प्रदीपिका सारस्वत कश्मीर में लम्बा समय बिताकर अभी हाल में लौटी हैं। कुछ कविताओं में घाटी के दिल के दर्द को महसूस कीजिए- मॉडरेटर
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कश्मीर पर तीन कविताएँ
ऑप्रेसर
मैं एक व्यक्ति थी
मेरा एक नाम था, एक चेहरा
उसी की तरह
मैं उससे जब भी मिली
हमने बातें की
धरती पर रंगों को बचाने के बारे में
हमने दोहराया कि लाल रंग महज़ ख़ून से बावस्ता नहीं
और सफ़ेद कितना ख़ुशहाल हो सकता है
हमने नज़रअंदाज़ किया
कँटीली तारों के धुँधले रुपहले
और बंदूक़ों के काले, मटीले रंगों को
और एक दिन जब अपने-अपने घरों से निकलते हुए
हमारे रास्ते रोके गए
तो मैंने चुनी लंबी राह
उस तक पहुँचने को
और उसके हिस्से आई तारों की तेज़ धार
सफ़ेद लिबास पर लहू का सुर्ख़ रंग
अब मैं एक ऑप्रेसर हूँ
मेरा नाम और चेहरा नहीं है
और उसका?
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सब्ज़ दलदल में
पानी के ऊपर का एक शहर
है आग और बारूद की ज़द में
ख़ौफ़ यूँ है कि ख़ाली मकानों से
गुल हैं रौशनियाँ
अब यहाँ कौन आएगा
झील के मैदान हो जाने तक
बस जज़्ब होते जाते हैं
एक सब्ज़ दलदल में
रात को थक हार कर
घर लौट आने के ख़्वाब
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एक अजनबी मुल्क में
एक अजनबी मुल्क में
जब रातें हो रही हों लंबी और सर्द
और काम के घंटों के सहारे
तुम जी रहे हो ठंडे, उदास दिन
जबकि उनसे गुज़रते हों
धूप में सुर्ख़ हुए चेहरे
सिगरेट जलाती उँगलियाँ
चाय-कुलचे परोसते हाथ
और पकते हुए भात की नमकीन ख़ुशबू
और इन तमाम काग़ज़ी तस्वीरों के बीच
न बची हो कोई जगह
तुम्हें बेवक्त आ जाने वाली हिचकी के लिए
तो एक दिन होगा कि ये अजनबी चेहरे, उँगलियाँ, हाथ और ख़ुशबू
तस्वीरों से निकल कर बढ़ने लगेंगे तुम्हारी ओर
तब तुम सोचोगे कि तुम महज़ एक काग़ज़ हो
किसी ठंडे, सख़्त पेपरवेट के नीचे दबे हुए
तुम्हारे अपने प्रेत तुम्हें डराने आएँगे
इन सारी अनजान सूरतों में
उस वक़्त
अगर तुम याद रख सको
तुम्हें बचा ले जाएगा
एक छोटा सा जन्तर
तुम्हें अपने सीने में भरनी होगी पूरी साँस
और आने देनी होगी हिचकी
एक अजनबी मुल्क में
अजनबी और कोई नहीं
सिर्फ़ तुम होते हो
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