वरिष्ठ कथाकार राकेश तिवारी को इस साल इसी कहानी के लिए रमाकान्त स्मृति पुरस्कार दिया गया। साल भर में प्रकाशित कहानियों में किसी एक कहानी के लिए यह पुरस्कार दिया जाता है। जिन्होंने न पढ़ी हो वे पुरस्कृत कहानी पढ़ सकते हैं- मॉडरेटर
===========================
कोई पाँच साल पहले की बात है। हुआ यों कि जिस वक़्त मंगत राम बीड़ी के लिए गर्दन कटे मुर्गे की तरह फड़फड़ा रहा था, सुबह के पौने पाँच बज रहे थे। बीड़ी का बंडल खत्म हो गया था। पौ फट रही थी और बीड़ी को सौतन कहने वाली बसंती की नाक फुर्र-फुर्र बज रही थी। वह दबे पाँव घर से निकल पड़ा। निकल तो गया, पर दूर-दूर तक कोई दुकान खुली नहीं मिली। नशेड़ी जानते होंगे, जितना खोज में निकलो तलब उतना ही कलेजा बाहर को खींचने लगती है। मंगत बीड़ी की खोज में बढ़ता चला जा रहा था। वह ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता उजाला भी बढ़ता जाता और तलब भी। पर उम्मीद की किरण की तरह किसी दुकान का दरवाज़ा नहीं खुल रहा था। हालत यह हो गई कि वह हर पान-बीड़ी के खोखे के पास ज़मीन पर नज़र मार लेता कि कहीं कोई गिरी हुई बीड़ी ही मिल जाए। किंतु क़िस्मत में नहीं थी तो नहीं मिली। टोटे अवश्य मिल रहे थे, लेकिन बढ़ते हाथों को वह खुद ही धिक्कारने लगता और आगे बढ़ जाता। तभी सड़क किनारे एक फटा हुआ बटुआ उसे दिखाई दिया। उसने बेमन से उठा लिया। मंगत की घरवाली का कहना है कि उसे हरगिज़ यह नहीं करना चाहिए था। बीड़ी खोज रहे हो तो बटुआ काहे उठा लिये पगलवा ? बटुआ में कोई बीड़ी रखता है क्या ?
बहरहाल, मंगत राम ने बटुआ खोल कर देखा तो खाली था। बटुए फट जाएँ तो उन्हें खाली करके की फेंका जाता होगा। मंगत ने सोचा, जो अब तक कभी जेब में बटुआ नहीं रख पाया था। फेंकने का इरादा करते ही, पता नहीं उसके मन में क्या आया कि ठिठक गया। वह उसकी किनारे वाली छोटी जेब को दो उँगलियों से टटोलने लगा। बसंती माथे पर हाथ मार कर कहती है, धत् ! अगर वह बटुआ फेंक देता और उसकी छोटी जेब न टटोलता तो भी सब कुछ वैसा ही चलता रहता जैसा चल रहा था। लेकिन पता नहीं किसने मंगत की दो उँगलियों को बटुए की जेब में घुसड़ जाने को विवश कर दिया। उँगलियों से कोई काग़ज़-सा टकराया। खींच कर बाहर निकाला तो देखा पाँच सौ का एक हरियल नोट, जो तीन तह मोड़ कर रखा था। मज़ा आ गया। बटुए वाले भले (और भुलक्कड़) आदमी ने यह नोट वक़्त-ज़रूरत के लिए छुपा कर रखा होगा। पर भूल गया होगा बेचारा। उसने सोचा। दिन तो बड़ा शुभ रहा। बस, अब बीड़ी मिल जाए।
मंगत को बीड़ी दिलाने से पहले आपको बता दें कि बाद के वर्षों में मंगत राम की खूबसूरत और खुशमिज़ाज पत्नी ने एक दिन दुखी होकर कहा था— टोनही लक्ष्मी आदमी को चकरघिन्नी बना देती है। नोट न मिलता तो उसके पति की ज़िंदगी कुछ और होती और खुद उसकी ‘कुछ और’ न हुई होती। खैर, नोट मिलने पर मंगत राम की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। कुछ देर में एक ताज़ा खुलती दुकान में बीड़ी भी मिल गई। पर पाँच सौ का नोट पाने के बाद उसे जाने क्यों ऐसा लगने लगा कि किसी दिन उसे ठीक इसी तरह पाँच-पाँच सौ की गड्डियाँ भी मिल सकती हैं।
अब ज़रा इस स्वप्नदर्शी मंगत राम के बारे में जान लीजिए। वह दिल्ली के न्यू अशोक नगर इलाक़े में रहता है और मयूर विहार में एक हाउसिंग सोसाइयी के आगे फुटपाथ पर सिलाई मशीन लेकर बैठता है। आठ साल पहले उसका दुबला-पतला और खाँसता-खँखारता बाप इसी फुटपाथ पर इसी सिलाई मशीन के साथ बैठा करता था। तब मंगत उन्नीस का था। एक दिन बाप की साइकिल को किसी कार ने टक्कर मार दी और उसने मौके पर ही दम तोड़ दिया। कार वाला उस दिन फरार क्या हुआ, उसका आज तक पता नहीं चला। लोग बताते हैं कि पुलिस को पता चल गया था, लेकिन उसने मंगत राम को हवा नहीं लगने दी। बाद के वर्षों में, जब वह पंकज मास्साब के संपर्क में आया, एक दिन उसने मास्साब के सामने अपनी जिज्ञासा रखी। पुलिस ने भला क्यों नहीं चाहा होगा कि उसे कार वाले का पता चल जाए ? जवाब देने से पहले मास्साब गंभीर हो गए। बोले, “ग़रीब आदमी को हर बात नहीं बताई जाती। पता चलने पर किसी-किसी पर न्याय माँगने का फ़ितूर सवार हो जाता है। फ़ितूर सवार होने पर नुकसान किसी का नहीं होता। बेवजह उसी के जूते घिसते हैं। इसलिए पुलिस और प्रशासन का काम यह सुनिश्चित करना भी है कि चाहे कितने ही दोषी घर में बैठ कर ए.सी. की हवा खाते रहें, लेकिन एक निर्दोष ग़रीब के जूते नहीं घिसने चाहिए।”
