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स्वयं प्रकाश की पुस्तक ‘धूप में नंगे पाँव’का एक अंश

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जाने माने लेखक स्वयं प्रकाश की आत्मकथात्मक क़िस्सों की किताब राजपाल एंड संज प्रकाशन से आई है- ‘धूप में नंगे पाँव।’ उसी किताब के कुछ रोचक अंश पढ़िए- मॉडरेटर

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जो कहा नहीं गया -१

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मैंने सन १९६६ मे जावरा पोलिटेक्निक  कोलेज से मेकेनिकल इंजीनिअरिंग में डिप्लोमा कर लिया था . जावरा मध्य प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू  का विधान सभा क्षेत्र था,उन्हीं के प्रयत्नों से वहां पोलिटेक्निक कोलेज की  स्थापना हुई थी और इसका परिसर प्रयोगशालाएं वर्कशॉप  और हॉस्टल आदि आज के अनेक इंजीनियरिंग कोलेजों  से कहीं ज्यादा बड़े और विकसित थे. इस पोलिटेक्निक  कोलेज का अपना ही रुतबा और प्रतिष्ठा थी . वैसे भी उस समय पूरे मध्य प्रदेश में मात्र चार इंजिनीरिंग कोलेज और  बारह पोलिटेक्निक  थे और हमारे कोलेज के छात्रों को फायनल इयर कि परीक्षा में बैठने से पहले ही विभिन्न उद्योगों से  नियुक्ति प्रस्ताव और नियुक्ति पत्र प्राप्त  होने लगते थे हमसे एक बैच पहले तक यही आलम था.उस बएच के सभी  सफल छात्र  कहीं न कहीं ठाठ से लग गए थे. लेकिन ६५ में पाकिस्तान के साथ युध्ध हो गया .सारे ससाधन रक्षा में झोंके जाने लगे. बाकी सबसे खर्च में कटोती करने और भावी योजनायें फिलहाल स्थगित करने  को कह दिया गया उद्योगों में निवेश का रुझान थम गया सरकारी महकमों मे रिक्तियां निकलना बंद हो गयीं नतीजा यह हुआ कि जिन इंजीनियरों को नेहरूजी राष्ट्र निर्माता कहते थे और जिन्हें अपने यहाँ नियुक्त करने को उद्योग लालायित रहते थे  वे इंजीनिअर बेरोजगार घूमने लगे  इन बेरोजगार इंजीनिअरों में से एक में भी था .

पढ़े-लिखे की बेरोज़गारी बहुत मारक होती है .वह तब और वहां भी रोज़गार ढूँढने के लिए धक्के खाने लगता है  जब और जहाँ रोज़गार की  कोई संभावना नहीं होती वह घर पर खाना खाना टालने लगता है –यह कहकर कि आज तो फलां दोस्त ने खिला दिया ,और खाता  भी है  तो खाना कम खाता है पानी ज्यादा पीता है .चार की जगह तीन रोटी खाकर ही डकार लेने लगता है  और आवेदन पत्र, पोस्टल आर्डर  भेजने के लिए पैसे  उन सहपाठियों से उधार मांगने लगता है  जिन्हें पूरे कोलेज वर्षों में उसने कभी भाव नहीं दिया. वह “कहीं भी कोई भी “काम करने को राजी हो जाता है  और एक बार किसी ने ऐसा किया तो नियोक्ता भी समझ जाते हैं  कि अब इंजीनिअरों को भी इतनी कम उजरत पर रखा जा सकता है.

ऐसे ही फिट्मारे दिनों में भारतीय नौसेना में इंजीनिअरों के लिए पहली बार सीधी  भर्ती निकली और कुछेक परीक्षाओं के बाद बगैर किसी से पूछे-ताचे  या सलाह किये मे  उसमे घुस गया.

००००

 

बम्बई के फोर्ट इलाके में लोयंस गेट के सामने खड़े हो जाओ  तो अनुमान नहीं लगा सकते कि इसके भीतर आई. एन. एस. आंग्रे नामक एक पूरा नेवल बेस होगा जहाँ नए जवान भर्ती किये जाते हैं और पुराने जवान अपने नए जहाज के आने की प्रतीक्षा करते  हैं .

