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अनामिका अनु की कुछ नई कविताएँ

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अनामिका अनु ने बहुत कम समय में अपनी कविताओं से अच्छी पहचान बनाई है। आज उनकी कुछ नई कविताएँ- मॉडरेटर
====================
1.लड़कियाँ जो दुर्ग होती हैं
 
जाति को कूट पीस कर खाती लड़कियों
के गले से वर्णहीन शब्द नहीं निकलते,
लेकिन निकले शब्दों में वर्ण नहीं होता है
 
परंपराओं को एड़ी तले कुचल चुकी लड़कियों
के पाँव नहीं फिसलते,
जब वे चलती हैं
रास्ते पत्थर हो जाते है
 
धर्म को ताक पर रख चुकी लड़कियाँ
स्वयं पुण्य हो जाती हैं
और बताती हैं –
पुण्य !कमाने से नहीं
खुद को सही जगह पर खर्च करने से होता है
 
जाति धर्म और परंपरा पर
प्रवचन नहीं करने
वाली इन लड़कियों की रीढ़ में लोहा
और सोच में चिंगारी होती है
ये अपनी रोटी ठाठ से खाते
वक्त दूसरों की थाली में
नहीं झाँकती
 
ये रेत के स्तूप नहीं बनाती
क्योंकि ये स्वयं दुर्ग होती हैं।
 
२.कौवा
 
कल तक यही थी
बड़ी आंखों वाली मालू
और फुदकता निरंजन
जहां निरंजन के फटे आंखों
की पुतलियां पसरी हैं
वही उसने रोपा था तीरा मीरा
के बीजों को
 
चिथड़े तन पर जो हरा छींटदार टुकड़ा है
जिसे चीट्टियों के झुंड पूरब की ओर ले जा रहे हैं
मालू के आठवें जन्मदिन वाली फ्राॅक का है।
 
ये सब मैं इसलिय बता पा रहा हूं
क्योंकि मैं ही वह कौवा हूं
जो आम पेड़ पर बैठकर
रोज उन्हें निहारा करता था
कई बार उन बच्चों ने बांटा था
मुझसे अपने हिस्से का खाना
खेली थी मुझ संग नुक्का छिपी
 
मैं आज भी कभी कभी रसोई की ढ़ही उस खिड़की के पास
रोटी के टुकड़े तलाशता हूं
जो बढ़ा देती थी
रसोई पकाती
बच्चों की मां मुझे देखते ही
 
बच्चों के पिता काले पिट्ठू बैग
टांग रोज चले जाते थें दफ्तर
और कब लौटते थें
नहीं पता
क्योंकि शाम ढ़ले मैं भी
लौट जाता था घोंसले पर
जो पास के नारियल पेड़ पर थी
 
बस कुछ एक बम गिरे था
ढ़ह गये सब
प्रशासन,परिवार,घर
और सबसे जोर से ढ़हे
सपने मेरे ,इनके ,उनके और न जाने कितने बच्चों
की आंखों के
 
कई दिनों तक रहा मंडराता
बच्चों के आंखों की तलाश में
ढ़ेर लगे लाशों के चिथड़ो में
चोंच मारता
बारूद मिले रक्तों से
कचकच चोंचों को
लाशों से पोंछता
तब दिखी
निरंजन के आंखों की वह पुतली
उसकी आंखों में हरी शाखें
नये पुष्पों के इंतजार में थीं।
 
आंखें फटी थी
पलकें कहीं दूर गिरी थीं।
 
 
3. उस शाम
 
उस शाम जब लाल केसरिया वह सेब डूब गया
खारे शरबत में,
मैं उखड़ी दलान की सीढ़ियों पर बैठी काट रही थी
कोहड़े से धुंधले दिन को,
पांव तले तब कितनी नदियां गुजर गयी,
कितने पर्वत खड़े हो गये आजू -बाजू,
रागी-सी मेरी आंखों में मक्के की लाखों बालियां
उमड़-उमड़़ कर खड़ी हो गयी,
मेरे पांवों के नीचे नदी जुठाई चिकनी मिट्टी,
तन पर पर्वत आलिंगन के श्वेत तुहिन चिन्ह,
आंखों में डूबे हरे मखमल से झांक रही
उजली मोती।
 