मंगत राम को पुलिस और प्रशासन का ग़रीबों के प्रति यह हमदर्दी भरा रवैया बहुत अच्छा लगा। पिता का गुद्दी निकला सिर और कुचली हुई टाँगें एक क्षण के लिए याद आईं। फिर ओझल हो गईं। शुरुआती दिनों में लहूलुहान पिताजी हरदम आँखों में रहते। अगर कार वाले का पता चलता तो वह भी न्याय के लिए भटका होता। उसने खुद को तसल्ली दी। मास्साब सही कह रहे हैं। बोला, “हाँ जी, होइहि सोइ जो राम रचि राखा। इस महंगाई में बार-बार जूते कौन खरीद सकता है।” मास्साब ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। ठीक जा रहे हो बेटा। प्रशासनिक भाषा में इसी को सकारात्मक सोच कहते हैं।
तो जी, बाप की तेरहवीं निपटा कर मंगत राम अपनी माँ के साथ गाँव जाने को तैयार हो गया था। धक्का इस बात से भी लगा कि भीड़ का फ़ायदा उठा कर कोई देखते ही देखते दुर्घटनास्थल से उनकी साइकिल ले उड़ा। लाश के ठीक बगल से। वाह रे शहर। ऐसा उसने तेरह दिन में कई बार सोचा था। लेकिन जाने क्या हुआ कि इरादे ने धूप सेंकने निकली मछली की तरह चम्म-से पलटी खा ली। स्कूल को तो उसने दो साल पहले ही पीठ दिखा दी थी। लेकिन इस दौरान बाप से थोड़ा-बहुत हुनर सीखा था। वह उसकी छोड़ी सिलाई मशीन के साथ उसके क़ब्ज़े वाली ढाई गुणा तीन फुट की जगह पर बैठने लगा। यों तो उस जगह बैठने के लिए किसी और ने भी तिकड़म भिड़ाई थी, लेकिन सहानुभूति में सोसाइटी वाले मंगत राम को मना नहीं कर पाये। सोसाइटी के एक पदाधिकारी ने कहा था, “देखो भई, आजकल कंपटीशन बहुत हो गया। लेकिन फिर भी हमने तुम्हारा ध्यान रखा।”
“जी, मैं भी आपका ध्यान रखूँगा।” उसने कहा था। सार्वजनिक तौर पर यह जवाब सोसाइटी के पदाधिकारी को थोड़ा नागवार गुज़रा। अबे तू हमारा क्या ध्यान रखेगा ? हें ? पदाधिकारी का रक्तचाप बढ़ गया था। लेकिन बाद में मंगत राम ने उनके घर के फटे पर्दों में इस तसल्ली से सिलाई मारी कि उसे देख कर फिर कभी पदाधिकारी का खून नहीं खदबदाया। चूँकि ब्रांडेड और रेडीमेड कपड़ों के इस दौर में लोग सिलवाने के झंझट से मुक्त हो चुके थे, इसलिए मंगत राम अपने बाप की तरह ही कपड़ों के ऑल्टरेशन और जोड़-जंतर का काम करने लगा था। मसलन, पेंट या जींस की लंबाई कम करना, कमर घटाना, बढ़ाना ( अगर मार्जिन हुआ ) और ब्लाऊज व सलवार सूट चौड़े या चुस्त-दुरुस्त करना। इसमें कोई मोटी कमाई तो थी नहीं। किसी तरह दाल-रोटी चल रही थी। हाँ, चूँकि बसंती को मीठा बहुत पसंद था, इसलिए जब कभी ढाई सौ से ज़्यादा कमा लेता तो घर जाते हुए उसके लिए रसमलाई ले जाता था। ले जाना तो वह बहुत कुछ चाहता था, किंतु कुछ चीज़ें उसकी पहुँच से बाहर थीं और बच्चे के आ जाने के बाद प्राथमिकताएँ बदल गई थीं। अब बसंती को भी बाबू के लिए कुछ लाए जाने पर ज़्यादा खुशी मिलने लगी थी।
पाँच सौ का नोट पाने के चार दिन बाद की घटना है। एक बेडौल-सा आदमी बुलट पर बैठ कर आया और ठीक उसके ठीये के सामने ब्रेक मारा। वह सोसाइटी के बाहर का कोई अपरिचित था। उसने कुर्ता-पजामा पहन रखा था। पहली नज़र में मंगत को वह हलवाई लगा। बाद में पता चला कि वह या तो कोई छुटभैया नेता है या धार्मिक-सामाजिक कार्यकर्ता। वह अपनी पेंट की कमर खुलवाने आया था। मंगत ने कमर का जोड़ देखा। बताया कि एक इंच से ज़्यादा खुलने की गुंजाइश नहीं है। बेडौल आदमी संतुष्ट लगा। पैसे कितने लेगा ? उसने पूछा। मास्टर ने चालीस रुपए बताए। बेडौल तीस ले लेने के लिए चिरौरी करने लगा। मास्टर ने अपनी ग़रीबी का हवाला दिया। उस आदमी को जैसे ‘ग़रीबी’ शब्द ने बिदका दिया, “अबे काहे का ग़रीब ? अब तुम्हारे दिन भी फिरने वाले हैं।”