वहाँ एक बहुत  शानदार जिम था  जिसमें बहुत सारे हट्टे-कट्टे गोरे-चिट्टे नोसैनिक तरह-तरह के दर्शनीय व्यायाम करते थे उन दिनों मेरे हाथ-पैर सूखी लकड़ी की तरह और चेहरा छुआरे की  मानिंद था .मेरे लिए ये व्यायाम करते सुडौल-सुचिक्कन  नौसैनक ईर्ष्या का नहीं,स्पृहा का विषय थे .काश! कभी में भी ऐसा हो पाऊँ !में अपने पीछे  एक अदद प्रेमिका को छोड़कर आया था और क्योंकि वह मेरे  साथ -मुझ बेरोजगार छुआरे के साथ -भाग चलने को राजी नहीं हो रही थी ,इसलिए नेवी ज्वाइन करने के पीछे एक तरह से उसे मज़ा चखाने की  भावना भी थी.में अपनी कल्पना की  आँखों से देख रहा था  कि वह रोते- रोते मुझे लौट आने के लिए कह रही है! और में उसकी आंसू  भरी पुकार को अनसुना करके  समुद्री तूफ़ान में अकेला लहरों के थपेड़े खा रहा हूँ  आदि. हालाँकि किया उसने इसका ठीक उल्टा .उसने मुझ भगोड़े को अपने हाल पर छोड़ कर  नासा में कार्यरत एक प्रवासी भारतीय से शादी कर ली  और अमेरिका जा बसी .लेकिन इस प्रसंग क घटित होने में अभी समय था.

कसरती नौजवानों ने नेवी  ज्वाइन करने के मेरे इरादे को  और पक्का कर दिया  और मैंने स्वयं को नयी परिस्थितियों के लिए तैयार करना शुरू कर दिया .

नहाने के लिए वहां कोमन बाथरूम नुमा एक हौल था जिसमें चालीस शोवर लगे थे जिनके नीचे लोग खड़े होकर नहाते थे -अधिकांश नंगे !खाने के लिए थाली -कटोरी हाथ में लिए लाइन लगनी पड़ती थी  और दिन भर  कड़ी चिकित्सा परीक्षाओं से गुज़रना पड़ता था .

मध्य प्रदेश से हम दो ही लड़के थे .में और बापट. बापट को नंगे नहाने और गाना गाने का बहुत शौक था .गाने वह दीदार,अनमोल घडी,आन वगैरह फिल्मों के गा या करता था. शमशाद बेगम उसकी पसंददीदा गायिका थी. और वह काफी खुली,बेहद खुली,बल्कि इतनी खुली आवाज़ में मुंह ऊपर उठा कर गाता था मानो रेलगाड़ी मे भीख मांग रहा हो. श्रोता हंसने लगते थे और वह शरमाकर चुप हो जाता था और होठों पर से थूक पोंछने लगता था .मैंने उसका कोई गाना कभी पूरा नहीं सुना.

 

जो कहा नहीं गया-२

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सात दिन चली चयन प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद हम चयनित २५ इंजीनिअरों को लोनावाला ले जाया गया जहाँ रेलवे स्टेशन से कोई २२ कि मी दूर सघन वन के बीच बनी एक सुरम्य घाटी में नेवी का ट्रेनिंग सेंटर आई. एन.एस. शिवाजी था . हम सब विभिन्न प्रान्तों से आये हुए गरीब घरों के बच्चे थे  जिन्होंने कभी डाइनिंग  टेबल पर बैठकर चुरी -कांटे से खाना नहीं खाया था ,सुबह उठकर माँ-बाउजी को गुड मोर्निंग नहीं बोला था ,हवाई जहाज में सफ़र नहीं किया था  और कमोड़ पर बैठकर हगा नहीं था .कन्संत्रेशों   केम्प  के कैदियों की तरह जाते ही हमें एक जगह ले जाया गया  जहाँ हर लडके को दरी-कम्बल-चद्दर-तकिया और कित  बेग के अलावा पांच-पांच तरीके की वर्दियां ,तीन तरह के जूते ,स्वेटर-कोट-टोपियाँ-मोज़े-बरसाती-गमबूट-समेत चालीस आइटम इशू किये गए .उसके बाद हमें एक बैरक में ले जाया गया जहाँ दो कतारों में पच्चीस पलंग पहले ही लाइन से लगे थे . हमने एक-एक पलंग पर अपना सामान  पटका  और पसंद का पड़ोसी चुन लिया .अभी कमर सीधी भी नहीं की  थी  कि फिर चलने का हुकुम हुआ.जहाँ गए वहां जमीन पर लाइन से बैठा दिए गए लाइन के सबसे अगले सिरे पर  एक नाई आकर बैठ गया  और उसने अपनी जीरो मशीन से एक-एक का सर पकड़कर  इस तरह घास्कटाई शुरू की कि टोपी से बाहर एक बाल न दिखे. और आप यकीन  नहीं करेंगे उसे प्रति व्यक्ति पांच मिनिट का समय भी नहीं लगा .

