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सुजाता के उपन्यास के ‘एक बटा दो’का अंश-इन जॉयफुल हॉप ऑफ रेजरेक्शन

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युवा लेखिका सुजाता का उपन्यास  ‘एक बटा दो’ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। स्त्री जीवन को लेकर लिखा गया यह उपन्यास अपने कथानक और भाषा दोनों में अलग है। इस अंश को पढ़िए और बताइएगा- मॉडरेटर

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इन जॉयफुल हॉप ऑफ रेजरेक्शन

कभी जिस एकांत की ख़ूब कामना करते हैं वह किसी दिन एकदम से सिर पर आकर सवार हो जाए तो उस लाड़ले नन्हे बच्चे सा भी लगता है जो आप ही की गोद में बैठ आप ही की आँख में अँगुली घुसेड़ कर हँसता है और आप फिर भी उसे ‘ना मुनिया’ कहकर मनाने की ही कोशिश करते हो । एक अकेली रात की तैयारी के लिए दिन भर की घुमाई पर्याप्य होते हुए भी थकाऊ नहीं थी । रिसेप्शन पर हीटर था । वहीं चली गई । एमा घर जाने की तैयारी कर रही थी । सुबह से रिसेप्शन पर वही थी । मेरी मुस्कुराहट का जवाब मुस्कुराहट से देते हुए वह जाने लगी तो मैंने उसे उसके बैग के लिए कॉम्प्लीमेण्ट दिया । वह रुकी और मेरी खैरियत पूछी । मेरी अजीब शक्ल से शायद उसे अंदाज़ा हुआ हो कि ठ्ण्ड की वजह से मै परेशान हूँ । कमरे में भी हीटर भिजवा देगी वह । बातें चल निकलीं तो वह ज़रा सी खुल गई बस उतना कि अस्सी गज के लहंगे का घेर बस तब तक बेधड़क घूमे किजब तक आप घूमते रहो और रुकते ही सिमट जाए । वह तिब्बती कौम को लेकर खासी नाख़ुश थी । स्कूलों में अगर तिब्बती बच्चों को यह सिखाया जाए कि पूंजीवादी व्यवस्था में हिस्सा लो और कमाओ ताकि अपने समुदाय की मदद कर सको तो यह हमारे उद्देश्यों के एकदम खिलाफ है । चिंता थी उसे कि आख़िर तिब्बतियों को पूंजी ही हराएगी जिससे बचकर चीन का साथ छोड़ा था । मुझे याद आया कि दिन में बाज़ार में मैंने बेहद महंगे मोबाइल फोन कुछ लड़कियों के हाथ में देखे थे । एमा जब आधी हिंदी आधी अंग्रेज़ी बोलती थी तिब्बती एक्सेंट में तो उसे पास बिठाकर सिर्फ सुनते रहने की प्रबल इच्छा होना स्वाभाविक था । उठ कर जाने को आतुर एमा का आखिरी वाक्य कि- “एन.जी.ओज़ के एक्सपायरी डेट होना चाहिए टेन यिअर्स का…इससे पुराना एन.जी.ओ पर मुझे ट्र्स्ट नहीं होता ।” मुझे बेहद रोचक लगा । जाते हुए हमने एक छोटा सा आलिंगन किया और देर तक उसकी बाह में उदास रंगों वाली कश्मीरी कढाई का बैग झूलता दिखता रहा ।

उसके चेहरे की मुस्कुराहट बातों में चिढ बनके ढली थी और अब जाते कदमों में उदासी बनकर उतर गई । एक फ्री तिब्बत अब कहाँ होने वाला है । कौन सा घर है जहाँ इन्हें अब जाना है! उसके अलावा कौन सा घर होता है कि जहाँ हम रात को अपने पाँव बिस्तर पर पसारते हैं तो एक शुकराना ज़बान पर आता है और आँखों में गहरी नींद! तीस साल पहले,अपने बचपन में परिवार के साथ भाग कर यहाँ आ बसे इटालियन रेसत्राँ में काम करने वाले लड़के के माँ-बाप शायद जानते होंगे ।

 