यह ज्योतिषी तो नहीं ? मंगत राम के पैर और सिलाई मशीन दोनों चौंक कर रुक गए। इस औचक सन्नाटे का लाभ उठाते हुए बेडौल आदमी ने बहुत ही धीमे स्वर में कुछ कहा। कहते हैं उसकी बात सुन कर मंगत राम किसी और ही दुनिया में पहुँच गया था। वह पुतलियाँ उलट कर अपनी ही पलकों के अंदर देखते हुए गुटरगूँ-गुटरगूँ बोलने लगा। चूँकि वह गुटरगूँ-गुटरगूँ बोलने लगा था इसलिए माना जाता है कि बेडौल आदमी ने लालकिले के बुर्ज से उड़ कर आए किसी कबूतर के बारे में बताया, जिसके पैरों में ग़रीबों के दिन फिरने का संदेश बँधा था। जब मंगत राम मंत्रमुग्ध-सा रह गया था, तभी बेडौल आदमी पेंट छोड़ कर सीटी बजाता हुआ बुलेट पर बैठा और भड़भड़ाता निकल गया। मास्साब के मुताबिक मंगत के दिल में चूँकि रसमलाई की शौकीन और बातूनी बसंती रहती थी, इसलिए लालकिले के उस सफ़ेद-शफ़्फ़ाफ़ कबूतर को बसने के लिए उसके दिमाग़ में जगह मिली। बस यहीं से शुरुआत हुई थी विकास का सपना देखने वाले महान लोकतंत्र के एक निरीह नागरिक की खोपड़ी में स्वप्न के विकास की।
तब तक मंगत राम, सरल आदमी तो था ही, मानसिक रूप से भी काफ़ी दुरुस्त था। थोड़ा बहुत तर्क वगैरह कर पाता था। उसने पत्नी को समझाया, “देख, अच्छा समय हमेशा बयाना-पेशगी लेकर आता है। पहले पाँच सौ का नोट मिला। अब ये आदमी आया। तीस-चालीस देकर ही जाएगा। इसीलिए संदेश पर भरोसा करना चाहिए। निराशा के दिन खत्म हुए समझ।”
पत्नी ने मन ही मन ईश्वर को याद किया और आकाश की ओर देख कर ‘आमीन’ जैसा कुछ कहा।
“बस, जैसे ही पैसे आएंगे सबसे पहले अपनी दुकान खरीदेंगे। दुकान में तू भी बैठेगी। मैं सिलाई करूँगा और तू पैसे काटेगी।”
बसंती की आँखें बसंती से ज़्यादा चुलबुली हो गईं। लेकिन प्यार से तुनक कर बोली, “मैं खाली पैसे काटने में टाइम ख़राब नहीं करने वाली। मैं भी सिलाई करूँगी। ज़्यादा गिराक आने लगे तो अकेले वक़्त पर कपड़े कैसे दोगे ?” पत्नी ने उसके सपने को लकड़ी लगा कर हिला दिया। एक अजीब-सी गंध आने लगी। एकदम स्वप्निल। उसे विश्वास हो गया कि सब अच्छा होगा। फुटपाथ पर सिलाई मशीन लेकर बैठने वाला मंगत न्यू अशोक नगर के किराये के एक घर में किसी तरह जिंदगी काट रहा था। लेकिन उस एक हफ्ते के भीतर घटी दो परस्पर सहयोगी घटनाओं ने उसकी ज़िंदगी बदल दी। वह एक भयंकर क़िस्म के अटूट विश्वास के कारण आदमी से मंगत राम बनने लगा। उसकी खुशमिज़ाज और युवा घरवाली की मानें तो उसके पति में इस अटूट विश्वास का बीज पाँच सौ रुपए के उसी टोनहे नोट ने बोया। यह बात गाँव की उस दसवीं पास युवती ने तब कही थी जब उसे मंगत के अटूट विश्वास की व्यर्थता का बोध हुआ। पंकज मास्साब की राय थोड़ा अलग है। उनके मुताबिक यह अनर्थ उम्मीदों को खदबदा देने वाले संदेश ने किया। जिसके बारे में कहा जाता है कि वह लालकिले के बुर्ज से उड़ कर आए कबूतर की टाँग में बँधा था।
बहरहाल, उस पर धीरे-धीरे ( उन दो घटनों का ) असर होने लगा। देखते ही देखते वह पूरी तरह एक ऐसे विश्वास की गिरफ़्त में आ गया जिसके सामने कोई तर्क नहीं टिकता। जो आस्था की तरह अटूट होता है। अब वह न्यू अशोक नगर में दुकानों की कीमत पूछने लगा था। चूँकि उसे विश्वास हो गया था कि उसका सपना सच होने वाला है, इसलिए वह लगे हाथों यह भी पूछ लेता कि कितने रुपए बयाना देना होता है, रजिस्ट्री होगी या पावर ऑफ अटार्नी से काम चल जाएगा। दुकान की थोड़ी-बहुत मरम्मत और रंगाई-पुताई में कितने लग जाएंगे। वह सारा हिसाब लगाकर तैयार रहने लगा। उत्साह में वह हर दो-चार दिन में बैंक के चक्कर काटने लगता और पासबुक पर एंट्री करवा कर लौटता। लौटते हुए उसका मुँह ज़रूर लटका होता। बसंती उसकी निराशा को समझ जाती। वह मंगत राम को एकटक देखती। उसे दया आने लगती। कहीं ये बेचारे अस्थिर तो नहीं होने लगे ? कहीं यह उसी टोनहे नोट का असर तो नहीं ? सोच-सोच कर वह खुद भी उदास हो जाती। मास्साब कहते— नहीं, यह हुआ है उस कबूतर के कारण। मंगत राम की खोपड़ी के अंदर एक सुखद सपना खमीर चढ़ कर फूल गया। सपना खोपड़ी से बड़ा होता जा रहा है। छोटे दिमाग़ वाले मामूली आदमी का सपना इतना बड़ा हो जाए तो ज़ाहिर है दिमाग़ का क्या होगा। वे गहरी साँस खींचते, “कबूतर ऐसी ही खाली खोपड़ियों में घोंसला बनाते हैं।”
