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संपूर्ण क्रांति के बजाय हम विपरीत क्रांति के काले बादल देखते हैं

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आज लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जयंती है। उनकी किताब ‘मेरी जेल डायरी’ पढ़ रहा था। चंडीगढ़ जेल में जेपी ने यह डायरी मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखी थी जिसका हिंदी अनुवाद डॉक्टर लक्ष्मीनारायण लाल ने किया था और तब राजपाल एंड संज ने इसको प्रकाशित किया था। डायरी में 7 अगस्त की इस टीप पर ध्यान गया, जो संपूर्ण क्रांति को लेकर है। आप भी पढ़िए और लोकनायक को याद कीजिए- मॉडरेटर

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7 अगस्त

संपूर्ण क्रांति अब नारा है भावी इतिहास हमारा है। क्या अब यह इतिहास की विडंबना रहेगी। सभी जी हुज़ूर, बुज़दिल और चाटुकार अवश्य ही हम पर हंस रहे होंगे। उन्होंने सितारों को पाने की आकांक्षा की थी लेकिन नरक में गिरे। इस तरह वे हमारा उपहास कर रहे होंगे। विश्व में उन्हीं लोगों ने सब कुछ पाया है जिन्होंने सितारों को पाने की आकांक्षा की है चाहे इसमें अपने जीवन का उत्सर्ग करना पड़ा हो।

संपूर्ण क्रांति के बजाय हम विपरीत क्रांति के काले बादल देखते हैं। चारों ओर जिन उल्लू और गीदड़ों के चिल्लाने और गुर्राने की आवाज़ हम सुनते हैं उनके लिए यह दावत का दिन है। चाहे रात कितनी भी गहरी क्यों न हो सुबह अवश्य होगी।

किंतु क्या सुबह अपने आप ही होगी और हमें हाथ में हाथ धरे चुपचाप ही बैठे रहना होगा? यदि सामाजिक क्रांति को प्राकृतिक क्रांति के बाद आना है तो सामाजिक परिवर्तन के लिए मानवीय प्रयास के लिए कोई स्थान नहीं रहेगा। तो हमें क्या करना है? जी हाँ- जिन्होंने यह नारा उठाया और गीत गाया उन्हें अपने आपको क़ुर्बान करने के लिए भी तैयार रहना चाहिए और बलिदान की वेदी का जिसने पहला चुंबन किया वह अवश्य ही उनका नेता होना चाहिए। भ्रम छँट गए हैं और निर्णय ले लिया गया है।

काल रात देवी भगवती की पूजा करते समय मैंने इस अंधकार से निकलने का कोई मार्ग पूछा था और आज प्रातः यह उत्तर मुझे मिला। अपना मन शांत और निश्चिंत पाता हूँ।

प्रभा के जाने के बाद मुझे जीवन में कोई रुचि नहीं रही। यदि सामाजिक कार्य के लिए विशेष अभिरुचि विकसित न हुई होती तो मैं सन्यास लेकर हिमालय चला गया होता। मेरा मन भीतर भीतर रो रहा था लेकिन बाहर से मैं जीवन के सभी कार्यों में लगा हुआ था। मेरा स्वास्थ्य गिर रहा था। उदासी की इस घड़ी में कुछ अनायास बात हुई जिसके कारण मेरे भीतर प्रकाश हुआ। मेरा स्वास्थ्य भी ठीक होने लगा और मैंने नई शक्ति और उत्साह का अनुभव किया।

1973 का अंतिम महाने था। मैं पवनार में था। मुझे भीतर से प्रेरणा हुई कि मैं युवा वर्ग का आह्वान करूँ। मैंने उनके नाम एक अपील की और ‘लोकतंत्र के लिए युवा’ शीर्षक के अधीन उसे समाचार पत्र में छपने के लिए भेजा। मेरे अनुमान से बढ़कर इस अपील पर उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हुई।

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