उसके बाद हमें मेस में ले जाया गया. मेस में डिनर का मीनू था मूंग कि चिल्केवाली दाल ,आटे की ब्रेड  और खाने के बाद काली कोफी .अगले छह महीने सुबह-शाम हमारा यही मीनू रहना था और हमें न सिर्फ इसका अभ्यस्त हो जाना था बल्कि इसे पसंद भी करने लगना था .

बैरक में लौटकर सबने अपने सामान को देखा-जांचा-परखा,वर्दियोंको पहन -पहनकर देखा और एक-दुसरे  के इस नए अवतार को देखकर खुश हुए और खिलखिलाए .दो-चार लम्बे सरदार ही थे  जिन्हें वर्दी की फिटिंग के लिए दरजी के पास जाना पडा.हमें जो टोपी पहननी थी वह सफ़ेद रंग की पीक केप थी जिसका पीक काले  रंग का था   और जिसके शीर्ष पर जरी  से कढा भारतीय नौसेना का प्रतीक चिन्ह था .हममें से लगभग सभी  ने  लोनावाला जाकर वर्दी-टोपी पहनकर फोटो खिंचाई और घरवालों को भेजी. घरवाले इन तस्वीरों को देखकर खुश हुए होंगे या दुखी,पता नहीं.शायद पहले खुश हुए हों बाद में दुखी., बच्चा फौज को दे दिया तो फिर वह घर-परिवार का नहीं रहता ,उसे साल में एक बार घर जाने की छुट्टी मिलती है ,उसमें भी वह बीच रस्ते से वापस बुलाया जा सकता है ,वह जब चाहे नौकरी छोड़ नहीं सकता  और युध्ध के समय हर पल उसकी मृत्यु की आशंका घरवालोंको घेरे रहती है .

इन्दोर से आज़ाद का फोन था .

-सिलेक्शन हो गया ?

– हाँ. दस साल का बोंड है.

– दस साल का !!

वह नौकरी मिलने पर बधाई देना चाह रहा होगा .मेरी बेरोज़गारी से मुझसे ज्यादा वह परेशान था.उसने मेरी इंग्लिश  कोचिंग क्लास्सेस शुरू करवाने के लिए काफी पैसा खर्च किया था ,अपने घर का एक कमरा  भी खाली कर दिया था ,फर्नीचर की भी व्यवस्था कर दी थी ,लेकिन १९६६ में स्पोकेन इंग्लिश छह महीने में फ़र्राट सिखाने  के लिए चार रूपया महीना फीस  देनेवाले  बीस छात्र भी में नहीं जुटा  सका. .वश्वीकरण की हवा भारत में आने में अभी समय था . अभी वातावरण में जाति तोड़ो और अंग्रेजी हटाओ की प्रतिध्वनियाँ थीं .अभी घरों में प्रेमचंद-शरत-रवींद्र पढ़े जा रहे थे ,अभी मंचों पर नीरज-सुमन-वीरेंद्र मिश्र सुने जा रहे थे .

लेकिन दस साल सुनते ही आज़ाद के बोलती बंद हो गयी बधाई देना भूल गया.अब वह गुलाबसिंह को क्या बतायेगा ?कैसे दस साल प्रतीक्षा करने को मना पाएगा ?

मैंने भारतीय नौसेना से प्राप्त पहली  तनख्वाह ,अपने जीवन के पहले वेतन की पूरी राशि अपने माँ-बाप को नहीं ,आज़ाद की  माँ के नाम मनी आर्डर करा दी.

मैं आज़ाद का दोस्त था.उसकी पड़ोसन का प्रेमी. मैं लगभग हर रोज़ वहां होता था ,लेकिन शायद ही कभी ऐसा हुआ होगा क़ि भोजन का समय हो  और मैं आज़ाद के घर से बगैर खाना खाए लौट आया होऊँ. दो-चार बार तो ऐसा भी हुआ क़ि रसोई में पतरे  बिछाकर बीच में थाली रखकर आज़ाद ने ,आज़ाद के भाइयों ने  और मैंने खाना खा लिया  और अंत में बाईजी,यानि आज़ाद की  माँ सब्जी की  खाली कढाई में एक गिलास पानी डालकर उसे हिलाकर पी गयीं और उठ गयीं.