रात में मंगत राम की खुशमिज़ाज घरवाली उसकी बिलबिलाती खोपड़ी में सरसों के तेल की मालिश करती। मंगत आँखें मूँद लेता। उसको अच्छा लगता। पंद्रह-बीस मिनट बाद वह अचानक उसका हाथ पकड़ कर ‘बस हो गया’ कहता तो बसंती मन ही मन ईश्वर को याद करती। कि चलो अभी सब ठीक-ठाक ही लगता है। होशोहवाश में हैं। हे ईश्वर। तू ही है रखवाला। वह दन्न-से मंगत के सीने पर गिर जाती।
पता नहीं मंगत अस्थिर हो रहा था कि चलायमान, लेकिन इतना अवश्य हुआ कि भाग्य पर और ईश्वर पर उसका भरोसा लगातार बढ़ता गया। बसंती को लगता था कि ईश्वर उन सबकी रक्षा करने वाला है। जबकि मंगत ईश्वर को अच्छे दिन लाने वाला मानता। वही है जो छप्पर फाड़ कर देता है। उसे विश्वास होने लगा, गिरा हुआ धन तो उसे पहले भी मिलता रहा है, इसलिए काला या सफ़ेद कैसा ही धन होगा, मिलेगा। हालाँकि इससे पहले धन के नाम पर एक बार उसे एक टुटियल घड़ी मिली थी, एक दिन, बहुत पहले, पचास रुपए और एक बार बीस रुपए का अधफटा नोट मिला। जिसे सेलोटेप से जोड़ कर उसने धुप्पल में सब्जी वाले को टिका दिया था। हाँ, एक बार गले की एक चेन भी मिली थी, जो नकली निकली। कबूतर के (संदेश सहित) दिमाग़ में बैठने और पाँच सौ का नोट पा जाने के बाद वह कुछ बड़ा सोचने लगा था।
यहाँ एक रहस्य की बात और। इधर वह मानने लगा कि देश में हर खाते-पीते आदमी के पास काला धन है। वैसे, कभी-कभार टीवी पर फिल्म देख लेने वाले मंगत पर फिल्मों का भी असर था। जो भी वजह हो, इन दिनों पहनावे और रहन-सहन में ठीक-ठाक लगने वाला हर शख़्स उसकी निगाह में संदिग्ध हो गया था। भारी-भरकम कार में चलने वालों के पास तो, वह मानने लगा, निश्चित तौर पर काला धन होता है। या फिर वे सब तस्कर-फस्कर होते हैं। इनमें से ज़्यादातर अपनी कार में अक्सर नोटों से भरा बैग, हीरों की मखमली थैली या सोने के बिस्किट वाला ब्रीफकेस लेकर चलते हैं। जिस दिन उसकी क़िस्मत खुलेगी उसी दिन किसी कार वाले की डिक्की या दरवाज़ा खुल जाएगा और ब्रीफकेस या बैग गिर पड़ेगा।
इस तरह उम्मीद से लवरेज मंगत गरदन ऊँची किए पासबुक में एंट्री कराता और नज़रें नीची किए सड़क पर चलता। वह थैलों और गत्ते के डिब्बों के प्रति भी हरदम सतर्क रहने लगा। इससे लाभ यह हुआ कि कभी-कभार उसे गिरी हुई चिल्लर मिलने लगी। कभी-कभी हेयरबैंड, रबरबैंड, हेयरपिन, नकली अंगूठियाँ, कान के बुंदे, बालियाँ, कमीज़ और पेंट के बटन, टूटे पैन और खुट्टल सामान, लोहा-लंगड़ व अगड़म-बगड़म भी मिल जाता। सतर्क निगाहों से लगातार नीचे देखने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि अब उसे सड़क किनारे गिरी छोटी-छोटी और मामूली चीज़ें भी बहुत स्पष्ट दिखाई दे जातीं। वह उन्हें उठा कर जेब के हवाले करता। इस तरह पिछले चार सालों में उसके घर में ऐसे मामूली कबाड़ का खासा बड़ा ढेर लग गया था। पंकज मास्साब कहते, भाग्य पर भरोसा करने वाले या तो कबाड़ी बन जाते हैं या कबाड़।
अब आप पूछेंगे कि हर बात में विशेषज्ञ की तरह टिप्पणी जड़ देने वाले ये पंकज मास्साब कौन हैं। तो चलो जी, वह भी सुन लो। मंगत राम और पंकज मास्साब का पहला परिचय अस्पताल की कतार में हुआ। मंगत अपनी पत्नी को लेकर आया था और उसे बेंच पर बैठा कर पर्ची बनाने के लिए लाइन में लग गया था। मास्साब खुद को दिखाने पहुँचे थे। दोनों आगे-पीछे खड़े थे। किसी ने मास्साब को ‘नमस्ते मास्टर जी’ कह कर संबोधित किया था। मंगत राम चौंका। रजिस्ट्रेशन काउंटर अभी खुला नहीं था और कतार में खड़े लोगों के पास आपस में झगड़ने और देश की चिंता के अलावा करने को कुछ नहीं था। उसने पंकज मास्साब से पूछ लिया, “आपकी दुकान कहाँ है मास्टर जी ?”
मास्साब को आश्चर्य हुआ। ‘मास्टर जी’ भी कह रहा है और दुकान भी पूछ रहा है। कौन है ये बौड़म ? खैर, मास्साब ने बताया कि उनकी कोई दुकान नहीं है। अच्छा तो किसी की दुकान पर काम करते हैं ? मंगत राम ने झट से अनुमान लगाया। पंकज मास्साब झल्ला पड़े। अबे क्यों दुकान के पीछे पड़ गया भाई, मैं स्कूल में पढ़ाता हूँ। अध्यापक हूँ। सुन कर मंगत राम खूब हँसा। लोटपोट होने की हद तक। मास्साब गुर्राए, “मसखरी सूझ रही है ?”