उस शाम चंद चवन्नी विमुद्रित
खुल गयी नीली साड़ी की खुंट से,
झुककर नहीं समेटा हाथों ने,
पहली बार नयन ने किया मूल्यांकन
खोटे सिक्कों का।
पहली बार कमर नहीं झुकी
मूल्यहीन गिन्नियों की खातिर,
पहली बार वह खुंट खुली
और फिर नहीं बंधी
अर्थ,परंपरा,खूंटे और रिक्त से
 
4..बारिश
 
उन दिनों बारिश नमक सी हुआ
करती थी,
अब ऐसी फीकी
या
इतनी तेज की ज़ायका बदल
गया जिंदगी का,
पेड़ पर लटकी उन हरी जानों
ने फीका नमक चखा होगा,
उन बहती हरी लाशों
ने तेज नमक में जीवाणु से मरते
स्वप्नों को अलविदा कहा होगा।
5.रसूल का गांव
 
रसूल के गाँव के समतल छत पर
बैठी चिड़िया
कभी-कभी भोर के कानों में
अवार में मिट्टी कह जाती है।
 
शोर गुल के बीच,
सिर्फ दो शब्द नसीहतों के ,
कह जाते हैं रसूल, कानों में।
मास्को की गलियों में उपले छपी दीवारें नहीं है
कहते थें रसूल के अब्बा,
 
आँखों में रौशनी की पुड़िया खोलती त्साता गांव की लड़कियां,
आज भी आती होंगी माथे पर जाड़न की गठरी लेकर
और सर्द पहाड़ियों पर कविता जन्म लेती होगी
 
 
रसूल क्या आपके गांव में
अब भी वादियां हरी और घर पाषाणी हैं?
कल ही की बात हो जैसे,
सिगरेट सुलगाते रसूल कहते हैं,
अपनी ज़बान और मेहमान को हिक़ारत से मत देखना
वरना बादल बिजली गिरेंगे हम पर, तुम पर, सब पर।
 
 
मैं रसूल हमजातोव,
आज भी दिल के दरवाजे पर दस्तक देता हूं खट खट,
मांस और बूजा परोसने का समय हो गया है उठ जाओ,
मैं अंदर आऊं या मेरे बिन ही तुम्हारा काम चल जाएगा।
 
 
6.लोकतंत्र
खरगोश बाघों को बेचता था,
फिर
अपना पेट भरता था,
बिके बाघ
खरीदारों को खा गये,
फिर बिकने बाजार
में आ गये।
 
 
7.समर्पण के तीन बिम्ब
 
1
तिरुवल्ला के पलीयक्करा चर्च- सा
प्राचीन महसूस करती हूँ,
जब तुम बुझी आँखों से देखते हो
मेरे अतुलनीय वास्तु को,
मेरा सारा आंतरिक बोध तुम्हारी मुस्कान
और आँखों की श्रद्धा को समर्पित हो जाता है।
और मैं नवजात शिशु में परिवर्तित हो जाती हूँ – सर्वथा नूतन!
 
2
चमक उठी थी कल स्वर्ण मंदिर-सी
जब आँगन बुहारते-बुहारते तुम्हारी छाया
मुझ पर आ गिरी थी,
मैं उसे झटक कर पलटी भर थी कि
तुम्हारी मिट्टी के दीये -सी सौंधी आँखों में
गीली मीठी- सी लौ को दमकते देखा था,
मैंने धूप को हौले -हौले सरकते देखा था,
मैंने चाँद को आँखों में आहिस्ता- आहिस्ता उतरते देखा था।
 