एक बार ऐसा हुआ क़ि मेरे घर से मनी आर्डर नहीं आया था और दो रोज़ बाद ही परीक्षा की फीस भरने की  अंतिम तारीख थी .मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करुं अंत में रात की  गाडी से जावरा से बैठकर सुबह इंदोर आ गया बगैर टीकट और आज़ाद को समस्या  बताई थी .लेकिन  आज़ाद के सारे घरवाले एक शादी में भाग लेने उदैपुर गए हुए थे .और बात दस-पांच रुपयोंकी नहीं पूरे पैंतीस रुपयों क़ी थी  जो किसी दोस्त से उधार भी नहीं मांगे जा सकते थे .उस ज़माने में विद्यार्थी कलाई घडी भी नहीं  बांधा करते थे कि उसी को बेचकर पैसे पा लिए जाएं कलाई घडी तो तभी कलाई  पर आती थी जब आदमी नौकरी करने लगता था.

तब आज़ाद ने बाईजी के संदूक का ताला तोड़कर मुझे पैतीस रुपये दिए थे ताकि में परीक्षा की फीस भर सकूं और मेरा साल न खराब हो !

वो पैंतीस रुपये मैंने आज तक आज़ाद को नहीं लौटाए हैं. सोचता हूँ आज उसे पैंतीस हज्जार या पैंतीस लाख रुपये भी लौटा दूं तो क्या बाईजी के संदूक का ताला तोड़कर दिए गए उन पैंतीस रुपयों का क़र्ज़ उतर पायेगा ?

००००

जो कहा नहीं गया -3

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ऐसा ही एक बार और हुआ था.

हॉस्टल का मेस बंद हो चुका था

कसबे  के होटलों में इतनी उधारी चढ़ चुकी थी उनहोंने पोलिटेक्निक के छात्रों को अपने यहाँ खाना खिलाना बंद कर दिया था .

उन दिनों में  एक पुस्तक पढ़ रहा था . ‘भगतसिंह और उनके मृत्युंजय पुरखे ‘जिसमें जेल में क़ी गयी उनकी तीस दिन लम्बी हड़ताल का लोमहर्षक वर्णन था.  घर से मनी आर्डर आने वाला था ,अब तक आ जाना चाहिए था, पर आया नहीं था.

तो मैंने सोचा भगतसिंह कर सकते थे तो मैं    क्यों नहीं कर सकता ?

तो शुरू हो गयी मेरी भूख हड़ताल !

दुसरे -तीसरे दिन भूख खूब लगी.खाने के ख्याल और सपने आते  रहे .उसके बाद भूख लगना बंद हो गयी.

शायद वह आठवां या नवां दिन था.मैं अपने कमरे में अधमरा पडा था .मेरे दोस्त कैलाश निगम को पता चला तो वह आया और मुझे जबरदस्ती साइकिल पर बैठाकर अपने घर ले गया. उसका घर जावरा में ही था. उसने खाना खिलाया. बहुत प्रेम से. ताकीद करते हुए क़ी आइन्दा खुद को कभी अकेला न समझूं और उसके होते भूखा न रहूँ. उसकी ममतामयी  माँ ने भी यही कहा.सर पर हाथ फेरा.

और हॉस्टल लौटकर मैंने उल्टी कर दी .

 

००००

 

आई.एन.एस.शिवाजी  एक बेहद सुरम्य स्थान था.बैरकों के पीछे  खेल का मैदान,आगे मेस,परेड ग्राउंड और ट्रेनिंग सेंटर जहाँ हमारी मरीन इन्गीनिअरिंग की कक्षाएं होती थीं ..फिर कई सारे वर्कशॉप और चारों तरफ घना जंगल और गहरी घाटियाँ दिन में ऊंचे फ्लेग मास्ट पर लगा भारतीय नौसेना का झंडा हममें एक अभय भाव संचारित करता था लेकिन रातें अँधेरी .भुतहा और डरावनी होती थीं नाईट  पेट्रोल की सीटियों के बावजूद इधर-उधर के सूने इलाकों में जाने क़ी कोई हिम्मत नहीं करता था.इसका एक कारण इलाके में घूमते जंगली जानवर भी थे–खासकर तेंदुए   जिनमें से दो को हमारा क्वार्टर मास्टर मार चुका था..