मंगत हँसते-हँसते माफ़ी माँगने लगा। बोला, मैं टेलर मास्टर हूँ। कभी-कभी लोग मुझे भी मास्टर जी कह देते हैं। मैंने आपको भी…। वह फिर हँसा। सुन कर मास्साब को भी हँसी आ गई। कहने लगे, चलो एक ही बात है। तुम कपड़ों के मास्टर और हम लड़कों के मास्टर।
अस्पताल में हुई इस मुलाक़ात के बाद मंगत राम और मास्साब के बीच अच्छा परिचय हो गया। यह प्रगाढ़ हुआ सुबह-सवेरे की मुलाक़ात के बाद। मास्साब सैर के लिए जिस सड़क से होते हुए पार्क की तरफ़ जाते वहीं मंगत राम भी ब्रीफकेस या मखमली थैली की टोह में निकलता। जिस तरह मंगत राम ने दिमाग़ में कबूतर का संदेश बैठा लेने के बाद नियमित बैंक जाना शुरू कर दिया था, उसी तरह पाँच सौ का नोट पा जाने के असर में मुँह अधंरे सैर पर निकलने लगा। मास्साब तो सड़क से होते हुए पार्क की ओर मुड़ जाते, पर वह चौकन्ना होकर किनारे-किनारे चलता और सीधी सड़क पर काफ़ी दूर तक निकल जाता। वापसी में वह सड़क का दूसरा किनारा पकड़ लेता। हालत यह हो गई कि वह कबाड़ बीनने वाले बच्चों के हाथ से गत्ते के डिब्बे या फटे-पुराने थैले वगैरह भी छीनने लगा। कहीं तस्करों का माल बच्चों के हाथ न लग जाए।
इस तरह सड़क पर सुबह अक्सर मास्साब और मास्टर की मुलाक़ात होने लगी। मिलते तो दुआ-सलाम होती और एक-दूसरे का हाल-चाल भी पूछते। एक दूसरी वजह भी इस परिचय को मित्रता की संभावना की ओर ले जा रही थी। मंगत राम का बेटा साढ़े तीन साल का हो रहा था और वह जानता था अगले साल बाबू का उसी सरकारी स्कूल में दाखिला कराना होगा जिसमें मास्टर जी हैं। संबंधों में घनिष्टता तब आनी शुरू हुई जब एक बार छुट्टी के दिन मास्साब मंगत राम के घर के पास से गुज़र रहे थे। मंगत उस वक़्त घर पर था। मास्साब और मंगत राम के घर के बीच चार गलियों की दूरी है। उसने मास्साब को चाय पीकर जाने का न्यौता दिया। मास्साब पहुँच गए। चलो भाई, तुम कह रहे हो तो पी लेते हैं। मास्साब ने बसंती को अस्पताल में देखा था। लेकिन दूर से। सामने से देखा तो उसमें एक अजीब-सा चुंबकीय आकर्षण पाया। खास तौर पर उसकी आँखों में। और उसकी तुतलाहट में भी, जो इतनी मामूली-सी थी कि बहुत मुश्किल से पकड़ में आती थी। बेशक बोलती बहुत थी। पर बातों से खींच लेती थी। मास्साब उससे काफ़ी प्रभावित हुए। इस तरह मास्साब के घर मास्टर का और मास्टर के घर मास्साब का आने-जाने का सिलसिला शुरू हो गया। इस दौरान मास्साब ने बसंती की बड़ी-बड़ी आँखों के पानी में एक छोटा बच्चा देख लिया। अपनी धुन में खेलता और खुशमिज़ाज बच्चा। जिससे हर किसी को प्यार हो जाए। मास्साब को भी बसंती की आँखों में खेलते बच्चे से लगाव होने लगा था। शायद यह बच्चे से नहीं बसंती से लगाव है, मास्साब समझ रहे थे। वे जानते थे कि एक अध्यापक को ऐसी इच्छाओं को कैसे कीलना चाहिए। बहरहाल, इसी दौरान धीरे-धीरे मंगत उनसे खुलने लगा। इतना खुला कि स्कूल में पढ़ाने वाले मास्साब बसंती की तरह ही मंगत राम को भी पढ़ने लगे। वक़्त-बेवक़्त वे मंगत की जिज्ञासा भी शांत कर दिया करते। उसके लिए इस दुनिया में मास्साब ज्ञान के जादूगर थे। जिनके पास उसके हर सवाल का जवाब था। जबकि मंगत की पत्नी को वे सम्मान करने योग्य बड़े और सलाहकार-से लगते। थोड़ा-थोड़ा अपने।
कई बार बैंक में भी मास्साब और मंगत की मुलाक़ात हो जाती। दोनों का खाता एक ही बैंक में था। एक बार मंगत पाँच सौ रुपए बचा कर जमा खाते में डालने आया था। ताकि पासबुक भरवाते वक़्त कोई नई एंट्री न पाकर बैंक का कर्मचारी झिड़के नहीं। साथ ही खाता हर हालत में चालू रहे। जब वह रुपए जमा करने के लिए लाइन में लगा तो अपने आगे खड़े व्यक्ति के हाथ में थैला देख कर चौंका। कहीं यह उसी के खाते में पैसे जमा कराने न आया हो। वह उचक-उचक कर उसकी जमा पर्ची में खाता संख्या और नाम देखने की कोशिश करने लगा। वह सब तो नहीं दिखाई दिया लेकिन रक़म की जगह एक खास संख्या नज़र आ गई, जिसके पीछे कुछ शून्य थे। कितने थे यह उसे ठीक से नहीं दिखाई दिया। लेकिन उन अंकों को देख कर उसकी आँखें फटी रह गईं। यह रक़म तो उसी के खाते में जमा हो सकती है। कबूतर के संदेश में भी इतनी ही रक़म का ज़िक्र था। सोच-सोच कर वह फड़फड़ाने लगा। जब खुद को रोक नहीं पाया तो उस आदमी के बाजू पर थपकी मार कर बोला, “मेरा नाम मंगत राम है जी।”
उसने घूर कर देखा, “हाँ, तो ?”
