अमृता प्रीतम और इमरोज का रिश्ता, जिसने कभी भी, किसी तरह के सामाजिक बंधनों की परवाह नहीं की। उन्होंने अपनी जिंदगी को अपने तरीके से जिया, सिर्फ एक–दूसरे की परवाह करते हुए। वे एक ही छत के नीचे दो अलग–अलग कमरों में रहते थे। पत्रकार-अनुवादक संगीता के द्वारा इमरोज से बातचीत के आधार पर तैयार यह संस्मरण सन 2003 मार्च में लिटरेट वर्ल्ड में प्रकाशित हुआ था। उन दिनों अमृता बहुत बीमार चल रही थीं, इमरोज का ज्यादातर वक्त अमृता के साथ ही बीतता था। संस्मरण का पहला हिस्सा पढिए।
तल पर, पार्किंग प्लेस से थोड़ा पीछे हटकर, एक कोने में स्थित है इमरोज की चित्रशाला, जिसे शीशे की दीवारों ने घेर रखा है। लेकिन सूर्य की किरणों को वहां आने–जाने की और वहां लगी पेंटिंग से छेड़–छाड़ करने की पूरी इजाजत दे रखी है इमरोज ने। कभी तेज तो कभी मद्धम किरणें उनकी पेंटिंग को कभी सहलाती, तो कभी झुलसाती भी रहती होंगी। इमरोज के रंगों और किरणों के पेंटिंग से नोक–झोंक क्या इमरोज को और भी नए रंगों से, जीवन के अनबूझ रंगों से या फिर प्रेम के स्वप्निल रंगों से नित–नया परिचय भी करवाते होंगे।
इमरोज की छोटी सी चित्रशाला में कुछ खाली पड़ी कुर्सियों और उनकी पेंटिंग्स के साथ बैठी मैं उन दीवारों पर टंगे चित्रों में रुचि लेने की कोशिश कर रही थी। उन चित्रों पर धूल की कुछ परतों ने भी अपना रंग चढा रखा था और मकड़ों ने भी कोने–कोने में जगह बनाते हुए अपने जालों से उन चित्रों पर प्राकृतिक रंग जहां–तहां से भर रखा था। शायद वे सब ये बता रहे थे कि अमृता के बीमार होने की वजह से इमरोज रंगों से दूरी बनाते जा रहे हैं सो वे ही आजकल वहां अपना रंग भरकर इमरोज की चित्रशाला को कुछ और भी नए रंगों से परिचय करवा रहे हैं। इधर मेरी आंखें चित्रों पर न जमकर उनमें दी गई विषयों पर रूकने लगी थीं। ‘गॉड इज द क्वालिटी ऑफ लव’, ‘प्रेयर इज नथिंग बट द मोस्ट रिफाइंड फार्मस ऑफ लव’, ‘ मैन इज ए विजिवल ट्री, वोमन इज लाइक रूट्स’, ‘ लव इज हाईर दैन गॉड’, ‘ लव इज द ग्रेटेस्ट आर्ट इन एक्जिसटेंस ’, ‘ इट इज द ग्रेटेस्ट लव दैट बिकम्स प्रेयर’। पर मेरा ध्यान उस दरवाजे की ओर ज्यादा लगा था जहां से इमरोज को आना था। दो साल पहले इमरोज से कुछ क्षणों की मुलाकात हुई थी, जब अमृता के इंटरव्यू के लिए वहां जाना हुआ था। कुर्ते–पायजामे में अपनी लम्बी कद लिए इमरोज से अमृता ने मेरा परिचय करवाया था ‘ये इमरोज हैं , बहुत अच्छी तस्वीरें बनाते हैं।’ इससे पहले ही मेरी नजर उनके बनाए उन पेंटिंग्स पर पहुंच चुकी थी जिसमें पहले की, फिर बाद की और हाल की भी अमृता ही अमृता थीं। और इधर, उन्होंने मेरे औपचारिक अभिवादन का जवाब दिया था। ऐसा करते समय उनके सामने से थोड़े लम्बे हो रहे दोनों तरफ के बाल चश्में के फ्रेम को छूने लगे थे, आंखें थोड़ी ढक सी गई थीं। क्या अब भी वे वैसे ही दिखते होंगे…कि सामने से आते इमरोज दिखते हैं। उनके वही बाल इस बार फिर चश्में के फ्रेम के उन्हीं हिस्सों को छू रहे थे… जैसे की पिछली बार। जैसे कि उन्हें ऐसा करने की आदत पड़ गयी हो। मैं अब तक पेंटिंग से निकलकर अपने ही विचारों में पता नहीं कब वहीं पड़ी कुर्सी पर बैठ गई थी सो इमरोज को अपनी तरफ बढ़ता देख उठ खड़ी हुई और औपचारिक अभिवादन हुआ। उन्होंने कहा था, ‘आप बैठिए , मैं अमृता को अटेंड करके आता हूं, वे बेड पर हैं।’ ‘मैं भी चलूं उन्हें मिलने।’ ‘नहीं।’ कहने के साथ ही उनके चेहरे पर आए भाव यही कह रहे थे कि अभी अमृता किसी से मिलना पसंद नहीं करेंगी… । और कुछ देर बाद इमरोज वापस आते हैं अपनी यादों को समेटने के लिए लिटरेट वर्ल्ड के संस्मरण स्तंभ की खातिर। और इस क्रम में उनके चेहरे पर कई बार, कितनी ही आड़ी–तिरछी रेखाएं खिंचती रहीं, बातों का क्रम बनता बिगड़ता रहा, जीवन के उन्हीं उतार–चढ़ावों की तरह जिसे खुद इमरोज भी शायद न गिन सकें।
उनका अफसाना शुरू ही कुछ ऐसे हुआ। अमृता को एक किताब का डिजाइन बनवाना था, किसी ने इमरोज का नाम सुझा दिया। इमरोज का उनसे परिचय भी करा दिया। वे पास–पास ही रहते थे, लेकिन कभी मिले नहीं थे। फिर उनका थोड़ा–थोड़ा मिलना–जुलना शुरू हुआ। और ऐसे ही मिलते–मिलते ज्यादा मिलना हो गया। और होते–होते बगैर किसी शर्त के आपस में यह तय हुआ कि वे अब इकट्ठे रहेंगे। तब अमृता का डॉयवोर्स होना बाकी था। इमरोज कहते हैं – ‘ऐसा नहीं था कि मेरी वजह से मैरिज टूटी या उन्होंने तोड़ी। मैरिज तो थी ही नहीं। कोई घर आदमी तोड़ता नहीं है। जिसको हम तोड़ना कहते हैं वे पहले ही टूटा होता है। दूसरे मकान का तभी सोचा जाता है। जब पहला टूटा हुआ होता है। लेकिन वो नजर आए या ना आए, ये और बात है।’
तो ऐसे ही उनका साथ–साथ रहना शुरू हो गया। डाइवोर्स तो हुआ ही नहीं। डाइवोर्स की जरूरत उनके पति को पड़ी, 15–20 साल बाद। इमरोज कहते हैं ‘जब रिश्ता हो, तो उसे लीगलाइज करने की जरूरत होती है क्या? लोगों ने कहा कि ‘भाई शादी करनी चाहिए। ’ शादी क्यों करें? कम से कम मुझे तो जरूरत नहीं है। न ही उनको जरूरत है। तो डायवोर्स के बाद भी हमने नहीं सोचा शादी के बारे में। वे अपनी वाइफ कहलाएँ या न कहलाएँ, एक आदमी–औरत तो कहलाते ही न। ’
‘लोग क्या कहते हैं … लोगों का कोई कनसर्न नहीं होता। ये तो हम सोचते हैं, डरते हैं, तब कनसर्न बनाते हैं। तो आदमी–समाज क्या चीज है? आप मेरे समाज में हैं, मैं आपके समाज में हूँ। इतना ही न, बस। इससे ज्यादा तो कुछ नहीं… । और इस तरह हमने इकट्ठे रहना शुरू कर दिया। 1964 से इस मकान में रह रहे हैं। ’
वे बताते हैं ‘साथ रहकर भी हम दोनों इंडिविजुअल हैं। हमें साथ रहकर भी कभी ये मुश्किल नहीं हुई कि – ‘तुम ये करो, ये न करो। ’ मैं ये करूँ, ये न करूँ। उसका जो जी चाहता है वो करती हैं। जो मेरा जी चाहता है, मैं करता हूँ। संयोगवश ये टेंपरामेंट मेरा भी है, और उनका भी है कि जो हम अर्न करते हैं सिर्फ वे ही खर्च करते हैं। मैंने अपने मां बाप की जायदाद नहीं ली। सिर्फ इसलिए कि वो मेरी कमाई नहीं है। बचपन में ही कह दिया था छोटे भाई को, कि वही ले ले, जो मर्जी करे उसका। अपने कमाए पैसे को ही मैं इनज्वाय कर पाता हूं और कोई बात नहीं। ’ स्वतुष्टि का भाव उभर आता है चेहरे पर ‘जैसे अभी मैंने काम किया, मुझे कुछ पैसे मिले, मैं उसको खर्च करने में इनज्वाय करता हूँ। जब भी आ जाएं। ’
