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एक ही देश में कई तरह की दिवाली है

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आज उदय प्रकाश जी का यह लेख ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में आया है। दीवाली के बहाने एक सारगर्भित लेख, जिन लोगों ने न पढ़ा हो उनके लिए- मॉडरेटर

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जो लोग जरा-सा भी देश के पर्वों-त्योहारों की परंपरा, उनकी जड़ों, उनके इतिहास का ज्ञान रखते हैं, वे बिना उलझन कहेंगे कि हमारे लगभग सभी त्योहार खेती और व्यवसाय के साथ सदियों से गहराई के साथ जुड़े हैं। इसे और आसान भाषा में कहें, तो किसी भी बड़े उत्सव की सरहदों का दायरा उतना ही बड़ा होता है, जितने बड़े इलाके में रहने-जीने वाले आम लोगों के जीवन से वह जुड़ा होता है। दिवाली भी एक ऐसा ही लोक-पर्व है, जिसका दायरा राष्ट्रीय या अखिल भारतीय है। होली या दिवाली जैसे त्योहारों का मालिकाना साधारण जनता का होता है, किसी दल, कंपनी या सरकार का नहीं। इसीलिए बैटमैन  और वाचमैन  जैसे बेहद लोकप्रिय अंग्रेजी कॉमिक्स के मशहूर लेखक एलन मूर का यह कथन अब बार-बार दुहराए जाने वाली कहावत बन गया है कि ‘जनता को सरकार से नहीं, सरकार को जनता से डरना चाहिए।’ जनता के जीवन में दिवाली जिस रूप में आती है, वह उसी तरह की दिवाली मनाती है।

इस अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा दो राज्यों के लोगों को दी गई दिवाली की बधाई का एक अर्थपूर्ण और प्रतीकात्मक महत्व बनता है। ये दोनों राज्य हैं- महाराष्ट्र और हरियाणा। दोनों ऐसे राज्य हैं, जो कृषि और औद्योगिक आधुनिकता के लिहाज से अपने देश में विकास के दो सबसे अहम मॉडल हैं। महाराष्ट्र और हरियाणा की अधिकांश जनता किसान है। पहले के पास मुंबई है, देश की आर्थिक राजधानी, तो दूसरे के पास गुरुग्राम है, जो विकास का ग्लोबल मॉडल बन रहा है।

दोनों राज्यों में जिस तरह से चुनावी जीत या हार के अलग-अलग अर्थ हैं, ठीक उसी तरह से दिवाली के भी अलग-अलग अर्थ हैं। महाराष्ट्र में 10-15 प्रतिशत लोग ऐसे होंगे, जिनके लिए दिवाली वैसी नहीं है, जैसी समृद्ध वर्ग के लिए है। समृद्ध वर्ग में भी विभाजन है। एक समृद्ध या मध्य वर्ग वह है, जो धूमधाम से दिवाली मनाता है और एक वर्ग वह भी है, तो फिजूलखर्ची, पटाखे और शोर के विरुद्ध है। मुंबई, दिल्ली जैसे बड़े शहरों में ही नहीं, लखनऊ, पटना, रांची जैसे शहरों में भी दिवाली मंद पड़ने लगी है। पर्यावरण के प्रति चिंता बढ़ी है। पटाखों का समय तय हो रहा है। जैसे-जैसे आर्थिक, औद्योगिक विकास बढ़ रहा है, दिवाली नहीं मनाई जा रही है या केवल कार्ड और शुभकामनाओं तक सिमट आई है। न तो दिवाली की रोशनी पहले जैसी है और न होली के रंग पहले जैसे बिखर रहे हैं।

यह दिवाली तब आई है, जब भारतीय मूल के अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी को अर्थशास्त्र में नोबेल मिला है। उनके द्वारा दिए गए आर्थिक फॉर्मूले का इस्तेमाल करने वाली पार्टी विपक्ष में है, लेकिन ताजा चुनावी परिणाम देखिए, तो आज विपक्ष की ताकत को बहुत घटाकर भी नहीं देखा सकता। आज कौन इनकार करेगा कि वंचितों की संपन्नता के लिए गंभीर पहल और विकास के वैकल्पिक मॉडल की जरूरत है। एक ओर, गरीबों की चिंता कर रहे अभिजीत बनर्जी हैं, तो दूसरी ओर हमें यहां ज्यां द्रेज भी याद आ रहे हैं, जिन्होंने मनरेगा जैसा मॉडल दिया। अब उन्हें सड़कों के किनारे गरीबों के साथ फटे-चिथड़ों में रोटी खाते भी देखा जाता है। उनका हुलिया उन्हीं किसानों से मिलता-जुलता हो गया है, जिनकी आज सबसे ज्यादा उपेक्षा हो रही है। ऐसे अर्थशास्त्रियों के ज्ञान की रोशनी हमारे अंधेरों को किनारे लगा सकती है।

