आजकल लेखन में ही कोई प्रयोग नहीं करता कविता में करना तो दूर की बात है। सब एक लीक पर चले जा रहे हैं। लेकिन कवि संपादक पीयूष दईया अपनी लीक के मार्गी हैं। कम लिखते हैं, लेकिन काया और माया के द्वंद्व में गहरे धँस कर लिखते हैं। सेतु प्रकाशन से प्रकाशित ‘मार्ग मादरज़ाद’ उनकी काव्य-कथा है, लेकिन इसकी धुरी कथाविहीनता है। इस अनंत ऋंखला से कुछ कविताएँ-मॉडरेटर
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“अचानक से एक बच्चा
रखता है तीन पत्थर
और कहता है-
यह मेरा घर है।”
मैं नहीं चाहता
मेरे बच्चे भी कभी रखें
-तीन पत्थर।
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वह विद्यमान है। विधाता। उसके रास्ते से गुज़रो।
पूरी तरह से भुला दिए गए।
रिक्त स्थल हैं।
वहाँ।
भींचे हुए जिन्हें नुकीले काँच-सा खुबता है शून्य।
लकीरें उसकी हथेली की।
क्या मार्ग हैं मकड़ीले?
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पता चलता कि उसके तथाकथित शब्द
किसी ग़ुब्बारे की तरह जितना फूलते जाते
वह भीतर से उतना ही खोखला होता जाता।
उसके खोखल ख़ाली नहीं होते,
सिफ़र का कौन जाने।
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उसे पता होता
कि कोरे में काग़ज़ का इल्म नहीं
पर कौन जाने वह उसी इल्म का कोर हो
जो काग़ज़ लिखने से उजागर होता हो,
कोरे में।
तब न वह कोरा रहता,
न काग़ज़
बस उजागर होता चला जाता।
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