ सकोगे?
इस मौसम में मिज़ाज बदल लो
लड़ा बहुत धर्म ,ईमान और सम्मान के लिए
इस बार मेरी कविता के शब्दों से राड़ ठानो
ये औजार और मजदूर बनकर उठ
खड़े होंगे
और कस देंगे तुम्हारे हर ढ़ीले कल पुर्जे को
चल पड़ेंगे वे बंद कारखाने
जहां इंसान बनना कब से बंद था
क्या खोद रहे हो
गड़े मुर्दे काले अतीत के
मेरी कविता पर फावड़ा चलाओ
इसमें दबी हैं
जीर्ण कहानियों के अस्थिकलश में
खनकता अतीत
क्या चाहिए ?
बहुत तपा कार्बन अपररूप!
मेरी कविता से झांक रही है
आग की उम्मीद
वह कोयला
जो तुम्हारे
चूल्हे को गर्म रखेगा
जहर निगलकर मरना है?
तो चुन लो हीरा…
मेरी कविता को ऐसे हिलाना
कि फूट पड़े उससे ज्वालामुखी
किस क्रोध में तुम इतना आग उगलते हो
जल गये घर,छत,लोग, दुकानें और बेज़ान बसों
के साथ रोजी कितनों की
इस बार जलाना मेरी कविता को
ताकि उस पर सेंक सके भूखे नंगे प्यासे बच्चे
की माएं रोटी।
ऐसी रोटी
जिससे खून और किरासन की बू नहीं आती हो!
कल जोतना मेरी कविता को
फिर छींट देना कुछ बीज विचारों के
खड़ा बिजूका फसल के इंतजार में हैं
हरी सोचों को खड़ी होने की इजाजत है
मेरी कविता खेत हो गयी इसी इंतजार में।
बासी रोटी खाना
नमक हरी मिर्च और कच्चे प्याज
के साथ
पेट भरने का सबसे अच्छा तरीका
भूख भी मर जाएगी
और कुछ भी बासी नहीं रहेगा
तब तो नया पकेगा
नयी भूख मिटाने
के वास्ते
17..ब्याह जरूरी नहीं है बेटी
ब्याह जरूरी नहीं है बेटी
प्यार बहुत जरूरी है
रिवाज़ों की नहीं जरूरत तुमको
सम्मान बहुत जरूरी है
डरने की भी नहीं जरूरत
चौकस रहना जरूरी है
मां बनना जरूरी नहीं है
आत्मनिर्भर होना जरूरी है
पूजा पाठ और धर्म नहीं जरूरी
खुश रहना बहुत जरूरी है
नहीं मालूम मंदिर, ब्यूटी पार्लर और बाजार का रास्ता!
ये चलेगा
पर पुस्तकालय, दफ्तर और विश्वविद्यालय
तक पहुँचने के सारे रास्ते तलाश
सरपट दौड़ लगाना
उस भीड़ से
जो मंजिल के बहुत करीब हो
जो भी रोके रास्ता तेरा
उसे धकेल आगे बढ़ जाना
बहुत जरूरी है।
माता पिता कि हर बात यूँ ही मत मान लेना
माता पिता नहीं हैं देवता
अगर सभी के मात पिता
भगवान और ख़ुदा हैं
तो देखो न! इस भगवान और ख़ुदा
ने मिलकर कैसी दुनिया बनायी है।
18..कैद से मुक्ति
मेरी कैद से मुक्ति
किसी को कष्ट न दे
इसलिए बुरा बनूंगा
सब स्वंय छोड़ देंगे मुझको
मैं लगभग बंधनमुक्त
जिस दिन उस अंतिम अपने ने छोड़ा
उस दिन ही मुक्ति के आठ दरवाजें खुले
भीतर का गुब्बार निकला
मैं हो गया पहले से हल्का
मैं मांगने लगा था उधार
कई बार
लौटाता ही नहीं था
पहले उन अमीरों ने छोड़ा
जो पैसे, मेरे लिए छोड़ नहीं पाए
फिर मैं किताबें माँगने लगा
लौटाता हीं नहीं था
उन पढ़े लिखे लोगों ने दरवाजे बंद किये
जो किताबें मेरे लिए भूल नहीं पाए
फिर मैंने मुफ्त में ज्ञान मांगने लगा
यहाँ उन लोगों ने रास्ते अलग किये
जो मुझे मुफ्त में ज्ञान बाँट नहीं पाए
मै समय मांगने लगा
मसरूफ़ लोगों की एक बड़ी जमात
मुझे अनदेखा कर भाग गयी
मैंने प्रेम के बदले वस्तु मांगी
वे दे देते, पर उनके पास नहीं थी
सबसे विवश टूटन उस जुड़ाव ने झेला
हम हर बार रोए
हर बार और हल्के होते गये
जकड़े कितने बंधनों से मुक्त
बस एक देह की जेल
और सांस के बंधन से मुक्त तब हुए जब उम्र ने चाहा।
उम्र से मेरी बातचीत नहीं होती थी
वह मुझसे नहीं बोलती थी
बोलती तो उससे भी रूठ जाता
या उसे भी रूला देता
उसने जकड़ रखा था कस के,
चलती रही साथ साथ,
“न”से तालुक्कात थें उससे
इसलिए नहीं रूठ सका उससे
उम्र रहते नहीं टूट सका उससे
काश उम्र का भी कोई फोन नम्बर होता
यह देह और ये आडम्बर नहीं होता!
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