सीमा मेहरोत्रा ने बीएचयू से अंग्रेज़ी में एमए करने के बाद अमेरिका के शिकागो शहर में रहकर पढ़ाई की। आजकल शिकागो के एक विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी की प्रोफ़ेसर हैं। हिंदी में कविताएँ लिखती हैं जो पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होती रही हैं। आज जानकी पुल पर पहली बार उनकी पाँच कविताएँ पढ़िए- मॉडरेटर
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राग–विराग
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जीवन बहा
समय की चलनी से
छलता रहा मन
चलता रहा तन
ढलता यौवन
फिर एक दिन
सार कहीं बह गया
प्यार यहीं रह गया
2. प्यार तुला
रिश्तों की तराज़ू में
जुड़ा हानि लाभ
किया गुणा भाग
राग से विराग
फिर एक दिन
गणित ही निपट गया
शून्य में सिमट गया
3. शून्य लिखा
जीवन के पन्नों पर
एक अंक छोह का
दूसरा बिछोह का
मोह से निर्मोह का
फिर एक दिन
लिखा सब मिट गया
प्रियजन सहित गया
बची बस धूल
चंद पूजा के फूल
स्मृति के पल
और नयनों में जल…..
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2
दादी माँ का पानदान
सलीक़े से सजा रहता था
दादी माँ का पानदान
हरे भरे सजीले पान के पत्ते
इतराते थे नेह की हल्की नमी से तर…
पुरकशिश रिश्ते में बँधा था
वो पान का बीड़ा
जहाँ चूने की तल्ख़ तेज़ी को
मंद करती थी कत्थे की सादगी
क़रीने से कतरी नन्ही
सुपारियाँ इठलाती थीं उस गिलौरी में
जिसमें रचीबसी थी
गुलकंद की मिठास
और इलायची की ख़ुशबू………
अब न दादी माँ हैं
न उनका पानदान
सूख गये वो हरे भरे पान के पत्ते
झर गये चांदी के रूपहले वर्क
और बिखर गयीं सब डिब्बियाँ
अब पानदान तो क्या
ख़ानदान के रिश्तों में भी
वो सलीक़ा या मिठास नहीं मिलती…
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3
गंगा के तट पर
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जाने क्यों ये मन करता है
सुख के वे कुछ पल मिल जायें
फिर ये सारा वैभव तजकर
आगत की चिन्ता विस्मृत कर
मस्तक पर चन्दन चित्रित कर
हम तुम फिर से बैठें मिलकर
गंगा के उस पावन तट पर
जाने क्यों ये मन करता है
जीवन की ये बहती धारा
वहीं कहीं पर फिर रुक जाये
जब मन्त्रों की स्वरलहरी थी
गुलमोहर की छाँव घनी थी
पीपल के धागे से लिपटी
मन की कोई आस बँधी थी
जाने क्यों ये मन करता है
सावन के बादल फिर बरसें
दूर कहीं मन बहता जाये
सपनों का इक लोक सजाये
कजरी के कुछ गीत सुनाये
सोंधी मिट्टी की वो खुशबू
मन प्राणों में फिर बस जाये
जाने क्यों ये मन करता है
अस्सी पे तुलसी बन जाऊँ
रामचरित से हृदय भिगो लूँ
सुनूँ कबीर की शीतल बानी
जग के सारे कल्मष धो लूँ
फिर प्रसाद के ‘आँसू’ पढ़कर
मन की कोई पीर संजो लूँ
जाने क्यों ये मन करता है……..
4
रोटी और रिश्ते
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सखी, एक कला होती है
रोटी बेलना और
रिश्ते निभाना भी
कहीं भावनाओं का पानी ज़्यादा
कहीं अधूरी ख़्वाहिशों की उठती ख़मीर
कहीं नौसिखिये हाथों से गढ़े
आड़े तिरछे नक़्शे
कहीं अभ्यस्त हाथों की
चिरपरिचित गोलाई
कहीं प्रेम की मद्धम आँच में
सुकून से पका मनचाहा स्वाद
कहीं उच्छृंखल जलन से
आयी अनचाही कड़वाहट
बस इतनी सी बात है सखी
उनमें कुंठा और निराशा की
शिकन ना लाना
क्यूँकि सिलवट भरे
रोटी और रिश्ते
परवान नहीं चढ़ते….
5
डोर
कुछ उलझी सी, कुछ सुलझी सी
कुछ गहरी सी, कुछ हलकी सी
कुछ खद्दर की, कुछ रेशम की
ये डोर तुम्हीं ने बाँधी थी
कुछ नेह भरी, कुछ मोह भरी
जब मिलती है तब बुनती है
कुछ रंग नये, कुछ छंद नये
गर तोड़ो तुम, बस कह देना
जो बीत गयी, सो बात गयी
बिसरा कर पिछली यादों को
जा चुन ले कोई राह नयी
मैं फिर भी उसका एक सिरा
अपनी उँगली में बाँधूँगी
शायद उन उलझे धागों में
अब भी लिपटी हो आस कोई….
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