‘मैं तो कोई नौकरी करता नहीं। फ्रीलांस आर्टिस्ट हूँ। इसी तरह उन्होंने भी कोई नौकरी नहीं की। हां, शुरू में रेडियो पर 5 रूपए रोज की नौकरी की थी। जब कोई और काम नहीं था। फिर जब ये कमाई हो गई तो छूट गया रेडियो। ’
अमृता का कमरा अलग है और इमरोज का कमरा अलग। अमृता का कमरा मकान के अगली तरफ है, जबकि इमरोज का मकान के पिछली तरफ। उन दोनों की जरूरतें भी अलग–अलग हैं। इमरोज बताते हैं – ‘मेरी जरूरतें और हैं, काम करके वे रात को 9 बजे सो जाती हैं, तीन बजे उठ जाती हैं। तो तीन बजे या डेढ़ बजे उठकर,यानी बारह बजे के बाद वो फिर लिखती हैं, पढ़ती हैं। अभी तो तबीयत ठीक नहीं है, तब भी वे लिख–पढ़ लेती हैं। मैं पहले ही काम कर लेता हूँ। मैं बारह बजे सोना शुरू करता हूँ। तो इस तरह हम एक कमरे में कभी भी नहीं रहे। तो बात तो दो इंडिविजुअल्स की है। जो उसका जी चाहे। हम सिर्फ किचन शेयर करते हैं। किचन के लिए कभी कुछ पैसे उसने डाल दिए तो कुछ मैंने डाल दिए। ’ इमरोज कहते हैं ‘बाकी जो उसका जी चाहे करे। मुझे नहीं मालूम कि उसके बैंक में कितने पैसे हैं। ना ही हमने शुरू में पूछा था एक दूसरे को। बहुत लोग ऐसा करते हैं। तो इस तरह हमारे यहां कोई प्रॉब्लम नहीं हुई जैसा कि जनरली मियां बीवी के दरम्यान होती है। हम कानूनन मियां बीवी भी नहीं हैं। कभी भी, एक दूसरे को अगर यह लगे कि अब रिलेशन में चार्म नहीं रहा तो एक दूसरे से अलग हो सकते हैं बगैर कुछ कहे। मगर वो होगा ही नहीं।’ पूरे विश्वास से कहते हैं वे।
वे दोनों आजाद हैं। वे कहते जाते हैं, ‘हर आदमी जानता है कि न पेरेंट्स, न समाज और न ही नाते–रिश्ते आजादी देते हैं। न मजहब देता है, न मुल्क देता है। आजादी जिस आदमी को चाहिए, वो ले लेता है।’
‘नहीं, मैं किसी को नहीं मानता। पेरेंट्स के पास ठीक है कि पढाई–वढ़ाई करनी है। वे तो ये हुक्म करते हैं कि जैसे मैं कहता हूँ, वैसे ही करो। खैर, संयोगवश मेरे पेरेंट्स वैसे नहीं हैं कि उन्होंने ये कहा हो कि मैं आर्ट्स स्कूल में पढ़ने नहीं जा सकता। मेरे मां–बाप तो खेती–बारी करते हैं, मगर मैं तो मैट्रिक के बाद ही आर्ट्स स्कूल में चला गया, खुद ही। खुद ही ढूंढ़ा, खुद ही दाखिल हो गया। मुझे छोड़ने भी कोई नहीं आए। उन्हें क्या मालूम कि आर्ट्स स्कूल किधर है? मुझे पेरेंट्स से दिक्कत नहीं हुई। उनको मालूम था कि मैं अपनी मर्जी का करने वाला हूँ। अमृता के पेरेंट्स नहीं हैं अब। बाकी ये कंटेम्पोरेरी जो हैं, कुछ बोलते–बालते रहते हैं। जो मर्जी बोलें। क्या फर्क पड़ता है?’ वे कहते हैं, ‘वो तो हरेक आदमी के बारे मे बोला जा सकता है। हम अपने प्राइम मिनिस्टर को भी कुछ कह लेते हैं। जिसको जी चाहे आप कह लेते हैं। जो उन्होंने कहा उसके जिम्मेदार वे हैं। हम जिम्मेदार नहीं है। आपने मेरे बारे में क्या कहा इसके जिम्मेदार आप हैं।’
