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ईशान त्रिवेदी की नई कहानी ‘उड़न’

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ईशान त्रिवेदी की कहानियाँ एडिक्टिव होती हैं- एक पढ़िए तो दूसरी पढ़ने की तमन्ना जाग उठती है। यह उनकी नई कहानी है उनके आत्मकथ्य के साथ-

‘जो हाथ आया वो पढ़ लिया’ वाले अंदाज़ में बचपन से खासी जवानी तक काफी कुछ पढ़ लिया था। गुंटर ग्रास से लेके पैकेट्स पे छपी मैन्युफैक्चरिंग डेट और इंग्रेडिएंट्स तक। फिर घर की चूल्हा चक्की ने एकदम पढ़ने नहीं दिया। खूब लिखा लेकिन सब सत्यानासी। औरों का तो नहीं जानता लेकिन टीवी और फिल्मों के लेखन ने मेरा तो कचूमर निकाल ही दिया। ५ फिल्में बनायीं। क्यों बनायीं किसलिए और किसके लिए बनायीं – आज भी समझ नहीं पाता। फिलहाल तो एक ठंडी सांस भर के और ‘खैर’ कह के काम चला लेता हूँ। और हाँ – ६ साल अभिनय भी किया था। सतही एक्टर्स की ‘दूकान’ ज्यादा नहीं चलती सो नहीं चली। बीच में कुछ कॉर्पोरेट्स में ऊंचे पदों पे भी काम किया। स्ट्रेस इतना कि दिन में कई बार बाथरूम जाके उल्टियां करता था। अब लिखना शुरू किया है। ये सोच कर कि वैसा सत्यानासी नहीं लिखना। कहीं तो ठहरूं।’

उस ज़माने में छोटे कस्बों में फ्रिज नहीं होते थे। बारिशों में सब्ज़ियाँ टिकती नहीं थीं। शुक्रवार के बाद सीधा बुधवार का हाट लगता था और वो भी मरगिल्ला सा। जब सब्ज़ी का टोकरा खाली हो जाता तो दादी और टुइंयाँ दादी घोघर के पार जंगल में जातीं और कुछ अडंग-बडंग चुन के लातीं। किसी के पत्ते तो किसी के डंठल तो किसी के फूल। जब ये छुँक के परोसा जाता तो स्वाद दिव्य होता। दोनों बुढ़ियों का सरकंडे की डोलचियाँ लेके जंगल में गुम हो जाना, मुझे बिलकुल वैसा लगता था जैसा प्रोग्रेस पब्लिकेशन की चित्रकथाओं में किसी रूसी राजकुमारी का जंगल से मशरुम चुनना। मेरी तमाम ज़िद के बावजूद दादी मुझे कभी अपने साथ नहीं ले जाती थीं। छोटा बच्चा, जंगल – यही सब रहा होगा उनके दिमाग में। वो जितना मना करतीं मेरे मन में उनके ये एडवेंचर्स और भी तिलिस्मी होते जाते। आखिर एक दिन उन्होंने हामी भर ही दी। बारिश तो पिछले चार दिन से नहीं हुई थी लेकिन तेज़ हवाओं ने दंद फंद मचा रखा था। पॉपलर के पेड़ दोहरे हो जाते और हवा कमीज में घुस के गुब्बारा हो जाती। डोलची पैराशूट की तरह जब खींचती तो लगता – छोड़ दो ज़मीन और आसमान हो जाओ। घोघर वैसे तो पिद्दी सी नदी थी लेकिन आज वो भी उफान पे थी। ये उस वख्त की बात है जब पहाड़ी नदियाँ तराई छू के भी चमकीली साफ़ बहती थीं। घोघर पार वो दुनिया थी जहां मैं पहले कभी नहीं गया था। पहले ऊंची ऊंची घास आई। कभी कभी कुछ सरसराता सा था उसमें। ‘घोडा-पछाड़ है’ – दादी ने डराने की कोशिश की, पर सांपों का डर मेरे मन में कभी से नहीं