“कुछ नहीं, ऐसे ही बता दिया।…ताकि कोई कन्फ्यूजन न रहे।”
“किस बात का कन्फ्यूजन ?” कह कर उस व्यक्ति ने अपना थैला कस कर पकड़ लिया। मंगत का शक बढ़ गया। हो न हो यह आदमी मुझे मंगत राम मानने को तैयार नहीं। वह मुस्कराया। चल कोई बात नहीं बेटा। मेरे खाते में जमा किए तो पता चल जाएगा।
उसकी बारी आने के बाद जब वह निकल रहा था तभी मास्साब मिल गए। मंगत राम ने लाइन में खड़े आदमी को लेकर अपने मन की बात मास्साब को बता दी। मास्साब को पता था कि वह कबूतर के असर में है। वे उसके कंधे पर हाथ रख कर बैंक से बाहर ले आए और गुलमोहर की छाँव में खड़े हो गए। मंगत ने बीड़ी जला ली और मास्साब खैनी बनाने लगे। बोले, “इस तरह खाते में पैसा जमा करने कोई नहीं आता।” थोड़ा रुक कर उन्होंने निचले होंठ और मसूड़ों के बीच खैनी की चुटकी दबाई, “मेरी एक सलाह है मंगत। इस पागलपन से बाहर आओ। कबूतर के संदेश को न दिल पर लेना चाहिए और न दिमाग़ पर। इससे या तो दिल को चोट लगती है या दिमाग़ में सूजन आ जाती है। काम में मन लगाओ।”
अरे ग़ज़ब। मंगत ने मन ही मन सोचा। तो मास्साब को उससे ईर्ष्या हो रही है ? बोला, “मास्साब आप ग़रीब नहीं हैं ना। आप नहीं समझ सकते।”
पहली बार उसके मन में मास्साब के लिए अविश्वास पैदा हुआ। वह ग़ुस्सा होकर चला गया। मास्साब को उसी वक़्त लग गया कबूतर का असर बहुत गहरा है। इसका कुछ नहीं हो सकता। फिर तो काफ़ी दिनों तक मंगत राम उन्हें दिखाई नहीं दिया। कई बार उसका और बसंती का ध्यान आता। लेकिन स्कूल की व्यस्तता में भूल भी जाते। फिर एक दिन वे घूमते हुए उसके घर पहुँच गए। वह घर पर नहीं था। बसंती ने पानी पिलाया। मास्साब ने मंगत का हाल पूछा। चुलबुली बसंती की पनीली आँखों में रहने वाला बच्चा आज खेल नहीं रहा था, बल्कि गुमसुम और उदास बैठा था। वह बताने लगी, “हालत ठीक नहीं है। आजकल कई-कई दिन काम पर नहीं जाते।”
तो कहाँ जाता है ? मास्साब ने पूछा। पता नहीं, कुछ लंपट-से दोस्त बना लिए हैं। बड़ी अजीब बातें करते हैं। कभी इन्हें अपने साथ ले जाते हैं और कहते हैं छापामारी के लिए जा रहे हैं। खुद को पुलिस से ऊपर बताते हैं। कहते हैं, पुलिस क्या है हमारे सामने। हमारी बराबरी सिर्फ़ सेना से हो सकती है।
उसकी आवाज़ डूबने लगी तो अपने आप को संभाला। बोली, ये पगला गए हैं। जो कुछ वे लोग कहते हैं, उसी को सच मानते हैं। मुझे बात-बात में डपट देते हैं। कहते हैं, तू चुपचाप अपनी रसोई पर और बाबू पर ध्यान दे। आजकल मंदिरों के चक्कर भी बहुत काटते हैं। चलो, ये तो बुरी बात नहीं है। लेकिन ये क्या हुआ कि काम-धंधा छोड़ कर रोज़ मंदिर के काम से निकल जाओ। कभी-कभी तो गेरुवे वस्त्र पहन लेते हैं। मुझे डर लगता है, किसी दिन गृहस्थी न छोड़ दें।
वह रोने लगी। अगर मास्साब बगल में बैठे होते तो संभव है उनके कंधे का सहारा ले लिया होता। कमज़ोरी के उन क्षणों पर उसने शीघ्र ही काबू पा लिया। मास्साब ने उसे हिम्मत बंधाई और मंगत को समझाने का आश्वासन दिया। वे खुद भी बसंती के हाथ पर अपना हाथ रख देना चाहते थे, लेकिन नहीं रखा। केवल उसकी ओर देखते रह गए। बसंती की आँखों के पानी में रहने वाला बच्चा अपनी दोनों हथेलियों से आँसू पोंछ रहा था। मास्साब ने राहत की साँस ली। ऐसे में और क्या करें, उनकी समझ में नहीं आया। मंगत पर क्रोध आ रहा था। अंततः वे उठ कर जाने लगे तो बसंती भी खड़ी हो गई। बहुत देर से एक और बात बताना चाहती थी, लेकिन संकोच हो रहा था। आख़िरकार उसने कह दिया, “इनके जो नए दोस्त लोग हैं, उनमें से एक की निगाहें ठीक नहीं लगतीं।”
पंकज मास्साब के माथे पर बल पड़ गए। लेकिन अध्यापक थे। लफ़ंगों से मारपीट तो कर नहीं सकते थे। जाते-जाते पलटे, “बात करता हूँ मंगत से।”
उसके बाद कई दिन बीत गए लेकिन मंगत उन्हें नहीं मिला। सुबह की सैर के दौरान उनकी नज़रें उसे ढूँढती रहीं। पर उसने सुबह की सैर बंद कर दी थी। गिरे हुए धन के प्रति उत्साह और उम्मीद ठंडे पड़ते जा रहे थे। लेकिन दूसरे स्रोत से मिलने वाली रकम को लेकर भरोसा खत्म नहीं हुआ था। बहरहाल, मास्साब उसके घर नहीं जाना चाहते थे। बसंती का सामना करना और उसकी आँखों के पानी में रहने वाले बच्चे की उदासी देख पाना उनके लिए मुश्किल हो रहा था। उमड़ती सहानुभूति को कीलना भी तो बड़ा कष्टदायक है। इसलिए घर जाने की जगह वे दो बार मंगत के ठीये का चक्कर काट आए। पता चला वह कई दिन से नहीं आ रहा। कभी आता है तो घंटे-दो घंटे में निकल जाता है।
घर जाने के अलावा अब कोई रास्ता नहीं बचा था। मास्साब हिम्मत जुटा ही रहे थे कि पता चला एक दिन पहले मंगत ने बैंक में हंगामा खड़ा कर दिया था। किसी चश्मदीद ने, जो मंगत और मास्साब दोनों को जानता था, पूरा क़िस्सा इस तरह बयान किया—
सोमवार का दिन था। बैंक में काफ़ी भीड़ थी। अचानक मंगत अंदर घुसने लगा तो गार्ड ने उसे रोकने की कोशिश की। इतने में हल्ला मच गया। लोगों ने देखा, मंगत काली पेंट के ऊपर खाकी कमीज पहने हुए है। जिसे उसने पैंट के बाहर निकल रखा था। कमीज के ऊपर डाकुओं की तरह कमर की पेटी बँधी थी। यह पेटी उसने कपड़े की पट्टी सीकर खुद तैयार की थी, जिसके साथ उसने कूड़े में मिला बकल सी दिया था। इसी पेटी में उसने कटलरी सेट खोंस रखा था। चार चम्मचें थीं, चार काँटे थे और दो मक्खन लगाने की छुरियाँ थीं।
गार्ड ने टोका, “ये हथियार लेकर कहाँ जा रहे हो ?”
