आज पढ़िए युवा शायर आलोक मिश्रा की कुछ ग़ज़लें- त्रिपुरारी
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1
तुम्हारे साये से उकता गया हूँ
मैं अपनी धूप वापस चाहता हूँ
कहो कुछ तो ज़ुबाँ से बात क्या है
मैं क्या फिर सेे अकेला हो गया हूँ
मगर ये सब मुझे कहना नहीं था
न जाने क्यों मैं ये सब कह रहा हूँ
सबब कुछ भी नहीं अफ़सुर्दगी का
मैं बस ख़ुश रहते रहते थक गया हूँ
गिला करता नहीं अब मौसमों से
मैं इन पेड़ों के जैसा हो गया हूँ
2
चलते हैं कि अब सब्र भी उतना नहीं रखते
इक और नये दुःख का ईरादा नहीं रखते
बस रेत सी उड़ती है अब उस राहगुज़र पर
जो पेड़ भी मिलते हैं वो साया नहीं रखते
किस तौर से आख़िर उन्हें तस्वीर करें हम
जो ख़्वाब अज़ल से कोई चेहरा नहीं रखते …
इक बार बिछड़ जाएँ तो ढूंढें न मिलेंगे
हम रह में कहीं नक़्श ए क़फ़े पा नहीं रखते
फिर सुल्ह भी तुम बिन तो कहाँ होनी थी ख़ुद से
सो रब्त भी अब ख़ुद से ज़ियादा नहीं रखते
उस मोड़ पे रूठे हो तुम ऐ दोस्त कि जिस पर
दुश्मन भी कोई रंज पुराना नहीं रखते
क्या सोच के ज़िंदा हैं तिरे दश्त में ये लोग
आँखों में जो इक ख़ाब का टुकड़ा नहीं रखते
3
लुत्फ़ आने लगा बिखरने में
एक ग़म को हज़ार करने में
बस ज़रा सा फिसल गए थे हम
इक बगूले पे पाँव धरने में
कितनी आँखों से भर गई आँखें
तेरे ख़ाबों से फिर गुज़रने में
मैंने सोचा मदद करोगे तुम
कमनसीबी के घाव भरने में
बुझते जाते हैं मेरे लोग यहाँ
रौशनी को बहाल करने में …
किस क़दर हाथ हो गए ज़ख़्मी
ख़ुदकुशी तेरे पर क़तरने में ….
4-
जुनूँ का रक़्स भी कब तक करूँगा
कहीं मैं भी ठिकाने जा लगूँगा
हुआ जाता है तन ये बोझ मुझ पर
मगर ये दुःख भी अब किस से कहूँगा
भुला दूँ क्यूँ न मैं उस चुप को आख़िर
ज़रा से ज़ख़्म को कितना करूँगा
ख़ुदा के रंग भी सब खुल गए हैं
गुनह अपने भी मैं क्यूँकर गिनूँगा
तिरी ख़ामोशियों की धूप में भी
तिरी आवाज़ में भीगा रहूँगा
अभी बेबात कितना हँस रहा हूँ
निकलकर बज़्म से गिर्या करूँगा
नहीं वादा नहीं होगा कोई अब..
बहुत होगा तो बस ज़िंदा रहूँगा
5-
साँस लेते हुए डर लगता है
ज़ह्र -आलूद धुआँ फैला है
किसने सहरा में मिरी आँखों के
एक दरिया को रवाँ रक्खा है
कोई आवाज़ न जुंबिश कोई
मेरा होना भी कोई होना है
इतना गहरा है अँधेरा मुझमें
पाँव रखते हुए डर लगता है
ज़ख़्म धोये हैं यहाँ पर किसने
सारे दरिया में लहू फैला है
बात कुछ भी न करूँगा अबके
रु -ब -रु उसके फ़क़त रोना है
शख़्स हँसता है जो आईने में
याद पड़ता है कहीं देखा है
चाट जाए न मुझे दीमक सा
ग़म जो सीने से मिरे लिपटा है
जाने क्या खोना है अब भी मुझको
फिर से क्यों जी को वही खद्शा है
आलोक मिश्रा”
Contact -9711744221
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