रहा। सांप, छिपकली, मुर्दे, भूत – ये सब मुझे कभी नहीं डरा पाये। घास के तुरंत बाद सीली हुई छाल वाले बड़े बड़े दरख़्तों का सिलसिला शुरू हुआ। मशरुम सीली खोइयों में पनप रहे थे। साफ़, चक्कत्तेदार और कभी कभी सुर्ख लाल। कंधे झुकाये पलाश का एक झुरमुट सिमलउआ पे छाता बना टिपटिपा रहा था। दादी और टुइंयाँ दादी को सब पता था। कहाँ जाना है और कहाँ क्या मिलेगा। हलके से छुँकी अमचूर वाली सिमलउए की सब्ज़ी – मेरे मुंह में इस स्वाद की यादें चटखारे भर रही थीं। सरकंडे की डोलचियाँ  बेथुआ, कुंठ और ढोल कनाली से भर गयी थीं। छोटे छोटे गुलाबी फूलों का एक गुच्छा टूइंया दादी की डोलची से झांकता हुआ मुझे देख रहा था। मैंने उसे मुंह चिढ़ाया तो तेज़ हवा के बहाने डोलची में बेथुआ के पीछे दुबक गया। झुरमुट से होके एक रास्ता जाता था जिसके दोनों तरफ दीमकों के ढूह थे। बारिशों में वो ढूह चिकनी मिट्टी से बनी सुराहियों से लग रहे थे। दूर दूर तक फैले। जैसे किसी जादुई क़िले तक पहुँचने का रास्ता हो। पता नहीं ये आँखों का छलावा था कि मुझे लगा उनके मुंह से भाप उठ रही थी। पता नहीं क्यों मुझे गिरदा याद आ गए। शायद दीमकों के ढूह की वजह से। जैसे घोघर उत्तर में वैसे ही ढेला पश्चिम में। मेरा क़स्बा दो छुट-नदियों के बीच बसा है। ढेला के उस पार है नगलिया। जैसे घोघर जंगलों को छू कर बहती है वैसे ही ढेला का पाट बासमती के खेतों से चोर सिपाही खेलता है। कभी दिखेगा तो कभी गायब हो जाएगा। वहाँ भी दीमकों के ढूह हैं। गिरदा की उंगली पकड़ कर मैं न जाने कितनी बार वहाँ घूमा था। गिरदा एक नक्सलाइट थे और जब वो मुझसे किसी होने वाली ‘क्रान्ति’ की बात करते तो लगता जैसे खुद से बात कर रहे हों। कभी कभी वो मुझे एक फ्रेंच लड़की के बारे में बताते जो उनके साथ दूर दिल्ली के किसी जे एन यू नाम के कॉलेज में पढ़ती थी। फिर कहते कि दुनिया की सारी क्रांतियाँ फ्रांस में ही शुरू हुई थीं। उनके पास एक ब्लैक एंड व्हाइट फोटो भी था जिसमें एक पेड़ के नीचे खड़े गिरदा और वो लड़की हंस रहे थे। शायद उस समय भी इतनी ही तेज़ हवा चल रही होगी क्योंकि उस लड़की के बाल उड़ रहे थे और बालों का एक गुच्छा उसकी एक चमकीली आँख के ऊपर से होता हुआ होठों पे ठहर गया था। वो लड़की मेरा पहला प्यार था। अपने घर की कच्ची छतों पे सुर्री मूँज वाली खाट पे लेट के मैंने न जाने कितनी बार उस लड़की से बात की होगी। लेकिन ये सब मैंने कभी गिरदा को नहीं बताया। गीली सुरहियों वाला रास्ता फिर से ऊंची घास के एक मैदान में बदल गया। दोनों दादियों के पीछे पीछे मैं भी घुस गया। अंदर जूता जूता पानी था और एक उड़न तश्तरी। चमकीला काला खोल जैसे कुएं वाले कछुओं की ढाल होती है। होगी कोई मेरे घर से एक चौथाई। या शायद उस से भी छोटी। दादी ने मुड़ के मेरी तरफ देखा। मेरा