“ये हथियार नहीं अस्त्र-शस्त्र हैं।”
मंगत की ठसक देखने लायक थी। गर्दन ऐंठ गई थी। असल में पिछले एक वर्ष से वह जिन दोस्तों की सोहबत में था उन्होंने हाल ही में उसे यह कटलरी सैट भेंट करते हुए कहा था कि ये उसके अस्त्र-शस्त्र हैं। मंगत ने छुरी-काँटों को उलट-पुलट कर अविश्वास के साथ देखा। भला ये भी कोई अस्त्र-शस्त्र हैं ? साथियों में से एक ने काँटा हाथ में लेते हुए कहा था, “यह चतुर्शूल है। चार काँटों वाला शस्त्र। चतुर्शूल कभी सम्राट कनिष्क का शाही निशान होता था। इसे महासंहारक पाशुपतास्त्र समझो। …और एक बात गाँठ बाँध लो, छोटे शस्त्र हमेशा उपयोगी और ख़तरनाक होते हैं। ज़रा सोचो, एटम बम कौन जेब में लिए घूमता है और कौन रोज़-रोज़ चलाता है ?”
बात मंगत की समझ में आ गई और उसने कटलरी सेट को यूजर्स फ्रेंडली और महासंहारक हथियार मान लिया था। असल में मंगत का यह नया अवतार उसका नया स्वप्न नहीं बल्कि उसी स्वप्न का विस्तार था। दोस्तों ने एक बात उसके दीमाग़ में बैठा दी थी। कि मनुष्य का स्वभाव है, हम जो भी देते हैं सिर्फ़ अपनों को देते हैं। तुम्हें साबित करना पड़ेगा कि तुम अपने हो। यह जनवाने में तुम्हारी मदद हम करेंगे।
छुरी-काँटों और चम्मचों को अस्त्र-शस्त्र बताए जाने पर गार्ड भड़क गया— तब तो बिल्कुल अंदर नहीं जा सकते। उसने हाथ बढ़ा कर मंगत को पीछे धकेला। मंगत ने कमर में खुँसा स्टील का काँटा निकाल कर गार्ड पर तान दिया, “घोंप दूँगा चतुर्शूल।”
गार्ड हँसने लगा। ‘चतुर्शूल’ सुन कर कुछ और लोग भी हँस पड़े। मंगत को यह अपना अपमान लगा। उसने काँटा गार्ड के गले पर रख दिया। इस हरकत से गार्ड का धैर्य जवाब दे गया। उसने बंदूक के बट से ठेलते हुए उसे बैंक से बाहर कर दिया और धमकाया कि अगली बार अस्त्र-शस्त्र लेकर घुसने की कोशिश की तो गोली चला दूँगा।
इस घटना की ख़बर मिलते ही अगले दिन मास्साब मंगत राम के घर पहुँच गए। उस वक़्त शाम के सात बज रहे थे। बसंती की हालत उन्हें पहले से ज़्यादा ख़राब लगी। काफ़ी दुबला गई थी। बाल और कपड़े अस्त-व्यस्त थे। आँखों के पानी में खेलने वाला बच्चा ग़ायब था। मंगत घर से पैदल ही निकला हुआ था। उसकी साइकिल पंक्चर हो गई थी। पंक्चर जुड़ाने तक के पैसे नहीं थे। घर में उस दिन केवल डेढ़ किलो आटा बचा था। सब्जी के नाम पर तीन आलू थे, जिन्हें उबाल कर मंगत की पत्नी ने झोल-सा तैयार किया था और आटा गूँथ कर दरवाज़े पर खड़ी उसका इंतज़ार कर रही थी। बेटा जलेबी खाने की ज़िद ठाने हुए था। मंगत की पत्नी ने अभी-अभी उसे दो करारी चपत लगाई थीं। वह बुक्का फाड़ कर रो रहा था। मास्साब को देख कर बसंती हड़बड़ा गई थी। बच्चे को चुप कराने लगी। लेकिन बाबू चुप नहीं हो रहा था। आखिर बसंती ने सारा हाल कह सुनाया। मास्साब उठे और खैनी लाने के बहाने बाहर निकल गए। जब तक उसने चाय बनाई, वे बाज़ार से आधा किलो जलेबी लेकर लौट आए।
बसंती को बड़ी शर्मिंदगी हुई। उसने थैली से दो जलेबी निकाल कर बाबू के हाथ में दीं और थैली वापस मास्साब को थमाते हुए कहा, इसे घर ले जाइएगा, बच्चे खाएंगे। मास्साब ने बताया वे अभी शाम को ही घर में जलेबी ले गए थे। दुबारा कौन खाएगा। मंगत की पत्नी जान रही थी मास्साब झूठ बोल रहे हैं। उसने एकाध बार और अनुरोध किया और फिर जलेबियाँ रख लीं। मास्साब मंगत का हाल पूछने लगे। बसंती उदास हो गई। बोली कुछ नहीं। पर उसकी आँखें बोल रही थीं। मास्साब ने बताया कि उन्होंने कल बैंक में हुई घटना के बारे में सुना। इसीलिए आए हैं। बसंती के धैर्य का बाँध टूट पड़ा। उसकी आँखों के पानी में बच्चा लौट आया और रोते-रोते उसी पानी में डूबने-सा लगा। बसंती बोली, “पूरी तरह सनक गए लगते हैं। लफ़ंगे दोस्तों ने पता नहीं उन्हें क्या-क्या समझा दिया है। जब जहाँ चलने को कहते हैं, चल पड़ते हैं।”
मास्साब के दिमाग़ में कुछ और चलने लगा था। उन्होंने अचानक बसंती से पूछा कि अगर एक साथ ज़्यादा आटा पिसवा दिया जाए तो ख़राब हो जात है क्या ? बसंती की समझ में नहीं आया कि मास्साब को क्या हो गया। उन्होंने स्पष्ट किया, “अरे कुछ नहीं। गाँव से गेहूँ आ गया था तो एक साथ पिसवा दिया। इसलिए चिंता हो रही थी। लगता है ख़राब हो जाएगा।”
उन्होंने घर से बाहर निकल कर एक फोन किया और लौट आए। बातचीत फिर से मंगत पर केंद्रित हो गई। कुछ ही देर में मंगत लौट आया। आज वह गेरुए वस्त्र पहने हुए था। मास्साब को देख कर उसने हाथ जोड़े और चुपचाप उसी दीवान के एक कोने में बैठ गया, जिस पर मास्साब बैठे थे। उन्होंने गरदन घुमा कर मंगत को ऊपर से नीचे तक देखा। ग़ुस्सा तो बहुत आ रहा था लेकिन अपने ऊपर नियंत्रण रखना ही ठीक लगा, “यह क्या हाल बना रखा है ?”