दिवाली पर सबसे बड़ी पूजा महालक्ष्मी की होती है। हर कोई लक्ष्मी के आने की बाट जोहता है। लक्ष्मी सिर्फ नकदी या कैशलेस ट्रांजेक्शन से नहीं, बल्कि फसल, अन्न और श्रम से उपजे अन्य उत्पादों से भी आती हैं। सबको समृद्ध होना है। उनकी भी चिंता हो, जिनकी जीवन भर की कमाई बैंकों में डूब गई। यह दावा किया जा रहा है कि हमारे देश के आर्थिक विकास की गति एशिया में सबसे तेज है, जबकि इसी एशिया में हमारी सबसे बड़ी टकराहट उस चीनी ड्रैगन के साथ है, जिसकी अंतरराष्ट्रीय व्यापार में हिस्सेदारी निरंतर बढ़ रही है। हमारे यहां पटाखे, उपहार और यहां तक कि लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां भी चीन से आ रही हैं, क्योंकि चीन सब कुछ बना रहा है। हमें किसने रोका है? क्या हम अपनी दिवाली अपने दम पर मना सकते हैं?

संपन्नता मापने का एक तरीका होता है उपभोग। सोचा गया था कि तमाम तरह के आर्थिक प्रयासों-प्रोत्साहनों से 15 प्रतिशत की आबादी के पास इतनी क्रय-शक्ति आ जाएगी कि सबकी दिवाली जगमग हो जाएगी। जहां महाराष्ट्र, हरियाणा जैसे राज्य हैं, वहीं बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्य भी हैं, जहां सुशासन से मोहभंग के प्रारंभिक संकेत मिलने लगे हैं। उत्तर प्रदेश के उस क्षेत्र में, जो सांस्कृतिक परंपराओं के मामले में पूरे देश का प्रतिनिधित्व करने का दावा करता है, अब भी धर्म के पासे फेंके जा रहे हैं। चुनाव जिस तरह प्रबंधन और रणनीतियों से जीते जा रहे हैं, आने वाले पांच-दस साल तक ऐसे ही चुनाव होते रहेंगे, सरकारें आती-जाती रहेंगी, लेकिन हम प्रार्थना करेंगे, उम्मीदें बांधेंगे कि दिवाली और होली के उजाले और रंग तमाम संकीर्णताओं को पार करते हुए इस देश को फिर एक बनाएं। त्योहार ही देश बनाते हैं, राजनीति नहीं।

हम न भूलें, दिवाली से ठीक पहले मानसून ने भी कहर बरपाया है। एक ही देश में कई तरह की दिवाली है। दिवाली पर समाज के विरोधाभास भी सामने आ जाते हैं। ग्लोबल होते गुरुग्राम वाले राज्य में मध्यकालीन खाप पंचायतें भी हैं, जिनसे हमें आगे निकलना होगा। केवल दिवाली ही नहीं, देश की छवि भी चमकदार हो। क्या हमारे विकास की रफ्तार बांग्लादेश से भी नीचे जा रही है? मॉब लिंचिंग इत्यादि का बहुत हल्ला है, वैसा शानदार उत्सवी माहौल नहीं बन रहा है, जैसा बनना चाहिए। संपन्नता के लिए निवेश जरूरी है। निवेश से ही क्रय-शक्ति बढ़ती है। विदेशी निवेश में बहुत मामूली बदलाव है, सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण से काम चलाया जा रहा है। हमें घाटे और कर्ज की दिवाली से उबरने की कोशिश करनी चाहिए।

किसी भी त्योहार में जोश और जुनून युवाओं से ही आता है। कहते हैं, दुनिया में सबसे ज्यादा काले बाल यहां हैं। इस युवा पीढ़ी को बेकार-बेकाम नहीं छोड़ना चाहिए। माल्थस का सिद्धांत कहता है, आबादी नष्ट कर देगी, लेकिन चीन ने इस सिद्धांत को झुठला दिया। चीन ने कहा, आबादी बोझ नहीं, पूंजी है। हम अभी वैसा नहीं कर पाए हैं। हमें देखना चाहिए कि हमने युवाओं को क्या-क्या दिया है? उनके दिमाग में क्या-क्या भरा है? कितने अंधविश्वास, कितनी मूर्खताएं? आज सच्चा देशभक्त वही है, जो सबको बचाएगा, जो सबकी खुशहाली के लिए व्याकुल होगा, जो नदियों और देश की प्रकृति, सभ्यता, संस्कृति, संसाधन को बचाएगा। केवल देश और भारत के नाम पर अच्छे-अच्छे नारों से काम नहीं चलेगा, उन नारों की रोशनी में सचमुच आगे बढ़ना होगा।

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