देखादेखी जो वोद्का ली गई थी अब उसे पीना था । दरवाज़ा, खिड़की बंद करके पर्दे लगा दिए । मोबाइल फोन बंद कर दिया । पहला घूँट जब गले से उतरा तो कलेजा मुँह को आ गया । शायद कोल्ड ड्रिंक कम मिलाई है । फिर और मीठा करके उसे पिया । जल्दी से दूसरा घूँट् । तीसरे घूँट के बाद जैसे शिराओं में चींटियाँ दौड़ने लगीं ‘होल्ड द ड्रिंक’ ! किसी पार्टी में कहा था किसी ने- खाना खाती हो या जल्दी से झाड़ू-पोंछा निबटाती हो । धरमकोट के बारे में कितना सुना था । गांजा चरस का अड्डा है । विदेशी भरे रहते हैं । लेकिन हिम्मत नहीं कर सकी वहाँ जाकर देखने की । आधा गिलास ख़त्म हो गया लेकिन सिर्फ उतना चक्कर आ रहे हैं जितना देह में हीमोग्लोबिन की कमी से आते हैं । आपका एच.बी. 4.5 है आप ज़िंदा कैसे हैं, चलती-फिरती कैसे हैं…न, अब तो मर-गिरकर दस हो जाता है । सबको माफ कर दो, बुद्ध हो जाओ । यहीं न बस जाऊँ किसी स्कूल में पढाऊंगी । बस यहाँ की सरदी काटना मुश्किल होगा बहुत ।मैं हर बार अधूरे जवाब देकर आती हूँ और बाद में सोचती हूँ । अय्यर आँटी ने जब कहा था- कहाँ से आ रही हो, आज बहुत देर हो गई, स्कूल तो दोपहर में ख़त्म हो गया होगा न ! तब सारी डीटेल नहीं देनी थी, कहना था गुलछर्रे उड़ा के आ रही हूँ । भला आप क्यों सारा दिन जासूसी करती हैं बहू बेटियों की ? गिलास ख़त्म करके मैंने खड़े होने की कोशिश की । ज़रा सी लड़खड़ाहट है बस । दिमाग एकदम ठीक काम कर रहा है । एक और पीना चाहिए । बस । सिध जैसे कहीं से झांक रहा हो । कैसे कैसे गंदे काम करने लगी हो ! धीमे-धीमे दिमाग में पेंच घुमाता है सिद्धांत भी । प्यार से । वही बचपन वाला खेल,ज़ोर से आँख भींच लेती हूँ । अपने भीतर नहीं झाँकती आँख, अपना ही अक्स बनाने की कोशिश करती है । जल में कुँभ कुँभ में जल है बाहर भीतर पानी/ फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना यह तत कह्यो गियानी… पुरुष स्त्री की देह है?  उसे धारण कर लेती है तो जैसे मोह-माया में पड़कर सारी दुनिया से कट जाती है? प्रकृति से भी? वर्ना तो वह वही मिट्टी है , पानी,आग ,आकाश और हवा । है न !  नाना नहीं रहे तब नानी हम सबकी हो गईं । जब तक जीते थे नाना वे उनके जंजाल में घुसी-मुसी रहतीं । दरवाज़ा खोलती हूँ तो एक झोंका बरफीला चेहरे पर पड़ता है । लड़खड़ाते हुए लौट आती हूँ उसे बंद करके । गुदड़ी-मुदड़ी रजाई में जैसे अयुज सोया है । सोफे पर नानी बैठी हैं । अस्सी की उम्र में भी काले बाल, आदिम स्त्री की सी घनी झाड़ियों सी बरौनियाँ, सलवार-कुरते में सिकुड़ी हुई देह और पनीली आँखें । मैं घुटनों पर सर टिकाकर बैठ गई हूँ ज़मीन पर । मैं पूछती हूँ -नानी भटकती हो ? क्या अब भी आज़ाद नहीं हो? अपनी क्या कोई देह नहीं है नानी? मै भी हूँ कुँभ या पानी ही हूँ ? क्या रोकता है नानी हमें ? बेहद बेहद बूढी हो गई नानी । बूढ़े बरगद जैसी । क्या माँ भी इनके जैसी दिखेंगी कुछ साल बाद? उनसे तो अभी कुछ नहीं कहा । क्या माँ भी रोएंगी ऐसे ही बेआवाज़ , जैसे नानी रोती है इस वक़्त?

