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आ. चारुमति रामदास की कहानी ‘ऐसा भी होता है!’

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आ. चारुमति रामदास हैदराबाद में प्रोफ़ेसर रही हैं। रूसी भाषा से उन्होंने अनेक कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया है जिसमें मिखाईल बुलगाकोव का उपन्यास ‘मास्टर एंड मार्गरीटा’ भी है। आज उनकी एक छोटी सी कहानी जो कुछ कुछ जादुई यथार्थवाद जैसी है। आप भी पढ़िए- मॉडरेटर

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हम समुन्दर के किनारे टहल रहे थे. हम, यानी मैं मेरे चार दोस्त उनकी पत्नियाँ, मेरी पत्नी नहीं थी, क्योंकि मैंने अभी तक शादी ही नहीं की थी. चाहता था, कि पहले किसी लड़की से प्यार करूँ और बाद में शादी. इसी उम्मीद में दिन, महीने, साल बीतते गए, मैं कुँआरा ही रह गया. मिजाज़ बहुत शक्की हो गया, मन बेहद संवेदनशील…

ख़ैर, अपनी ही बात लिए क्यों बैठा हूँ?

तो हम समुंदर के किनारे पर टहल रहे थे. मौसम, जैसा कि उम्मीद थी, साफ़ था…धूप कुछ चुभ ही रही थी.

अचानक लाउड-स्पीकर से घोषणा सुनाई दी : “जल्दी आइए, अपनी आँखों से देखिए दिलजले का अंजाम!”

हम भी उधर ही गए, जहाँ एक लम्बी लाइन लगी थी. बाहर, एक तम्बू के सामने, एक आदमी मेज़ लगाए बैठा था, वह पाँच-पाँच रुपये में टिकट दे रहा था, भीतर जाने के लिए. मैंने सबके लिए टिकट ले लिए और हम लाइन में लग गए, जो हर पल लम्बी होती जा रही थी.

लोग बातें कर रहे थे : ‘शायद किसी के साथ ‘लिव-इन’ में था, उससे झगड़ा हो गया, लड़की ने “मी टू” के अंतर्गत इस रिलेशनशिप की पोल खोल दी. बेचारे का करियर बर्बाद हो गया, उसने आत्महत्या कर ली”.

दूसरे ने कहा, “अरे नहीं, वो बेहद बदसूरत था, अपने रंगरूप को सुधारना चाहता था. इश्तेहारों में दिए गए कॉस्मेटिक्स का इस्तेमाल करने लगा…चेहरा पहले से भी ज़्यादा बदसूरत हो गया…”

“शायद दिल टूट गया, पी-पीकर…” तीसरे ने आरंभ किया.

ओह, बस भी करो! हमें ख़ुद ही देखने दो कि माजरा क्या है…

हम आगे बढ़े. लाइन बेहद धीरे चल रही थी.

जब हमारा नंबर आया, तो हमने देखा कि एक तख़्त पर कोई चीज़ पड़ी है…क्या उसे इन्सान कह सकते हैं? लम्बे-लम्बे हाथ-पैर, मुँह पूरा खुला हुआ, तख़्त पर, और तख्त के चारों ओर बोतलें, कुछ खड़ी, कुछ ज़मीन पर पड़ी, उसके दोनों हाथों में एक-एक…मौत के बाद भी बोतलों पर उसकी पकड़ बनी हुई थी. एक नीचे लटक रहे पैर के पास, एक तख़्त पर दोनों पैरों के बीच, मुँह पूरा खुला हुआ. वह शायद इससे ज़्यादा खोल ही नहीं सका…आँख़ें भी खुली हुईं….

“ये कब हुआ?”

“तीन दिन पहले…”

“तीन दिन पहले? किसी ने पुलिस में ख़बर नहीं दी? अगर “मी-टू” के कारण आत्महत्या की है, तो लड़की के ऊपर केस????”

मगर, ठहरिये… तीन दिन हो गए…झूठ बोलते हो भाई! तीन दिनों में इसके बदन से बदबू क्यों नहीं आ रही है?

