दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ने से लेकर पढ़ाने तक के अनुभवों को लेकर एक लेख कल दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ। तीस साल पहले कंप्लीट अंग्रेज़ीदां माहौल में दिल्ली विश्वविद्यालय कैंपस में हिंदी के विद्यार्थियों के लिए परीक्षा पास होने से बड़ी चुनौती अंग्रेजियत की परीक्षा पास होने की होती थी। हम अपने मानकों पर नहीं उन अंग्रेज़ीदां लोगों के मानकों पर खरे उतरने की कोशिश कर रहे होते थे। हिंदी हमें हेय लगने लगती थी और अंग्रेज़ी श्रेष्ठ। हालाँकि उन्हीं दिनों आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हिंदी साहित्य का इतिहास में पढ़ा कि शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य के लिए जो मानक बनाया वह था ‘अंग्रेज़ी ढंग का’। यह ज़रूर है कि अब कैंपस में अंग्रेज़ियत का वह माहौल बदल रहा है, लेकिन क्या हिंदी का अपना कोई मानक विकसित हो पाया है जो अंग्रेज़ी ढंग का न हो? क्या हिंदी, हिंदी ढंग की हो गई है?
तीस साल पहले जब दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने आया था तो एक नया शब्द सुना था- एचएमटी यानी हिंदी मीडियम टाइप्स! बिहार के उत्तरवर्ती सुदूर क़स्बे से दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने आना अनुभव तो था हिंदी का विद्यार्थी होकर दिल्ली विश्वविद्यालय के कैंपस में पढ़ना न भूलने वाला अनुभव था। हम कॉलेज में होकर भी नहीं होते थे, कैंपस में होकर भी नहीं होते थे। क्योंकि हम हिंदी मीडियम टाइप्स होते थे। कैंपस कॉलेजों में हिंदी ऑनर्स और संस्कृत ऑनर्स का विद्यार्थी होना वैसे ही होता था जैसे गाँवों के बाहर अछूत कहे जाने वाले समाज की बस्ती। इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि आप अपने विषय में किस तरह के विद्यार्थी थे, अन्य विषयों में आपकी गति कैसी होती थी आप हिंदी वाले की छवि में ढाल दिए जाते थे। यह आम धारणा थी कि कैंपस कॉलेज में जिसका नामांकन किसी अन्य विषय में नहीं होता था वह कैंपस में पढ़ने के मोह में हिंदी या संस्कृत ऑनर्स पढ़ता था।
आप हिंदी के अच्छे विद्यार्थी हैं- इस बात का महत्व दूसरे विषयों के विद्यार्थियों को केवल तब समझ में आता था जब जब उनको अनिवार्य हिंदी के पेपर में पास होना होता था। उनके लिए अच्छे विद्यार्थी होने के बड़े प्रमाणों में एक यह था कि हिंदी के अनिवार्य पर्चे में तब तक फ़ेल होते रहें जब तक कि हिंदी में पास होने का अंतिम मौक़ा न आ जाए। हिंदी में फ़ेल होना अच्छे विद्यार्थी होने की निशानी मानी जाती थी। वैसी स्थिति में उनको मेरे जैसे टॉपर विद्यार्थियों की याद आती थी और परीक्षा के उन मौसमों में हम कुछ दिन इस बात के ऊपर गर्व महसूस करते थे कि अंग्रेज़ी, इतिहास जैसे हाई फ़ाई समझे जाने वाले विषयों के लड़के लड़कियाँ भी न केवल मुझसे हिंदी पढ़ने आते थे बल्कि हिंदी में पास करने लायक़ समझा देने के लिए आदर से थैंक यू भी बोलते थे। मुझे याद आ रहा है कि मैं उन दिनों कैंपस के हिंदू कॉलेज में छात्र कार्यकर्ता था और अपने आपको बाक़ी हिंदी वालों से विशिष्ट दिखाने के लिए लड़के लड़कियों के छोटे मोटे काम करवाया करता था। देखते देखते कॉलेज की लड़कियाँ मुझे भैया बुलाने लगी। बाद में समझ आया कि दिल्ली में रिक्शे वालों, सब्ज़ी वालों के लिए यह संबोधन आम था- जिससे हिंदी में बात की जाए वह भैया! बाद में यू आर अनंतमूर्ति का लेख पढ़ा था जिसमें उन्होंने यह चिंता व्यक्त की थी कि आने वाले समय में हिंदी जैसी भाषाएँ ‘किचन लेंगवेज’ बनकर रह जाएँगी यानी नौकर-चाकरों, मजदूरों से बातचीत की भाषा। यह सत्ता की भाषा नहीं बन पाएगी।
प्रसंगवश, यह भी बताता चलूँ कि केवल हिंदी-संस्कृत पढ़ने वाले विद्यार्थियों के साथ यह संकट नहीं था बल्कि कैंपस कॉलेजों में हिंदी माध्यम से इतिहास, राजनीतिशास्त्र पढ़ने वाले विद्यार्थियों के साथ भी दोयम दर्जे का बर्ताव किया जाता। यह हाल केवल विद्यार्थियों का रहा हो ऐसा नहीं था बल्कि स्टाफ़ रूम में हिंदी पढ़ाने वाले प्राध्यापकों को भी कोना पकड़ कर रहना पड़ता था या अंग्रेज़ी में संवाद करने की कोशिश करनी पड़ती थी। मेरे कॉलेज में मेरे एक प्रिय अध्यापक थे जो सालों तक हर कार्यक्रम में अंग्रेज़ी का एक गाना गाकर अपनी शान जताते रहे- ‘ओह, यू कैन किस मी ऑन अ मंडे, अ मंडे, अ मंडे इज वेरी वेरी गुड…’
पिछले लगभग पंद्रह सालों से दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में पढ़ाते हुए महसूस होता है कि यह अनुभव अब अतीत की बात हो गई है। पिछले कुछ सालों में दिल्ली विश्वविद्यालय ने ऐसा लगता है कि अंग्रेजियत का लबादा उतार दिया है। पिछले वर्षों में हिंदी के एक प्राध्यापक विश्वविद्यालय के शीर्ष पद पर भी पहुँचे यानी यूनिवर्सिटी के वीसी बने। इतिहास, राजनीतिशास्त्र की पढ़ाई हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों के लिए भी आम हो गई है। हिंदी पढ़ने वालों में अब पहले से अधिक आत्मविश्वास दिखाई देने लगा है। पहले हिंदी का विद्यार्थी अधिक से अधिक किसी सार्वजनिक निगम में हिंदी अधिकारी बनने का सपना देखता था, अब वह मीडिया की ग्लैमरस नौकरी के सपने देखता है। पिछले कई सालों में मैंने एचएमटी मुहावरा भी नहीं सुना। कॉलेज की गतिविधियों में हिंदी वाले कोना पकड़े नहीं दिखाई देते बल्कि वे बीचोबीच होते हैं।
लेकिन एक सच अभी भी नहीं बदला है- आज हिंदी पढ़ने वाले अधिकतर विद्यार्थी वही होते हैं जो किसी अन्य विषय में दाख़िला नहीं ले पाते!
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प्रभात रंजन
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