“ऐसे ही। काँवड़ यात्रा की तैयारी चल रही है। इस बार मैं भी जाने की सोचता हूँ।”
“घर कौन देखेगा ? …अरे हाँ, मैं तो भूल ही गया। तुम्हारे लफ़ंगे दोस्त तो हैं।”
मंगत ने दबे स्वर में कहा कि उसके दोस्त लफ़ंगे नहीं हैं। बसंती फट पड़ी, “दूसरों के घरों में घुस कर औरतों पर नज़र रखने वालों को और क्या कहते हैं ?”
ऐसा नहीं हो सकता। वे लोग ऐसे नहीं हैं। मंगत ने सफ़ाई दी। बसंती को बहुत दुखा हुआ। मंगत उसकी जगह दोस्तों पर भरोसा कर रहा है ? उसने मास्साब की ओर देखा, “मैं मास्साब की इज़्ज़त करती हूँ। उनके सामने बोलना नहीं चाहती थी। लेकिन मज़बूर हूँ।” इतना कह कर वह मंगत से मुखातिब हुई, “तुम्हारा जो दोस्त है मोटा, वह दो बार मुझे गंदे इशारे कर चुका।”
सुन कर मंगत सन्न रह गया। कभी वह मास्साब की ओर देखता तो कभी पत्नी की ओर। अंततः मास्साब ने ही मुँह खोला, “देखो मंगत, तुम ग़लत दिशा में जा रहे हो। ये जो अराजकता की छूट है ना, इससे ग़रीब का सशक्तिकरण नहीं होता। तुम्हारी सनक का फ़ायदा उठाया जा रहा है। तुम्हारी घर-गृहस्थी यही दोस्त लोग लूट लेंगे। अब भी वक़्त है। संभल जाओ।”
मंगत ने सिर झुका लिया। मास्साब कनखियों से उसे देखते रहे। उसी समय मास्साब का चौदह साल का बेटा एक कट्टे में लगभग दस किलो आटा और कुछ सब्ज़ियाँ साइकिल पर रख कर वहाँ आ पहुँचा। उन्होंने सामान एक कोने में रखवा दिया।
मैंने बताया था ना, एक साथ साठ-सत्तर किलो आटा पिसा दिया था। मिल-बाँट कर निपटाना ज़रूरी है। अन्न की बर्बादी ठीक नहीं होती। सब्जी भी गाँव से ही आई थी। पता नहीं इतना क्यों भेज देते हैं। चार आदमी का परिवार है, कितना खाएंगे आख़िर। उन्होंने सफ़ाई दी। बसंती समझ रही थी। क्योंकि भूमिका मास्साब पहले ही बाँध चुके थे। आटा और सब्जी मँगाने के लिए ही उन्होंने पत्नी या बेटे को फोन किया होगा। जानती थी वे इसी तरह करते हैं। ताकि दूसरों को लगे ही नहीं कि मदद की जा रही है।
उसकी नज़र में मास्साब आज कुछ ज़्यादा बड़े हो गए थे। इसलिए आटे और सब्जी के लिए ‘ना’ कहने की जगह वह कभी फर्श को तो कभी कनखियों से मास्साब को देखती जा रही थी। मास्साब उठे और छत को देख कर इस तरह बोले जैसे हवा को संबोधित कर रहे हों— जिस पुलिस से तुम ऊपर हो गए हो, वह आज नहीं तो पाँच साल बाद सही, दौड़ा-दौड़ा कर मारेगी।
मन खिन्न हो गया था। मंगत को देख कर क्रोध से अधिक घिन आने लगी थी। उनके लिए वहाँ टिकना मुश्किल हो गया। घर से निकलते हुए उन्होंने मंगत की ओर देख कर कहा, “खैर चलो, करो यात्रा की तैयारी। मोटे को कह जाना घर का ध्यान रखे।”
उनकी यह बात मंगत के सीने में भाले की तरह लगी। मास्साब के निकलते ही मंगत ने उन्हें एक भद्दी-सी गाली दी। पत्नी तड़प कर रह गई। शर्म करो। अब तुम्हें आदमी की पहचान भी नहीं रही।
बसंती की बात उसे और अधिक चीर गई। मानो उसने मास्साब का घोंपा भाला बेरहमी से खींच कर निकाला हो। बसंती अचानक रोने लगी। रोते-रोते ग़ुस्से से उठी और मंगत की छुरी-काँटे वाली बेल्ट उठा कर घर के बाहर कूड़ेदान की तरफ़ उछाल दी।
मंगत लपक कर बसंती की ओर झपटा। पर उसका उठा हुआ हाथ हवा में ही रह गया। अगले ही क्षण वह ग़ुस्से से अपने गेरुए वस्त्र फाड़ने लगा। फिर दीवान पर धड़ाम्-से बैठ गया और माथा पकड़ कर रोने लगा। पत्नी समझ नहीं पा रही थी कि मंगत पर ख़ब्त सवार हो रही है या पश्चाताप है। शायद पश्चाताप के ही आँसू हों। उसने सोचा। खुद उसकी आँखें एक बार फिर डबडबा आईं। बेचारे। दीमाग़ पर असर है। वह उठ कर अंजुरी में सरसों का तेल भर लाई और मंगत के सिर पर ठोंकने लगी। शायद तरावट आए। मंगत चुपचाप सिर दिये रहा। वह अब भी रो रहा था और उसे देख कर बसंती भी रोये जा रही थी। हैरान और परेशान बाबू दोनों को बारी-बारी से टुकर-टुकर देख रहा था।
The post राकेश तिवारी की कहानी ‘मंगत की खोपड़ी में स्वप्न का विकास’ appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..