प्रसिद्ध लेखक रोमां रोलाँ ने ने महात्मा गांधी पर किताब लिखी थी, जिसका हिंदी अनुवाद सेंट्रल बुक डिपो, इलाहाबाद से 1947 में प्रकाशित हुआ था। अनुवादक का नाम किताब में नहीं है लेकिन इसका पहला संस्करण 2000 प्रतियों का था। आज उसी पुस्तक ‘महात्मा गांधी विश्व के अद्वितीय महापुरुष’ का एक अंश पढ़िए-
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बंकिम भौंहों तले श्यामल नेत्र, दुर्बल देह, पतला चेहरा, सिर पर सफ़ेद टोपी, खादी के वस्त्र, नंगे पैर।
वे शाकाहारी हैं और पेय पदार्थों में केवल जल ग्रहण करते हैं। ज़मीन पर सोते हैं- सोते बहुत कम हैं, काम अविराम करते हैं। ऐसा मालूम होता है मानो उन्हें शरीर की कोई चिंता ही नहीं। देखने से उनमें कोई असाधारणता नहीं मालूम होती, पर यदि कोई है तो वह है उनका निखिल अस्तित्व; असीम धैर्य और अनंत प्रेम ही उनका निखिल अस्तित्व है। दक्षिण अफ़्रीका में उनसे मिलकर पियर्सन को स्वभावतः ऐसिसी के सेंट फ़्रांसिस का ध्यान हो आया था। उनमें बालक सी सरलता है। विरोधियों के साथ उनका व्यवहार बहुत सौजन्यपूर्ण होता है। वे नम्र और अहमन्यता से दूर हैं, यहाँ तक कि कभी कभी ऐस मालूम होता है कि वे हिचक रहे हैं या किसी बात पर दृढ़ होने से दब रहे हैं, फिर भी उनकी अजेय आत्मा का अनुभव सभी को होता है। विश्वास और वास्तविकता के मध्य में उन्हें कोई आस्था नहीं है और वे किसी भी त्रुटि को छिपाने का प्रयास नहीं करते। अपनी ग़लती स्वीकार करने में वे निर्भय और निस्संकोच हैं। राजनीति की कुटिलता से वे अपरिचित हैं और व्याख्यान के प्रभाव से उन्हें घृणा है। यहाँ तक कि वे इसके बारे में कभी सोचते नहीं; और अपनी सेवा एवं प्रतिष्ठा में आयोजित उत्सवों से उन्हें स्वाभाविक हिचक रहती है। ‘पुजारी भीड़ के द्रोही’ उनके लिए यथार्थ रूप से उपयुक्त होता है। बहुसंख्यकता पर उन्हें अविश्वास है, वे भीड़ से बहुत डरते हैं और भीड़ के अनियंत्रित आवेशपूर्ण कार्यों के घोर निंदक हैं। अल्पसंख्यकों में उन्हें सुख मिलता है और विशेष सुख उन्हें आत्मगत होकर आंतरिक संदेश को सुनने से प्राप्त होता है।
इसी पुरुष ने छत्तीस करोड़ पुरुषों को विद्रोह में प्रविष्ट कराया और अंग्रेज़ी साम्राज्य की नींव हिलाते हुए राजनीति में गत दो हज़ार वर्षों के उच्चतम धार्मिक सिद्धांतों का समन्वय किया।
उनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी है।
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