ट्रेनिंग सेंटर में एक बार भी था जो हम लोगों के ही लिए था लेकिन जहाँ सेलर्स का प्रवेश वर्जित था .सेलर्स भी  कई तो हमसे बहुत छोटे लेर्किन कई तो हमारी उम्र के ही थे .वे अँधेरा होने तक बार से सटे खेल के मैदान में फुटबोल खेलते रहते ,इस उम्मीद में कि हममें से कोई कभी अपना गिलास लेकर बाहर आ जाएगा और उसकी दारू चुपके से उनके मग्घे में ड़ाल देगा. कभी-कभी हम ऐसा कर भी देते थे. मेस भी हमारा अलग था और हमारे ही लिए था .मेस में हमें खाना  खिलाने के लिए सेलर्स की  ड्यूटी लगती थी जो बड़ी मजेदार अंग्रेजी बोलते थे .एक बार एक सेलर दही जैसा कुछ परोस रहा था .मैंने पुछा यह क्या है तो वह बगैर संकोच बोला “येस्तेर्देय्ज़  मिल्क टुडे  सर”

भारतीय नौसेना के सभी जहाजों और प्रशिक्षण केन्द्रों में खाने का मीनू एक समान था .बुधवार को लंच में मटन बिरियानी बनती थी और इतनी लाजवाब बनती थी कि खाते रह जाओ.आई.एन.एस.शिवाजी की  मटन बिरियानी पूरी नेवी में मशहूर थी .शुक्रवार को डिनर में मछली बनती थी. शनीवार  को डिनर में पराठे और रविवार को लंच में चिकन.बाकी दिन ब्रेड और मूंग की छिलके वाली दाल .पराठे एक बड़ी थाली के आकर के होते थे जिन पर ड्रम के डंके के आकर की एक कूंची से घी लगाकर सेका जाता था.ऐसे पराठों की थप्पी को एक ब्रेड काटनेवाली आरी से चार  भागों में काट दिया जाता था.हम में से कोई शूरवीर ऐसा नहीं था जो चार टुकड़े या पूरा एक पराठा खा पाता ब्रेड बनाने के लिए  बेकरी शिवाजी में ही थी.यह ब्रेड मैदा की  नहीं आटे क़ी होती थी.ताज़ा होती थी,साफ़-सुथरी होती थी और आसानी से हज़म हो जाती थी.

शिवाजी में एक “सिक बे”यानी डिस्पेंसरी  भी थी और एक सिनेमा होल भी था.सिनेमा हौल में ज़्यादातर अंग्रेजी पिक्चर आती थी.सिनेमा देखने के लिए चूंकि ऑफिसर्स के परिवार भी आते थे इसलिए हमें सेलर्स के साथ नीचे बैठना पड़ता  था और ऑफिसर्स ऊपर बालकनी में बैठते थे जहाँ हमारा प्रवेश वर्जित था. दरअसल हम अफसरों और जवानों के बीच में थे.न अफसर न जवान. हम थे जेसीओ.लेकिन दुनिया की  हर लड़ाई का इतिहास गवाह है कि युध्ध का सबसे अधिक अनुभव और असली नेतृत्व जेसीओ ही करते हैं और वे ही सबसे ज्यादा कुर्बानी देते हें .

नीचे बैठने में बुरा तो लगता था पर फिर हम इसके अभ्यस्त हो गए. इस थिएटर में मैंने अंग्रेजी क़ी अनेक क्लासिकल फ़िल्में देखीं और मर्लिन मुनरो,सोफिया लोरेन,औदरी हेपबर्न, जीना लोला ब्रिगेदा ,सांद्रा ड़ी ,रेक्स  हेरिसन,चार्ल्सटन हेस्टन ,ओमर शरीफ, एलिज़ाबेथ टेलर ,मर्लिन ब्रांडो, शर्ली मक्लीन आदि अभिनेता-अभिनेत्रियों से परिचित हुआ.

शिवाजी में एक जेल भी थी जहाँ अपराधियों को रखा जाता था और बेशक  उन्हें पकड़ने के लिए पुलिस भी थी .

हफ्ते में दो बार सेरेमोनिअल परेड होती थी जिसमें हमें युनिफोर्म  नंबर १० यानि टुनिक वगैरह पहनना पड़ती थी परेड क़ी शुरूआत कप्तान के इंस्पेक्शन के साथ होती थी जो स्लो मार्च क़ी धुन पर होता था और इस दौरान हमें पच्चीस मिनिट के करीब सावधान की मुद्रा में खड़े रहना पड़ता था .शुरू-शुरूमें दो-चार बन्दे गश खाकर गिर भी पड़े ,लेकिन फिर आदत पड गयी.में तो इस दौरान सामने दिखाई देते अत्यंत सुहाने प्राकृतिक दृश्य देखता रहता था और मन ही मन हिंदी की प्रेम कविताएं गुनगुनाता रहता था.