पाँव की अँगुलियाँ ठण्ड से  सुन्न हैं । तीसरी बार गिलास में ढाला आसव ।

 

अगले दिन दोपहर का खाना खाने के बाद अचानक मेरा बाज़ार की भीड़ से अलग हटने का मन हुआ । चलते चलते एक चर्च के पास पहुँची । हलकी बारिश से भीगी हुई शाम में वह चर्च एक रहस्यमय सा वातवरण रच रहा था । लोहे का गेट खोलकर चर्च के लॉन के भीतर घुसी तो बाईं तरफ एक सिमिट्री थी । कब्रें कितनी सारी । एक मन हुआ करीब से देख आऊँ । कदम बढाते हुए लगा कि मेरे आने से उन्हें परेशानी न हो  कुछ पर्यटक वहाँ से बेखौफ निश्चिंत निकल गए तो लगा मैं भी जा सकती हूँ । एक छबीस साल की लड़की इसाबेला की कब्र देखकर रुक गई मैं वहाँ । लुधियाना रेजिमेण्ट के लेफ़्टीनेंट की पत्नी जिसकी सन 1866 धर्मशाला में मृत्यु हुई । मान लो अगर यह कब्र से उठे और मेरे भीतर प्रविष्ट हो जाए तो ! मेरे भीतर एक छबीस साल की क्रिश्चियन लड़की जो पता नहीं असमय क्यों मर गई । आत्महत्या कर ली, मार दी गई, कोई बीमारी थी, कोई हादसा था…अचानक जैसे कोई मेरे बालों में अँगुलियाँ फिरा कर छिप गया था…पीछे एकदम घनी झाड़ियाँ थीं और कोई नहीं था वहाँ । मुझे अचानक लगा कि मौत एक सीक्रेट लवर की तरह है…आप बस की सीट पर बैठने लगो तो अचानक वहाँ कोई एक गुलाब रख गया है…किसी दिन सुबह उठो तो दरवाज़े की घण्टी के साथ अखबार नहीं एक फूलों का गुलदस्ता है जिसपर किसी का नाम नहीं है आप कई दिन अंदाज़ा लगाओ कि कौन होगा…आप घर की सीढियों से उतरो, बारिश होने लगे अचानक, आप पल भर रुको और वापस मुड़ो तो सीढी पर एक छाता रखा गया है कोई…लौटो बहुत थक कर इस चिढन के साथ कि सो भी नहीं सकेंगे ठीक से कि किसी ने सेज सजाई हो जतन से…हौले से बाल सहलाए पीछे से और कान में फुसफुसा दिया -तुम चाहो तो हमेशा के लिए सो जाओ मेरी प्रिया !

कब्र पर खुदा है ‘इन जॉयफुल होप ऑफ हर रेज़रेक्शन’ । जॉयफुल मुश्किल से पढा गया था क्योंकि बहुत देर तक तक यकीन ही नहीं आया कि कब्र पर यह शब्द हो सकता है । पांव के नीचे हलचल महसूस करती हूँ । कोई भूकम्प की लहर चलती चली गई है ! धरती के भीतर से चलता हुआ कोई मुझमें प्रविष्ट हो रहा है…एक सफेद फ्रॉक वाली छ्ब्बीस साल की लड़की पूरे कमरे का सामान इधर से उधर फेंकती चली जा रही है, पर्दे नोच लिए हैं उसने, चिल्ला रही है लगातार, कांच की किरचें बिखर गई हैं एक उसके पाँव में खुभ गई है खून बह रहा है वह फिर भी झगड़ रही है किसी अदृश्य से…कोई आवाज़ नहीं है जैसे टीवी को म्यूट कर दिया गया हो सिवाय इसके कि कान में साँय साँय की आवाज़ गूँज रही हो…वह अचानक से गिर गई है फर्श पर…वह पिघल रही है…जैसे किसी पेंटर की अभी-अभी बनी तस्वीर पर पानी डाल दिया हो भर गिलास किसी ने…

 

