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हे मल्लिके! तुमने मेरे भीतर की स्त्री के विभिन्न रंगो को और गहन कर दिया

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अभी हाल में ही प्रकाशित उपन्यास ‘चिड़िया उड़’ की लेखिका पूनम दुबे के यात्रा संस्मरण हम लोग पढ़ते रहे हैं। आज उन्होंने वरिष्ठ लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ के चर्चित उपन्यास ‘मल्लिका’ पर लिखा है। आपके लिए- मॉडरेटर

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मनीषा कुलश्रेष्ठ जी की किताब मल्लिका पर लिखते हुए मुझे क्लॉड मोनेट की कही यह पंक्तियाँ याद आ गई “हर कोई मेरी कला पर चर्चा करता है और समझने का प्रदर्शन करता है, जैसे कि समझाना आवश्यक था. जबकि जरूरत है तो केवल प्यार की.” कुछ ऐसी ही फीलिंग मुझे भी आई मल्लिका को पढ़ते समय. कितना समझी हूँ यह तो नहीं पता लेकिन प्यार जरूर है मल्लिका से! और उसी प्यार को मैंने यहाँ व्यक्त करने की कोशिश की है शब्दों में.
सही मायने में ‘मल्लिका’ मुझे एक आर्ट फ़िल्म की तरह लगी. जिस तरह आर्ट फ़िल्म में स्टोरीलाइन के अलावा उसका मुख्य एसन्स, उसकी खूबसूरती उसके सफ़र में छुपी होती है. उसी तरह इस किताब का एसन्स मुख्य किरदार मल्लिका’ की जर्नी और उन्नीसवीं सदी के चित्रण किए गए परिवेश में है.
भारतेन्दु की प्रेयसी मल्लिका पर लिखी यह किताब हमें उसी पुराने एरा में लेकर जाती है. मन का ट्रांज़िशन इतनी सहजता से प्रेजेंट से उन्नीसवीं शताब्दी में हो जाता है मानो कि यह यात्रा टाइम ट्रैवेलिंग मशीन में तय किया हो. उस समय का परिवेश कैसा था, लोग किस तरह से बात करते थे, या किस तरह के कपड़े पहनते थे इन सब का विवरण इतनी बारीकी से किया गया है कि मनीषा जी की कल्पनाशक्ति के आधार पर लिखी यह किताब मेरे लिए अब ऐतिहासिक मल्लिका का सच है. आश्चर्य की बात यह है कि मल्लिका को पढ़ते समय आप स्वयं को एलियन नहीं महसूस करते है बल्कि उसी एरा का हिस्सा बन जाते हैं.
किताब की इक्स्पीरिएंशल वैल्यू इतनी ज़्यादा है कि बतौर पाठक मुझे जल्दी-जल्दी पन्ने पलटकर अंत तक पहुंचने की कोई अधीरता नहीं थी. मैं पीरियड ड्रामा की बहुत बड़ी फैन हूँ इसलिए इस किताब में मल्लिका के चित्रण, भारतेन्दु और उनके के बीच के प्रेम ने मेरी कल्पना को अप्लिफ्ट किया है. खासकर तब जब कि इस समय में भी मल्लिका के बारे में ऑनलाइन या गूगल पर पढ़ने के लिए कोई ख़ास मटेरियल नहीं उपलब्ध है.
मल्लिका से आकर्षित न होना लगभग नामुमकिन है. स्वभाव से वह सरल और सहज है लेकिन अपने अधिकारों और सोच के प्रति सचेत है. नियति के खेल के कारण मल्लिका बचपन में ही बाल विधवा हो जाती है परंतु अपने आप को अबला न समझकर वह अपनी राहें खुद चुनती है. उसका रिबेल्यस स्वभाव गवाह है नारी शक्ति का. वह भारतेन्दु से सच्चे मन से प्यार करती है और बिना किसी अपेक्षा के उनसे तक जुड़ी रहती है. प्रेम में समर्पण का प्रतीक है मल्लिका. उस समय में एक जागरूक स्त्री होने के बावजूद अंत में वह सब कुछ त्याग देती है भारतेन्दु के प्रेम में. यह सब बातें कई सवाल उठा गई मन मेरे में।
इस बात का मुझे दुख है कि हिंदी को उपन्यास की विधा से परिचित कराने वाली मल्लिका का इस बारे में कोई जिक्र नहीं. लेकिन खुशी इस बात की है कि मनीषा जी ने इतिहास के पन्नों में धूमिल हो रही इस बेहतरीन किरदार को इस किताब के जरिये फिर से जीवित कर दिया है.
किताब में तो वैसे बहुत सी ऐसी पसंदीदा लाइनें है जिन्हें मैंने अंडरलाइन किया है लेकिन यह कुछ मेरी बेहद ख़ास है.
पहाड़ जाकर नदियों को तो नहीं देखा मगर सुना है उनके स्रोत बहुत छोटे या अदृश्य गड्ढे होते हैं। उनका कुछ चिन्ह नहीं मिलता। आगे बढ़ने पर थोड़ा-सा पानी सोते की भाँति झिर-झिर बहता हुआ दिखता है और आगे बढ़ने पर इसी की हम एक पतली धार पाते हैं। यही पतली धार कुछ और आगे बढ़कर और कई एक दूसरे पहाड़ी सोतों से मिलकर एक नदी बन जाती है। कलकल-कलकल बहती है। लहरें उठती हैं। कहीं पत्थर की चट्टानों से टकरा कर छींटे उड़ाती है। फिर बड़ी नदी बनती है और बड़े वेग से समुद्र की ओर बहती है।
हमारी चाहों का भी यही ढंग है, पहले जी में इसका कोई चिन्ह नहीं होता। पीछे धीरे-धीरे उसकी एक झलक सी इसमें दिखलाई देती है। कुछ दिन और बीतने पर उसकी एक धार-सी भीतर-ही भीतर फूटने लगती है पीछे यही धार फैलकर जी में घड़ी-घड़ी लहरें उठाती है। अठखेलियाँ करती है। अड़चनों से टक्कर लगाती है और अपने चहेते की ओर बड़े वेग से चल निकलती है।
अंत में यही कहना चाहूंगी हे मल्लिके, तुमने मेरे भीतर की स्त्री के विभिन्न रंगो को और गहन कर दिया. उसकी सचेतन समर्पण और स्वावलंबन को और भी उजागर कर दिया।

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उपन्यास ‘मल्लिका’ राजपाल एंड संज से प्रकाशित हुआ है। 

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