3
पालयम के मस्जिद की नजर सुनहरे येशू पर थी,
हमारी सड़क के दोनों किनारों पर थी,
आए गए लोगों के मेलों में
ऊँघते चर्च,मस्जिद और शिवालय,
घंटी, अज़ान, और ग्रंथ पाठ से हम उनको जगा रहे हैं,
वे हमारे भीतर के बंद इबादतखाने
पर खड़े कब से घंटी बजा रहे हैं।
 
8..न्यूटन का तीसरा नियम
तुम मेरे लिए शरीर मात्र थे
क्योंकि मुझे भी तुमने यही महसूस कराया।
मैं तुम्हारे लिए आसक्ति थी!
तो तुम मेरे लिए प्रार्थना कैसे हो सकते हो?
 
मैं तुम्हें आत्मा नहीं मानती,
क्योकिं तुमने मुझे अंत:करण नहीं माना।
तुम आस्तिक धरम-करम मानने वाले,
मैं नास्तिक!!!
न भौतिकवादी, न भौतिकीविद
पर फिर भी मानती हूं
न्यूटन के तीसरे नियम को
क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती है।
और हम विपरीत दिशा में चलने लगे….
 
9.विचारक
 
 
मैं विचारक-
नयी सोचों विचारों के पिटारे खोलूंगा,
“एक एक विचार” चमकते नये,
तुम्हारे अशर्फियों को चुनौती देंगे,
तुम घबरा जाओगे,
उनकी अप्रतिम चमक देखकर तुम्हें लगेगा
कहीं तुम्हारी अनगिनत अशर्फियों की चमक
फीकी न पड़ जाए ,
नये विचारों की नई चमक के सामने।
तुम डर जाओगे अशर्फी के गिरते भाव
और
विचारों के गर्म बाजार से।
तुम षड्यंत्र करोगे
ताकि विचार लोगों तक न पहुंचे,
तुम विचार के पिटारे को सीलबंद करोगे,
समुद्र में फेंक दोगे,जला दोगे,
पर मस्तिष्क के विचार विद्युत
घर-घर में ज्ञान के तार के साथ जाऐंगी,
और फक्क से जला देंगी अंधेरे घर में
१०० वाट का बल्ब!
अनामिका अनु
११.लिंचिंग
 
भीड़ से भिन्न था
तो क्या बुरा था
कबीर भी थें
अम्बेडकर भी थें
रवीन्द्र नाथ टैगोर भी थें
गांधी की भीड़ कभी पैदा होती है क्या?
 
पत्ते खाकर
आदमी का रक्त बहा दिया
दोष सब्जियों का नहीं
सोच का है
इस बात पर की वह
खाता है वह सब
जो भीड़ नहीं खाती
खा लेते कुछ भी
पर इंसान का ग्रास…आदमखोर
इन प्रेतों की बढ़ती झुंड आपके
पास आएगी।
आज इस वज़ह से
कल उस वज़ह से
निशाना सिर्फ इंसान होंगे
 
जो जन्म से मिला
कुछ भी नहीं तुम्हारा
फिर इस चीजों पर
इतना बवाल!
इतना उबाल!
और फिर ऐसा फसाद ?
आज अल्पसंख्यक सोच को कुचला है,
कल अल्पसंख्यक जाति,परसो धर्म,
फिर रंग,कद,काठी,लिंग वालों को,
फिर उन गांव, शहर,देश के लोगों को जिनकी संख्या
भीड़ में कम होगी।
किसी एक समय में
किसी एक जगह पर
हर कोई उस भीड़ में होगा अल्पसंख्यक
और भीड़ की लपलपाती हाथें तलाशेंगी
सबका गला, सबकी रीढ़ और सबकी पसलियां।
 
पहले से ही वीभत्स है
बहुसंख्यकों का खूनी इतिहास।
अल्पसंख्यकता सापेक्षिक है
याद रहा नहीं किसी को।
असभ्यों की भीड़ से एक को चुनकर
सभ्यों की जमात में खड़ा कर दो
और पूछो तुम्हारा स्टेटस क्या है?
 
 
 
 
 
 
 
 
 

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