एक गाइड के साथ एक झुँड ने प्रवेश किया है । विदेशी टूरिस्ट हैं सब ।

भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड एल्गिन की कब्र भी है यहाँ जो इस इलाके पर इतना मुग्ध थे कि मैक्लॉड्गंज को भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाना चाहते थे । भीगता हुआ चर्च भीष्म पितामह सा लग रहा था जिसने कसम खाई है और जो टल नहीं सकती  । मैं चर्च होती तो मॉन्यूमेण्ट के रखरखाव के नाम पर होने वाले खेल को मना करके कबकी ढह जाती, बह जाती बोरिंग लोगों की इस दुनिया से । अचानक मुझे मुक्तेश्वर में देखा वह जला हुआ घर याद आया जो खँडहर हो गया था । जब मैं किसी खण्डहर को देखती हूँ तो उसके युवा दिन याद करने के लिए नहीं । मैं उसका खण्डहर होकर उसमें रम जाना देखती हूँ…छूकर उसे पूछना चाह्ती हूँ कि जब हम अपनी सारी हँसी बिसार चुके होते हैं, जब हम अतीत वर्तमान और भविष्य किसी में नहीं होते, जब हम अगम्य हो जाते हैं ,खुद अपने लिए भी…तब हमारे पास क्या बचता है? तब कौन आता है हमारे पास? खण्डहर से कोई जवाब नहीं आता । जले हुए आकार हैं और पुराना पड़ा मलबा ।गीला होता है । सूखता है । लकड़ी के किसी कुंदे पर मशरूम निकल आता है । कहीं घास सर उठाती है तो ग्रेफाइट से बनी तस्वीर में रंग भरने लगता है…तस्वीर आधी ही छूटती है और कलाकार बगल में एक पुराने पोस्ट ऑफिस की सीढी पर बैठकर बीड़ी का धुँआ उड़ाता है । खुल-खुल आवाज़ करता हँसता है । मुझे गौर से देखते खड़े एक सत्तर पिचहत्तर के एक मनचले बूढ़े ने कहा ‘सौ साल पुराना है यह, भीतर जाकर देखो’ मैंने पूछा इस पोस्ट ऑफिस में आप नौकरी करते थे? वह कहता है नहीं यहाँ नहीं पी डब्ल्यू डी में । मुझे हैरान होते देख वह कहता है ‘पकौड़े वाले की दुकान’ और फिर खुल –खुल करके हँसता है जैसे भीतर का सारा अस्थि पिंजर साथ बजता हो  । ज़रा सी देह वाला यह बूढा जिससे दारू की बास आती है मुझे रोज़ उसी रास्ते में मिल जाता था । सब उससे कन्नी काटते हुए निक्ल जाते थे…मैं बरबस रुक जाती थी और कहीं नहीं होती थी उस वक़्त । जब जाने के लिए न अतीत न वर्तमान न भविष्य बचता हो तो…ज़िंदगी को नदी के बीच पड़ी चट्टान पर पांव पसार कर विस्तार देना चाहती हूँ… खण्डहर हवा की तरह फैलता है…अदृश्य …सर्वत्र ।

 

खाते-पीते घर की लुगाइयों के नाटक से हमें क्या!

आज एक प्री ब्राइडल आना था । परसों शादी है । तीन दिन मैं बहुत व्यस्त रहूंगी । अपना पार्लर खोलना भी आसान नहीं है ।बीच में तो बुरी तरह दर बदर हो गई थी । ‘एल्पस’ वालों के यहाँ से लड़कर निकली थी । वापस ‘मेपल्स’ में जा नहीं सकती थी । थूक कर कैसे चाट लेती । पिछले कुछ सालों में बोलना-बहसियाना-लड़ना ख़ूब सीख लिया था । यह तो जगजीत भी कहता था । लड़ाकिन हो गई है । उधर अबीर का मेसेज आ रहा था- मिलो, मिलो, मिलो । खाक तुमसे मिलूँ ! एक बार मिले तो पीछे ही पड़ गए  ।शादीशुदा हूँ । तीन बच्चे हैं । तुम सोच रहे हो तुमसे पींगें बढाने लगूँ? तुम्हे तो एक टाइमपास मिल जाए और अपना इधर घर बिगड़ जाए । सब मर्द देखे । सब एक से । एक गुजराती मिला था छह मुलाकातों में एक बार भी कह नहीं पाया ।  सोचना था न कि मैं टकराने के बहाने क्यों ढूँढती हूँ बच्चू जी । अच्छा होता वही समझदार होता तो पार्लर में दिन भर की रंगाई पुताई से मैं बचती । कहीं सेठानी बन बैठी होती । लेकिन अच्छा हुआ नहीं मिला । ज़िंदगी भर फाफड़ा –खाखरा खाती …… ऊई ! क्लाइण्ट चिल्लाई थी…मेरा हाथ चेहरे पर ज़रा सख्त होकर पड़ा था । उसने आराम से मालिश करने को कहा । लेकिन ऐसे नाज़ुक हाथ फिराऊंगी तो रौनक कैसे आएगी चेहरे पर । क्रीम मे तो कोई जादू होता नहीं । जैसे डेढ सौ की ऐसे डेढ हज़ार की । जिसको भीतर से खुशी हो सजना उसी के चेहरे पर खिलता है । मन भी तभी करता है पहनने ओढने का । तभी तो दुल्हन कैसी भी हो मेकप करने के बाद शादी में वही खिलती है ।

