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‘विटामिन ज़िंदगी’की समीक्षा यतीश कुमार द्वारा

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ललित कुमार की पुस्तक ‘विटामिन ज़िंदगी’ की काव्यात्मक समीक्षा पढ़िए यतीश कुमार के शब्दों में- मॉडरेटर

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नहीं रहनेवाली ये मुश्किलें

ये हैं अगले मोड़ पे मंज़िलें

मेरी बात का तू यकीन कर

ये सफ़र बहुत है कठिन मगर

ना उदास हो मेरे हमसफ़र

जावेद अख़्तर साहब की बहुत ही छोटी सी नज़्म है यह पर बहुत बड़ी बात कह जाती है ! ललित जी की यह किताब “विटामिन ज़िंदगी “ भी इसी नज़्म की तरह पढ़ते -पढ़ते आपको सकारात्मक ऊर्जा से भर देती है ।जब इस किताब के माध्यम से ललित जी के साथ यात्रा में निकलेंगे तो एकसाथ इतने गुण जो विरले दिखते है वो यहाँ आपको दिखेंगे जैसे दृढ़ निश्चय ,सम्पूर्ण समर्पण ,एकाग्रता और लक्ष्य साधने की अतृप्त प्यास ।ये सभी गुण इस सामाजिक युद्ध में उनके शस्त्र भी हैं।यह साधारण से असाधारण बनने की यात्रा वृतांत है।

चींटी को पहाड़ पर चढ़ने जैसी यात्रा है ।यात्रा जिसमें फिसलन मात्रा से ज़्यादा है ।साथ ही यह पुस्तक आपको प्रोत्साहित,उत्साहित और ज़्यादा बेहतर इंसान बनने की सीख दे जाती है ।

मेरा ख़ुद का बचपन अस्पताल के इर्द गिर्द बीता है ।ऐसी समस्याओं को मैंने बहुत नज़दीक से महसूस किया है ।देखा है पोलियो उन्मूलन की सामूहिक लड़ाई को जीत दर्ज करते हुए,पर उस जीत की यात्रा में कितने ही संक्रमित रह गए और उन सब के दर्द की गाथा है “विटामिन ज़िंदगी”।

“प्रकृति विकलांग बनाती है और समाज अक्षम “

लेखक ने शुरुआती पन्नों में ही इस संस्मरण/कहानी के लिखने की अपनी मंशा बिलकुल साफ़ कर दी ।कुछ ही पन्नों में यह और भी साफ़ हो जाता है कि यह यात्रा असाधारण है जहाँ वो ख़ुद को पृथ्वी माँ के द्वारा ख़ास मक़सद के लिए चुने हुए में पाते हैं । माँ काँटे चुभो कर उन्हें चुनती है एक ख़ास मक़सद के लिए ।ऐसा सोचना ही लेखक के सकारात्मक सोच को दर्शाता है ।

डॉक्टर जोनास एडवर्ड सॉक (पोलियो टीका के जनक)से प्रेरणा लेकर वो अपनी ज़िंदगी की टेढ़ी लकीर को सीधी बिलकुल सीधी चलाते हैं और अंत में बैसाखियों संग दौड़ाते हैं ।

आश्चर्य और विस्मित करता है कि जो पोलियो उन्मूलन क्रांति १९५५ में अमेरिका ने शुरू की उसे भारत में सिर्फ़ दस्तक देने में दो दशक लगे ।मनुष्यता का विश्व स्वरूप क्या इतनी ही गति से घसीटते हुए चल रहा है ?

