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‘दूसरा इश्क’की पहली ग़ज़लें

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युवा शायर इरशाद खान सिकंदर के पहले इश्क का तो पता नहीं लेकिन उनका ‘दूसरा इश्क’ हाल में ही नुमाया हुआ है- ग़ज़ल संग्रह की शक्ल में. इसमें कोई शक नहीं कि वे नई नस्ल के सबसे नुमाइंदा शायरों में एक हैं. मोहब्बत के इस मौसम में राजपाल एंड संज प्रकाशन से प्रकाशित इनके इस नए दीवान की कुछ ग़ज़लें पढ़ते हैं- मॉडरेटर

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1
 
वही बस्ती वही सहरा वही रूदाद ज़िंदाबाद
नए दिन में हुई ताज़ा तुम्हारी याद ज़िंदाबाद
 
दिखा माँझी के सीने में तुम्हारा अज़्म जूँ का तूँ
सो बरबस ही कहा दिल ने मियाँ फ़रहाद ज़िंदाबाद
 
तिरे आने से मेरे घर में रंगत लौट आती है
तिरे जाने से होती है ग़ज़ल आबाद ज़िंदाबाद
 
वो जिन कामों से हमको लोग नाकारा समझते थे
उन्हीं की आज मिलती है मुबारकबाद ज़िंदाबाद
 
मिरे होने की भी लज़्ज़त तिरे होने से है सचमुच
तो मेरी जान के दुश्मन मिरे सय्याद ज़िंदाबाद
 
ये बीनाई मुबारक हो तुम्हें दिखने लगा अब तो
फ़जर से क़ब्ल का मंज़र इशा के बाद ज़िंदाबाद
 
मिरे मुर्शिद यक़ीनन तू छड़ी जादू की रखता है
तिरे शागिर्द सारे हो गए उस्ताद ज़िंदाबाद
 
ग़ज़ल का ग़ैन भी कहना न आया ठीक से लेकिन
ग़ज़ल पर बह्स करते हो मियाँ’ इरशाद’ ज़िंदाबाद
 
2
 
 
डूबता हूँ कि ऐ तिनके मैं उबरने से रहा
दूसरा इश्क़ मिरे ज़ख़्म तो भरने से रहा
 
देख मैं हो गया इन्सां से फ़रिश्ता और तू
इतना शैतान फ़क़त इश्क़ न करने से रहा
इब्तिदा चांदनी रातों से हुई थी अपनी
नश्शा यादों का तिरी ख़ैर… उतरने से रहा
 
तू न घबरा कि ये घबरा के चला जाएगा
देर तक दर्द मिरे साथ ठहरने से रहा
 
दश्त में उम्र कटी कैसे कटी ऐसे कटी
हौसला मुझमें तिरा अक्स उतरने से रहा
 
ज़िन्दगी तूने अजब शर्त लगाई मुझसे
दिल धड़कने से रहा और मैं मरने से रहा
 
गर कभी ख़्वाब ही ले आये तो आये वरना
पांव चौखट पे तिरी शख़्स ये धरने से रहा
 
3
 
कोई वजूद का अपने निशाँ बनाता जाऊं
मैं चाहता हूँ तुझे आसमां बनाता जाऊं
 
अगर मैं आ ही गया भूले भटके मकतब में
तो क्यों न तख़्तियों पे तितलियाँ बनाता जाऊँ
 
मिरे बग़ैर भी मिलना है तुझको दुनिया से
सो लाज़मी है तुझे काइयाँ बनाता जाऊं
 
मैं बन गया तो हूँ हिस्सा तुम्हारे क़िस्से का
मज़ा तो जब है कि जब दास्ताँ बनाता जाऊं
 
जहाँ जहाँ से मैं गुज़रूँ अँधेरे छंटते जाँय
ज़मीं पे नूर भरी कहकशाँ बनाता जाऊं
 
न मेरे बाद सफ़र में किसी को दिक़्क़त हो
ये मेरा फ़र्ज़ है पगडंडियाँ बनाता जाऊं
 
ज़मीनो-आसमां के दरमियाँ मुहब्बत की
मिरा जुनून है कुछ सीढ़ियाँ बनाता जाऊं
 
4
 
दिल की शाख़ों पर उमीदें कुछ हरी बांधे हुए
देखता हूँ अब भी तुमको टकटकी बांधे हुए
 
है ये क़िस्सा मुख़्तसर वो बंध गए घर बार में
और मुझको है मिरी आवारगी बांधे हुए
 
है यही बेहतर कि अब तुमसे किनारा कर लूं मैं
बात करते हो ज़बाँ पर तुम छुरी बांधे हुए
 
ख़ाक ये कब की ठिकाने लग चुकी होती मिरी
कोई तो शय है कहानी जिस्म की बांधे हुए
 
तेरी फ़ुर्क़त में पड़े हैं वक़्त से मुंह फेरे हम
मुद्दतें गुज़रीं कलाई पर घड़ी बांधे हुए
 
आज तक पूरा न उतरा तू मिरे अशआर में
मुझको मेरे फ़न से है मेरी कमी बांधे हुए
 
आये दिन करता ही रहता हूँ नया कोई सफ़र
कुछ पुराने ख़्वाबों की मैं पोटली बांधे हुए
 
चाँद तारे शब उदासी जब मुझे ज़ख़्मी करें
आंसुओं! यलग़ार करना ख़ामुशी बांधे हुए
 
 
5
 
चाँद की दस्तार सर से क्या गिरी
धूप की बौछार सर पे आ गिरी
 
आज मैं सबकी नज़र में आ गया
मेरी नज़रों से मगर दुनिया गिरी
 
जाओ तुम भी!भीड़ का हिस्सा बनो
एक लड़की फिर कुएँ में जा गिरी
 
रात मजबूरन हवस के पाँव पर
अपने बच्चों के लिये बेवा गिरी
 
आंसुओं के लाव-लश्कर साथ थे
कब मिरे बिस्तर पे शब तन्हा गिरी
 
इक पुरानी दास्ताँ की देन है
खेप ये जो ग़ज़लों की ताज़ा गिरी
 
हाथ से छूटा रिसीवर फ़ोन का
ताक़ से सिन्दूर की डिबिया गिरी
 
भूले-बिसरे लोग याद आने लगे
रौशनी मेरी तरफ़ बेजा गिरी
 
अब तो लाज़िम है कि हों जंगल हरे
फ़स्ल बारिश की बहुत बढ़िया गिरी

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