सारी दुनिया से लड़-भिड़ कर काम पर आती थी उदास तो सोचती थी क्या वाकई मुझे नौकरी करना इतना बुरा लगता है? शायद नहीं । नौकरी न करती होती तो जगजीत मुझे ज़िंदगी भर के मज़े चखा देता । ससुराल वाले मेरी पीठ पर सवारी करते और जेठानी मुझे कान पकड़ कर चलाती । उसकी सारी खुन्दक ही यही है कि सुबह चली जाती हूँ शाम को आती हूँ ,हाथ में अपने कमाए चार पैसे आते हैं । जेठ जी भले ही ख़ूब कमाते हैं लेकिन मांगे हुए पैसे में वह आनंद कभी नहीं  वह आत्मसम्मान कभी नहीं मिल सकता । जब तैयार होकर निकलती हूँ तो चोर की तरह दोनो का मुझे देखना गंदा लगता है ।सर से पाँव तक घूरती हैं जैसे नौकरी पर नहीं लड़के पटाने निकली हूँ । दिक्कत यही थी कि मैं उनके गैंग में शामिल नहीं होना चाहती थी । उसके लिए बहुत वक़्त चाहिए जो मेरे पास नहीं था । एल्पस वाली बबली भी यही कहती थी मीना कैसे रहती है बिना सिंदूर लगाए, अब भी किसी को पटाना है क्या ! यह हँसने वाली बात नहीं थी, मन करता था मुँह तोड़ दूँ । “तू करवाचौथ की विज्ञापन बन जा, मुझे नज़र मत लगा…” उसे बुरा लगा था लेकिन मैं क्या कर सकती थी । अब लोग सम्भल कर न बोलें तो बुरा बनना ही पड़ता है ।

प्री ब्राइडल की क्लाइण्ट बहुत देर से हिल-डुल रही थी । मैंने पूछा कुछ परेशानी है ? तो बोली नहीं । फिर भी उसकी असहजता ख़त्म नही हो रही थी । आख़िर उसने हिम्मत करके कहा -“आण्टी मेरा वी-वैक्स कर दोगे? ”  मैं मुस्कुराई और कहा “आप चाहती हैं तो एकदम कर देंगे,बबीता वैक्स हीट करने रखा? जब लेग्स करोगी तो बिकिनी लाइन भी कर देना दीदी का” अब क्लाइण्ट ने चैन से आँखे बंद कीं और चेहरे की मसाज का आनंद लेने लगी ।

हम तीन लड़कियाँ, तीनों थकीं थीं आज । ग़ज़ल का ठीक नाम लेना मेरा बस का नहीं था मैं गज़ल ही कहती थी । “आजा गज़ल, आज तो तेरा रेड अलर्ट है, नमाज़ भी नहीं पढनी होगी, आज साथ खाना खा ले…वो क्या कहते हैं वज़ू कर ले और टिफिन ले आ …” गज़ल के यहाँ बना मीट मुझे बेहद पसंद है, हालांकि वह पार्लर में कभी नहीं लाती नॉनवेज । मुझे भी छुप कर ही खिलाया था । बाड़ा हिंदूराव के पास उसका घर है, इतनी दूर आना जाना करती है रोज़ । बहुत कम बोलती है । चश्मा लगाती है । चश्मे वाली लड़की को पार्लर में मैंने इससे पहले कभी नहीं देखा था । लगता है ख़ूब पढी है लेकिन ग्यारहवीं ही पास है । कहती है मदरसा जाती थी । काम के लिए निकलना मजबूरी थी । बात करने में ख़ूब तहज़ीब, तमीज़ और ठीक ठाक काम लायक अंग्रेज़ी भी । बहुतदिन तक आईब्रो बनाते हुए क्लाइँट को स्टिच करने के लिए कहती थी…मैंने समझाया था स्टिच नहीं , ‘स्ट्रेच’ कीजिए…वे स्ट्रेच करेंगी तो तुम ठीक से थ्रेडिंग कर सकोगी । हँसी थी वह ख़ूब और मैडम की बजाए दीदी कहने लगी उसी दिन से ।