दिल बस पल भर पहले धक्क सा हुआ था और अब नसें कस रही थीं। दादी क्या कह रही थीं मुझे नहीं पता। आज भी याद करता हूँ तो बस कुछ शब्द भर याद आते हैं। एल्फा एक्स सेंचुरी। दिन में तीन बार पूजा करने वाली, ठण्ड के दिनों में भी अल्सुबह ठन्डे पानी से नहा के एक सूत की एक साडी में खाना बनाने वाली, सारा जीवन जिसने राम के चरणों में बिता दिया, वो दादी जिसने ज़िन्दगी में कभी पुरबई हिंदी छोड़ के कुछ बोला नहीं, वो इंग्लिश बोल रही थी। और ये उनकी आवाज़ को क्या हो गया था। वो ऐसी क्यों सुनाई दे रही थी जैसे मेरे कानों के पास तितलियों का झुण्ड पंख फड़फड़ा रहा हो। शायद वो इंग्लिश नहीं थी लेकिन मुझे उनका कहना इंग्लिश में समझ आ रहा था। एल्फा एक्स सेंचुरी, टोलिमान, द्रुवैस। फिर उस उड़न तश्तरी के खोल का एक हिस्सा सरकने लगा। दोनों दादियां अंदर दाखिल हुईं और उनके पीछे पीछे मैं। फ़्लैश गौर्डन के कॉमिक्स में मैंने जिन उड़न तश्तरियों को देखा था उनसे ये बहुत अलग थी। अंदर एक हल्की भूरी नीली सी रौशनी थी और उसके सिवाय कुछ नहीं था। ये रौशनी क्षितिजहीन थी। इसी भूरी नीली धुंध में बैटरी से चलने वाली व्हीलचेयर पे एक चश्मे वाला आदमी बैठा था। दादी ने मुझे उस से मिलवाया। स्टीफन हाकिंग। वो लोग क्या क्या बातें करते रहे मुझे कुछ भी समझ नहीं आया। बस इतना समझ में आया कि दादी और टूइंयां दादी द्रुवैस प्लेनेट से हैं और उनका परिवार याने की मैं भी एलियंस हैं। ये सब धीरे धीरे कैसे खुला, ये एक बहुत लम्बी कहानी है। मेरे जीवन जितनी लम्बी। हम यहाँ क्यों हैं, किसलिए, क्या हमारे अस्तित्व का कोई मक़सद है – इन सवालों से मैं पूरा जीवन जूझा हूँ। वापिस अपने लोगों के बीच न जा पाने के लिए हम क्यों अभिशप्त हैं? क्यों मुझे पराया बन कर जीना पड़ा? ऐसा कि कभी कोई समझा ही नहीं। बिलकुल उस बन्दर की तरह जो फोटो वाले उस पेड़ में पत्तों के पीछे छिपा दिखता भी नहीं जिसके नीचे खड़े गिरदा और वो फ्रेंच लड़की हंस रहे थे। ना तो कोई क्रांति आयी और न ही दादी का वो वायदा कभी पूरा हुआ कि देखना एक दिन हम वापिस द्रुवैस जाएंगे। कुछ साल बाद गिरदा को इमरजेंसी के दौरान थर्ड डिग्री टार्चर से हवालात में मार दिया गया। वो फ्रेंच लड़की लिओन में एक स्पोर्ट्स शॉप चलाती है। २०१० में जब मैं लोकेशंस देखने के लिए फ्रांस गया था तो उसकी दुकान से मैंने ऑलम्पिक ल्योनेस की एक जर्सी खरीदी थी। उसके बाल तब भी आँखों से होकर होठों पे ठहरे थे। टूइंया दादी विधवा थीं और जब उनका इकलौता बेटा मर गया तो वो भी कुछेक साल और जी। मेरी दादी ९० की होके मरीं। मैं तब दिल्ली में था। लोग कहते हैं जिस दिन वो मरीं, घोघर के पीछे से कुछ चुंधियाता सा आसमान में उठा और गायब हो गया।

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