“कॉस्मेटिक्स की ख़ुशबू…”

किसी ने इसे दफ़नाने के बारे में क्यों नहीं सोचा? क्या इसका कोई नहीं है?

“हैं, सब हैं, मगर किसी को इसके बारे में कुछ पता ही नहीं है…”

“क्यों?”

“घर से भाग आया था…”

“कब?”

“पता नहीं…”

“जब पता नहीं है, तो अनाप-शनाप मत बोलो… वह लड़की कहाँ है?”

“कौनसी? “मी-टू” वाली? होगी इसी लाइन में…सुना है, कि रोज़ आती है और दो आँसू और एक फूल इसके पैरों पर चढ़ाकर चली जाती है…”

“उसे किसी ने पकड़ा नहीं?”

“उसने क्या किया है? उसने थोड़े ही कहा था, कि जान दे दो. उसे तो उम्मीद थी, बल्कि अभी भी है…”

“किस बात की उम्मीद?”

“कि यह उसके प्यार की शक्ति के कारण फिर से ज़िंदा हो जाएगा…”

“कमाल करते हो, कहीं ऐसा भी होता है?”

“सुना है, रोज़ शाम को पाँच मिनट के लिए यह अपना मुँह बंद करता है, आँखें घुमाता है और इधर-उधर देखकर फिर मर जाता है, इसीलिए शरीर अभी तक ताज़ा है…”

हम आगे बढ़े जा रहे थे…

जब हम उस ‘चीज़’ के पास पहुँचे, तो देखा कि उसके हाथ और पैर बेहद लम्बे हैं, मुँह खूब फूला-फूला, आँखे बाहर को निकलती हुई, हाथों में बोतलें कस कर पकड़ी हुई…मगर…यह क्या!! रंग़ तो पूरा हरा हो गया था…कहीं ऐसा भी होता है? जिस्म को नीला पड़ते हुए तो सुना था, मगर हरा भी हो जाता है, यह पहली बार देख रहा था.

मेरे दोस्त ख़ामोश थे, मन-ही-मन उस अभागे को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे थे, उनकी बीबियाँ आँखों में आँसू भरे,… कह रही थीं (आपस में, ज़ोर से) “भगवान किसी को ऐसा दिन न दिखाए…” “कैसी होगी वह चुडैल…” “ अच्छे ख़ासे इन्सान को ज़िंदगी से उठा दिया…”, लोग प्यार-मुहब्बत करते ही क्यों हैं…”

जब मैं “उस चीज़ के पास पहुँचा, तो देखा कि उसमें कुछ हलचल हो रही है. मैं घबरा गया…

छह बजने को थे, अँधेरा छा रहा था, शायद उसके ज़िंदा होने का समय हो गया था…

सचमुच में वह झटके से उठा, आँखें घुमाईं, हाथ पैर सीधे किए, इधर-उधर देखा और फिर से चित हो गया.

किसे देख रहा था? किसकी राह देख रहा है? चैन से मर भी जा भाई, मरने के बाद तो अपना तमाशा न बना…

इतने में मेरा पैर किसी चीज़ में उलझा और मैं गिर पड़ा. गिरने को तो मैं गिर गया, मगर मैंने वह देख लिया, जो किसी ने नहीं देखा था…

मेरा पैर एक ट्यूब में उलझ गया था. ट्यूब एक गैस के सिलिण्डर से जुड़ी थी, और उसका सिरा “उस चीज़” में प्रवेश कर रहा था…

वाह!

रबड का बड़ा खिलौना, हवा भर के लिटा दिया जाता है, जब हवा भरते हैं, तो उसमें कुछ हलचल होती है…

और हम सब बेवकूफ़ बन गए, उसे मरा हुआ पीड़ित इन्सान समझ बैठे.

”क्या आपसे किसी ने कहा था, कि ये कोई इन्सान है (था)?”

“हम तो नमूना पेश कर रहे थे, कि दिलजले का अंजाम क्या हो सकता है…”

ये भी सच है! किसी ने भी कुछ भी नहीं कहा था. सब अपनी-अपनी कल्पना से “उस चीज़” को एक पहचान, एक वजह देने की कोशिश कर रहे थे…

होता है ऐसा भी, कभी-कभी…

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