शिवाजी में एक बेन्ड भी था. बैंडमास्टर हमारे ही मेस  में खाना खाते थे.उनसे एक बार् मैंने  पुछा  कि आप हिंदी के गाने यानी प्रयाण गीत यानी मार्चिंग सोंग क्यों नहीं बजाते ?इस पर उनहोंने मुझे सात-आठ गैर  फ़िल्मी गाने गिना दिए  जो वे बजाते थे ,सिर्फ धुन सुनकर में पहचान नहीं पाता था .उनके बताने पर एक तो पहचानने लगा–कदम कदम बढाए जा –जो आज़ाद हिंद फ़ौज का मार्चिंग सोंग था.संगीत में मेरी रूचि देखकर ‘मास्टर’ ने मुझे प्रेक्टिस में आने को तो नहीं कहा ,शायद वह कह भी नहीं सकते थे -लेकिन जब भी प्रक्टिस चल रही होती और में उधर से गुज़रता वह मुझे देखकर सर उठाकर नज़रें मिलाते  थे और मुस्कराते थे .बैंड वाला भी कहीं  न कहीं  एक कलाकार होता है  और शैदाई की क़द्र करना जानता  है. में मास्टर  से पूछना चाहता था कि धुनों के नोटेशोंस कौन लिखता है.बजानेवाला पढ़-पढ़कर बजता है या बजाते-बजाते उसे याद हो जाता है.और कि जब नोटेशोंस सामने हैं तो फिर मास्टर बेटन क्यों हिलाता है ?इसका क्या मतलब है?और वैसे भी बजानेवाले उसकी तरफ देखते ही कहाँ हैं ?लेकिन मास्टर से दोस्ती हो पाती इससे पहले ही एक दिन शाम की  चाय के समय छोटी-मोटी बिदाई पार्टी जैसी हो गयी .मास्टर भारतीय नौसेना से सेवा निवृत्त होकर चले गए .

कोई साल भर बाद वह मुझे बम्बई के गेलोर्ड होटल में घुसते दिखाई दिए .चेहरा काला पड गया था,आँखों के नीचे थैलियाँ झूल रही थीं और सुबह के नौ बजे  भी उनके मुंह से शराब की  बदबू आ रही थी.पता चला उन्हें गेलोर्ड के बैंड में क्लेरेनेट बजने का काम मिल गया है.मैंने उनके बूढ़े लेकिन दमदार फेफड़ों को सलाम किया.कला रसिकों के लिए विनोद या मनोरंजन सही,कलाकार के लिए तो हाड़तोड़ मेहनत और जानलेवा मशक्कत ही है.

 

००००

 

नेवी में भर्ती के लिए आते समय मैं घरवालों को कुछ बताकर नहीं आया था इसलिए जैसे ही मेरी चिट्ठी और नेवी की  वर्दी वाली तस्वीर मिली,मेरी माँ तो फूट-फूटकर रोने लगी.दरवाजे पर पड़ोसनें  इकठ्ठा होकर ताक-झांक  करने लगीं …क्या हुआ…कोई गुज़र गया क्या ??जिसके घर में दो लड़के और उनसे छोटी छह लड़कियां हों  और जहाँ की  आर्थिक स्थिति  ऐसी हो  कि पांच का नोट इधर-उधर हो जाने पर तीन दिन कलेस मचा रहता हो, वहां बड़े बेटे का बगैर किसी को कुछ बताए फ़ौज में  चले जाना किसी सदमे से कम नहीं. होती होगी बहुत अच्छी नेवी की  नौकरी -मेरे परिवार को पड़ता नहीं खाता था .घर के बड़े बेटे क़ी निरंतर दस साल तक अनुपस्थिति मेरा परिवार बर्दाश्त नहीं कर सकता था .इस किस्म की कुर्बानी उनके बस की नहीं थी .पिताजी रेलवे में क्लर्क थे .खादी का कुरता-पजामा पहनते थे और रोज़ साईकिल चलाकर आठ किलोमीटर दूर ऑफिस जाते थे उन्हें और कुछ नहीं सूझा तो उनहोंने आई.एन.एस.शिवाजी के पते पर अपने मरने का तार भेज दिया.’जगत नारायण भटनागर एक्सपायर्ड ……एक बार लड़का आ जाए…फिर देखेंगे. वापस ही नहीं भेजेंगे.  करने दो क्या करते  हें वो लोग !