संयुक्त परिवार की शक्ति और संस्कृति में आपसी सहयोग और समर्पण की कितनी बेहतरीन भूमिका होती है और यह कितना ज़्यादा ज़रूरी है आज के नाभिकीय परिवार की बढ़ती संख्या के माहौल में,जहाँ बात करने के लिए भी आप आइना या मोबाइल पर निर्भर हैं ,वहाँ ललित जी के परिवार का योगदान एक उदाहरण की तरह अपने आपको प्रस्तुत करता है ।

माँ, पिता,बाबा,भाई,अम्मा,चाचा सब के सब उनके दुःख में दुखी हैं और पोलीओ से लड़ाई में एकजुट भी।

ये संघर्ष किसी एक व्यक्ति का नहीं था अपितु सम्पूर्ण परिवार का सफ़र रहा है।

निराशा से परे आशा की रोशनी कहानी के हर पन्ने में अपने छींटे छोड़ती है।अथक कोशिशों की कड़ियाँ हर बार अंधेरे से लेखक को निकालती है ।

सहयोग सफलता की पगडंडी है ।उन सारे शिक्षकों के बीच प्रिन्सिपल सर का ललित जी को घर पर ही शुरुआती पढ़ाई करने की अनुमति,घनघोर निराशा में भी

आशा की लौ जलाती है

“दावानल चाहे जंगल को फूँक दे फिर भी नई कोपलें दोबारा राख से फूटती है”-यह इस कहानी का सार है ।

“काश मैं गिरने की जगह ढूँढ पाता

गिरकर उठने का मेरा अपना तरीक़ा है

और खड़े होने का वही एक मात्र रास्ता”

ऐसी बातें करके लेखक अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय स्वयं देता है

बार-बार सब के सामने गिरना कहीं भी बस ,सड़क ,सीढ़ी कहीं भी और उसी गंदगी के साथ दिन काटना,पानी सामने हो पर पीने के लिए न जा पाना !

ये सब बालमन के मर्म अंतस पर कैसा असर छोड़ते होंगे ??

सचमुच सामान्य जन उस मनोभाव तक पहुँच ही नहीं सकते।

कितनी जिंदगियाँ कितने संघर्ष समानांतर चलते रहते हैं।

परंतु उन संघर्षों में ललित बहुत कम होते हैं जो रमक़ तक हार नहीं मानते।

शारीरिक दर्द मानसिक ख़ुशी के आगे झुक जाती है

यह अजूबा समन्वय आश्चर्यचकित करता है ।

यह पुस्तक एक नए अध्याय से आपका परिचय कराता है और बार बार कहता है

“सृजन में दर्द का होना ज़रूरी है”

मोती चाहिए तो गहरे पानी में उतरना पड़ता है

Wecapable.com

youtube.com/dashamalav

कविता कोश

गद्य कोश

ये सब क्या एक आदमी कर सकता है साधारणतः ये सम्भव नहीं पर जब व्यक्ति ज़िद्दी हो न हारने की क़सम खाई हो तो सब सम्भव है ।

हेलेन केलर ,जोसेफ़ मेरिक,डॉक्टर मैथ्यू वर्गीज़ और भी कई उदाहरण दिए गए हैं जिन्होंने हार नहीं मानी ।

रमक़

तक अपनी लड़ाई जारी रखने के प्रण के साथ लेखक ने एक बात और सिद्ध कर दिया की इच्छाशक्ति से मौत को परास्त किया जा सकता है….,

अब कुछ बातें जिसमें और बेहतरी की गुंजाइश थी वो यह है कि इस संस्मरण के तथ्य में बहुत जान है पर दोहराव रुकावट की तरह आता रहता है जिसे छाँट कर बताने से और बेहतर बनाया जा सकता था।

बार बार एक ही मनोदशा को बताना एक ही तरीक़े से कई जगह थोड़ी सी बोरियत पैदा करता है ।शब्दों का चयन और बेहतर हो सकता था जो मनोभाव को और भी सही तरीक़े से प्रस्तुत कर सकते थे पर इसमें कमी दिखी ।अंतिम चार-पाँच पन्नों की बातें अगर समीक्षा के तौर पर बिंदु दर बिंदु एक एक पंक्ति में समेटी जाती तो और भी बेहतर होता ।

व्यक्तिगत तौर पर कविता कोश की अपनी यात्रा पर और जानने-समझने की इच्छा के कारण मुझे थोड़ी निराशा भी हुई ।वहाँ पर बस छू कर छोड़ दिया गया है ।

शेष सब बहुत बेहतर है और ज़रूर ही पढ़िए यह पुस्तक “विटामिन ज़िंदगी”

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पुस्तक का प्रकाशन हिंद युग्म ने किया है। 

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