इमरोज आगे कहते हैं, ‘उन्हें बच्चे हैं। बच्चों में मुश्किल हुई। वे विलायती बच्चे हैं। वहीं के पैदावार हैं। उसी माहौल में रहते हैं। उनको मैं बाप के रूप में स्वीकार्य तो नहीं हो सकता था। तो ठीक है, कोई बात नहीं – अपने बाप से मिले। अमृता के हसबैंड नहीं आते थे। उनका दूसरी औरत के साथ रिलेशन हुआ था। लेकिन जब वे बीमार हुए तो वह औरत उन्हें छोड़कर चली गई। तो उनके लड़के ने पूछा ‘मम्मी उनको घर ले आएँ?’ तो उन्होंने कहा ‘तुम्हारा बाप है घर ले आओ।’ और उन्हें लाकर इसी घर में रखा, उनका इलाज किया। फिर उनकी मृत्यु हो गई। यहीं इसी मकान में। कुछ सालों पहले। सात–आठ साल हो गए। यहीं से सब कुछ हुआ। वो बच्चों का बाप था। इसमें झगड़ा काहे का? झगड़ा तो हम खुद क्रियेट करते हैं। इसमें आब्जेक्शन की क्या बात है? उनका बाप है – जब मर्जी मिलें।’
पर अमृता ने इस तरह की कोई जिंदगी नहीं बनाई कि बच्चे उनके साथ रहें। पर बच्चों ने मां को ही चुना साथ रहने के लिए। इमरोज कहते हैं ‘बच्चों की अपनी मर्जी थी, वे जिधर रहें। हम कुछ नहीं कह सकते थे। बच्चे हमारे साथ ही हैं। उनकी शादी हुई। लड़का नीचे रहता है। उनके दो बच्चे हैं। लोग कई तरह से सोचते हैं कि मां–बाप को शादी के बाद नहीं छोड़ना चाहिए। मगर ये बात उनके तब समझ आएगी, जब उनका भी यही हस्र होगा। क्योंकि अपनी एक्सपीरियंस के बगैर बात समझ नहीं आती। ये समझाने वाली बात तो है नहीं, ये तो समझने वाली बात है। ’
इमरोज कहते हैं ‘अभी उनको ये बात समझ नहीं आती कि अगर उनका मां और बाप एक दूसरे से खुश नहीं हैं और अलग हो जाते हैं तो एक आदमी तो खुश हो गया न? तो एक आदमी से तो खुशी मिलेगी। हां, नाखुश मां–बाप से आपको क्या मिलेगा? नाखुश मां बाप के पास जो है आपको वही देंगे! अनहैप्पीनेस ही देंगे न! खुशी तो नहीं ! खुशी उनके अपने पास नहीं है, तो वो आपको कहां से देंगे? पर यह समझ बड़े होके आती है बच्चों के पास। जब उनकी बीवी उनको छोड़कर चली जाती है। जब प्रॉब्लम बच्चों को खुद होती है, फिर उनको पता लगता है। उनको जल्दी समझ नहीं आती बातें।’
इस बीच उनकी बहू कॉफी रख जाती हैं। इमरोज बताते हैं ‘ये जो अभी लड़की आई, ये हमारी बहू है, पर बेटे की दूसरी बीवी है। पहली छोड़कर चली गई। बेटा बहुत आहत हुआ था कि औरत ही मुझे छोड़कर गई। फिर समझ आई इसको। मगर बड़ी देर लगती है। इससे पहले वे अन्दर ही अन्दर घुलते रहते हैं मन ही मन उन्हें गलत समझते रहते हैं।
वे कहते हैं ‘जिंदगी बहुत सुलझी हुई है मेरे लिए। किसी ने तरीका नहीं बताया। जो जीना चाहता है उसे खुद ही तरीका भी आ जाता है। अमृता को भी किसी ने नहीं बताया कि अपना अलग रूपया खर्च करना चाहिए। ये किसी किताब में भी नहीं लिखा होता। अब मेरे पास काम न भी हो, अर्निग न भी हो, वो थोड़े पैसे दे भी, तो अच्छा ही लगता है।’ एक दफा तभी वे इकट्ठे नहीं रह रहे थे। अलग–अलग रह रहे थे। उस समय जहां इमरोज काम कर रहे थे, वहां कुछ कहा सुनी हो गयी और उन्होंने जॉब छोड़ दी। तब अमृता के पूछने पर इमरोज ने बताया कि उन्होंने जॉब छोड़ दिया है। यह जानने के बाद अमृता ने इमरोज की शर्ट की जेब में कुछ रुपए रख दिये। कुछ दिनों तक इमरोज को काम नहीं मिला। वे बताते हैं ‘लगभग एक हप्ते बाद ही मुझे काम मिल गया। पैसे भी मिल गए। तब मैंने अपनी जेब उनकी तरफ बढ़ा दिया कि अब पैसे वापस ले लो। मैंने उनके रखे पैसे को हाथ तक नहीं लगाया। वह जस का तस वहीं पड़ा रहा। मुझे अच्छा लगा चलो कोई आदमी मेरे लिए इतना तो महसूस करता है।’