मुझे खबर मिली कि घर से ऐसा-ऐसा तार आया है  तो सबसे पहले तो मुझे गुस्सा आया .नेवी ज्वाइन करने का निर्णय मेरा था .कोई मुझे जबरदस्ती  पकड़कर नहीं लाया था.फिर मेरे निर्णय का सम्मान करने क़ी  बजाय  झूठे टेलीग्राम भेजकर यहाँ सबके सामने मेरी हंसी उडवाने का क्या मतलब है ?फिर कुछ गुस्सा ठंडा हुआ तो ख्याल आया–कहीं ये टेलीग्राम सच्चा हुआ तो ?और मेरे दिमाग में तरह-तरह के भयानक दृश्य घूमने लगे.पिताजी की लाश पड़ी है. टिकटी बांधी जा रही है. पांच-छह औरतें मिलकर मेरी रोती हुई माँ की चूडीयां पत्थेर से   तोड़ रही हैं. छोटी बहनों को पडोसी अपने घर ले गए हैं  और कुछ खिलाने-पिलाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन वे गुमसुम हें और मुंह ही नहीं खोल रहीं हैं  मेरे छोटे भाई के बाल उतर लिए गए हें और एक  धोती पहनाकर उसके हाथ में एक धुँनाती मटकी का छींका पकड़ा दिया गया है ताऊजी एक आदमी के साथ पिताजी की साईकिल अपने घर भिजवा रहे हैं ……वगैरह …नतीजा यह हुआ क़ी आधे घंटे कमांडर के ऑफिस के बाहर  प्रतीक्षा करवाने के बाद अंततः जब मुझे उनके सामने पेश किया गया ..तो भीतर जाते ही मैं फूट-फूटकर रो पड़ा.

बूढ़े कमांडर पर इसका कोई असर नहीं पड़ा .उनहोंने सर उठाकर मुझे देखा तक नहीं. चुपचाप चांदी क़ी नन्ही सी करछुल से अपना चुरुट खुरच कर साफ़ करते रहे .फिर उनहोंने घंटी बजाकर  अपने स्टेनो को बुलाया  और बोले अजमेर एसपी को टेलीग्राम दो –कन्फर्म द डेथ ऑफ़  जगत नारायण भटनागर .ज़ाहिर-सी बात है कि चौबीस घंटे में बात साफ़ हो गयी .ये लोग शायद बीसियों बार ऐसी हरकतें देख चुके होंगे .

संभव था झूठा तार मंगाने के जुर्म में मुझे सजा मिलती -ताकि दूसरों को भी  सबक मिले-लेकिन नेवी में इन्गीनिअरो  का यह पहला बेच था -इसलिए मुझे माफ़ कर दिया गया .

 

जो कहा नहीं गया-४

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प्रशिक्षण के दौरान हमें जहाज के सञ्चालन और रख-रखाव के बारे में पढे जाता था .सरे जहाज एक जैसे नहीं होते. और उस समय तक तो भारतीय नौसेना में भाप से चलने वाले जहाज भी थे .जहाज के निचले हिस्से में उसका इंजिन रूम होता है और उसमें होते हैं बोयलर,टरबईन ,पम्प,प्रोपेलर  वगैरह .एक पूरा बड़ा होंल..बीसियों किस्म के संयंत्रों से ठसाठस भरा हुआ और असंख्य पाइप लाइनों के संजाल में उलझा हुआ.स्टीम शिप्स का इंजिन रूम इतना गर्म हो जाता है  कि पांच मिनिट भीतर रहकर बहार निकलो और बोयलर सूट उतारकर निचोड़ो तो आधी बाल्टी भर जाए .बगैर हाह में जूट रखे तो किसी नसेनी को हाथ नहीं लगा सकते .

लेकिन मुझे सबसे ज्यादा मज़ा आता था एनबीसी ड़ी में. नुक्लीयर ,बायोलोजिकल केमिकल डिसट्रक शन एंड डेमेज कंट्रोल म.इसमें हमें समुद्री युध्ध की फ़िल्में दिखाई जाती थीं .फिल्मों में समुद्र एक भयानक दैत्य जैसा लगता था और जहाज उसमें थपेड़े खाती -तैरती एक माचिस की डिबिया. सोचने से डर लगता था कि उनमें पच्चीस-पचास नौसैनिक भी होंगे जिन्हें कई -कई रोज़ इन्हीं पछाड़ें खाती विकराल लहरों के बीच फंसे जहाज पर रहना है और जिन्हें महीने-महीने भर ज़मीन के दर्शन नहीं होने हैं जहाज कि हस्ती समुद्र के आगे उतनी भी नहीं जितनी कमरे मं मक्खी की. कोस्ट लाइनर लक्ज़री शिप्स फिर भी मनुष्यों के तैरते  रहवास जैसे लगते हैं  लेकिन लड़की जहाज !!उनकी बात बिलकुल अलग होती है.