हर बार की तरह विशाखा दीदी बिना अपॉइट्मेंट लिए काम करवाने आई थीं । पुराने लोगों को मना भी नहीं किया जाता । हमने फटाफट कटे हुए बालों को एकतरफ किया झाड़ू से और कैंची वगैरह ढंग से लगा दी शीशे के सामने । गज़ल के मुँह में धागा था और हाथ तेज़ चल रहे थे । मैं उनके बालों के लिए रंग बनाने लगी ।  डार्क ब्राउन !  काम करते-करते बात न करो तो थकान दोगुनी हो जाती है  । विशाखा दी बातें भी मस्त करती हैं तो मैंने भी यों ही उनसे पूछ लिया –“आपके ननद की शादी हुई थी न पिछले साल ! कैसी हैं वो?”

मानो विशाखा दीदी की दुखती रग छेड़ दी हो “पता नहीं भई, आजकल की लड़कियाँ अजीब हैं, इतनी बिगाड़ी हुई लड़की है कि क्या कहें । अभी बच्चा हुआ है,सारा दिन उसे डायपर में रखती है, हम तो नैपियाँ बदलते धोते पसीना बहाते बच्चे पालते थे । ये हवा भी नहीं लगने देतीं लड़के की मुन्नो में । रैश पडेंगे तो पता चलेगा पता क्या चलेगा ,इन्हें पड़ी ही क्या है । एक दिन दूध नहीं पिलाया । घड़ी-घड़ी पाउडर मिलाती हैं पानी में…अभी गला भरा होता है बच्चे का कि फिर से बोतल ठूँस देती है कहती है ले पी साले …कितना रोता है…”

“हा हा हा…दीदी आपकी ननद तो निराली है !साला कहती है बच्चे को ? और मुन्नो क्या होती है ?” मैंने चटखारे लेते हुए पूछा ।

“मुन्नो होती है सूसू बच्चे की…लेकिन बाईगॉड अगर कोई मशीन होती न कि बच्चे के मुँह पर लगाओ और उसके मन की बात सुनाई देने लगे तो यह बच्चा बाईगॉड माँ –बहन एक कर देता माँ बाप की  ।”

वे अब ज़रा सन्यत लग रही थीं । मैं फिर बोर होने लगी “तो अभी वे आपके पास आई हुई हैं? ”

“अरे पूछ मत मीना, जब रहने आती है मेरी जान निकल जाती है । इस बार तो आज सुबह आई है कैब से और तब से पति को मेसेज पर मेसेज फोन पर फोन चल रहे हैं । मैंने कहा जैसे आई हो वैसे ही चली जाओ – कैब से । बोलीं ऐसे कैसे चली जाऊँ भाभी- सुबह ये जल्दी निकल गए थे तो एहसान जता के आई हूँ कि अकेले जा रही हूँ बच्चा लेकर । शाम को भी ले जाने के लिए नहीं बुलाऊंगी तो आदत पड़ जाएगी इन्हें । कल को कह देंगे जैसे गई थी वैसे लौट भी आ । आज ब्लीच मत करना , पिछली बार का चल रहा है । तो मैं यहाँ आ गई कि करो भई माँ-बेटी चुगलियाँ आराम से । इतने नाटक हमारी माँ भी सिखा देतीं !”

विशाखा दी की आँखें बंद थीं और मेरे बबीता के इशारे चल रहे थे । खाते-पीते घरों की लुगाइयों के भी अजीब नाटक होते हैं । इनकी सारी ज़िंदगी पतियों को कंट्रोल करने की जद्दोज़हद में ही बीत जाती है । पीछे से गालियाँ बकती हैं और करवाचौथ पर कार्टून की तरह तैयार भी होती हैं । अपना क्या है, ये हैं तो बिज़नेस है हमारा ।

 

 

 

 

 

 

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