इमरोज के काम करने का अपना अलग ही उसूल है। अभी भी वे काम करते हैं, किताब के डिजाइन बनाते हैं। कोई नया आदमी आता है तो उससे एडवांस लेते जरूर हैं लेकिन उसे तब तक हाथ नहीं लगाते हैं जब तक कि काम पूरा न हो जाए। डिजाइन बना कर ही उसे खर्च करते हैं। इससे जुड़ी एक घटना याद करते हैं ‘जब मैं छोटा था तो यह सुना था कि एक आर्टिस्ट को कोई पांच हजार रूपया एडवांस दे गया, पोर्ट्रेट बनाने के लिए। और उसने कहा कि एक महीने के बाद आकर ले जाना। हजार रूपये तो आर्टिस्ट ने उसी वक्त खर्च कर दिए और बाद में पोर्ट्रेट बना ही नहीं पाया। आदमी आया तो कहने लगा कि मैं अभी नहीं बना पाया। पता नहीं वह बात उस आर्टिस्ट को बुरी लगी नहीं या नहीं, मुझे बड़ी अजीब लगी कि यदि पैसे तुमने लिए हैं, तो खर्च क्यों किए। यह सुनने के बाद मैंने यह तय कर लिया कि मैं जब एडंवास लूंगा तो खर्च ही नहीं करूंगा? यह 1945 की बात रही होगी। मैं तब लाहौर आर्टस्कूल में था। उसी वक्त मुझे लगा था कि ऐसा नहीं करना चाहिए उसको। अमृता भी ठीक इसी तरह सोचती है। उसके पति जितना पैसा देते थे, उससे वह घर खर्च चलाती थी। अपने पति के एक पैसे भी वह अपने ऊपर खर्च नहीं करती थी।’
इमरोज कहते हैं ‘उसने कहीं लिखा नहीं है अपनी आटोबायोग्राफी में मगर मुझे मालूम है कि वो 5 रुपए कमाती थी और वही अपने ऊपर खर्च करती थी। जब तलाक हुआ तो जज ने कहा कि मेन्टेनेंस ले ले। तो उन्होंने कहा नहीं चाहिए। जज ने दो दफे पूछा, तीन दफे पूछा, चार दफे पूछा। फिर जज को बहुत अजीब लगा, कि ये औरत क्यूं नहीं ले रही ? अमृता ने हर बार यही कहा था कि मुझे कुछ नहीं चाहिए। जिस आदमी को आप छोड़ना चाहें, उसके पैसे भी आप स्वीकार करें तो ये स्वाभिमान की बात नहीं होगी, फिर मान क्या रह जाएगा आपका।’
वो इसी तरह आगे बढ़ी है अपनी जिंदगी में। लेखिका है। अपनी किताब का उन्होंने कभी भी विमोचन आदि नहीं करवाया। वे कहती हैं ‘लोग पढ़ना चाहेंगे तो खुद ही पढ़ेंगे, न पढ़ना चाहें तो न पढ़ें।’ इसके लिए लोगों को बुलाकर एंटरटेन करना, खर्च करना, ये सब इन्होंने कभी नहीं किया।
अमृता आजकल बहुत बीमार चल रही हैं। इमरोज ज्यादा समय अमृता के पास ही रहते हैं। बढ़ती उम्र के कारण अमृता को इन दिनों काफी तकलीफें उठानी पड़ रही हैं वह अक्सर इमरोज से कहने लगती हैं ‘अब तकलीफ सही नहीं जाती , जल्द ही बुलावा आ जाए तो अच्छा है।’ कहते–कहते रूंध जाती है इमरोज कि आवाज। … । ‘अमृता एक नहीं , दो इंविटेशन मंगाना… । मैं भी साथ चलूंगा… ।’
क्रमशः
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