व्यवहारिक प्रशिक्षण के लिए शिवाजी में लोहे का एक ओवर हेड टेंक था जिसके नीचे एक के ऊपर एक लोहे के तीन बंद कमरे थे.हमारे बेच को एक दिन तीन हिस्सों में बाँट दिया गया और एक-एक हिस्से को एक-एक कमरे में बंद कर दिया गया.इसके बाद एक वोल्व खोल दिया गया .वोल्व खोलते ही हमारे अँधेरे बंद कमरों की दीवारों में जगह जगह ,ऊपर-नीचे छोटे-बड़े छेद .दरारें और संध बन गयीं जिनसे पानी की छोटी-बड़ी धाराएँ  पूरी ताकत से भीतर आने लगीं. कमरों में पानी भरने और चढ़ने लगा. हम में से आधे तो चकित थे और शेष आधे विमूढ़ .किसी को समाख में नहीं आ रहा था कि जो हुआ वह का है और अब क्या किया जाए. कोई बताने वाला भी नहीं था. कमरों में बीसियों लकड़ी के टुकड़े -कुन्दे और हथोडी-हथोड़े-घन और चेनियाँ पड़ी थीं .आखी किसी को सूझा कि जहाज में तारपीडो लग गया है.भीतर पानी आ रहा है,यदि जल्द से जल्द इन छेदों को बंद नहीं किया गया तो जहाज डूब जाएगा. जहाज का सिद्धांत है कि अगर एक तरफ गोला लग गया है  और पानी भर रहा है तो उस कम्पार्टमेंट को वाटर टाईट दरवाज़े से बंद कर दो और पानी भरने दो –ठीक दोसरी तरफ का भी एक कम्पार्टमेंट बंद कर दो  आयर उसमें पानी भर दो .इससे जहाज का संतुलन बना रहेगा और सारे जहाज में पानी भी नहीं भरेगा.

पता नहीं क्या बात थी कि हमें दिया गया समय समाप्त हो गया और हमसे एक भी छेद बंद नहीं किया गया .इस परीक्षा में हम सब फेल हो गए.बाद में पता चला कि कोई कुन्दा ऐसा था ही नहीं जो किसी छेद में फिट आये  और ठोके जाने पर उसे बंद कर दे .प्रशिक्षण इस बात का दिया जा रहा था कि अगर कभी ऐसी नौबत आई तो हम अपना आपा न खोएं ,बदहवास न हों, दिमाग ठंडा रखें.

बाद में व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए हमें वास्तविक जहाज़ों पर भी ले जाया गया .भारतीय नौसेना के जहाज़ों के नाम  बड़े मजेदार हैं –गंगा ,गोमती,गोदावरी …तीर,त्रिशूल,तलवार …खुकरी, किरपान, कटार….ब्यास, बेतवा,ब्रह्मपुत्र  वगैरह .और सबका राजा..नेवी क़ी शान  भारत का गुमान..एयर क्राफ्ट करियर आई.एन.एस. विक्रांत.वह तो एक चलता-फिरता शहर है जिस पर जाकर आप खो जाओ.और जिस पर से  बाहर आने का मन ही न करे

 

जो कहा नहीं गया-5

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खंडाला की बरसात इस कदर दर्शनीय होती है कि बारिश के मौसम में झुण्ड के झुण्ड बम्बई-पूनावासी पिकनिक मनाने खंडाला आते हैं.

शिवाजी में अटूट  वर्षा थी. हफ़्तों सूरज नज़र नहीं आता था .बरसाती टोपी और गम बूट पहने बगैर हम बैरक से मेस तक नहीं जा पाते  थे जो कि सिर्फ पचास मीटर दूर था. बादल ,धुंध और कोहरे की वजह से दस फुट दूर की चीज़ भी नज़र नहीं आती थी.दरवाज़ा या खिड़की खुली छोड़ दो तो बादल के टुकड़े कमरे के भीतर आ जाते थे .बिस्तर और तकिया बुरी तरह सील गया था .कभी में सोचा करता था बरसात के मौसम में कम्बल या रजाई ओढ़कर बिस्तर में पड़े-पड़े जासूसी उपन्यास पढने में कैसा मज़ा आये .इस रोमांटिक ख्याल की यहाँ छुट्टी हो गयी कागज़ सीलकर घास हो गए. किताब पढ़ी तो जा सकती थी बशर्ते बीच में बादल का टुकड़ा न आ गया हो.लेकिन उसका पन्ना एक हाथ से पलता नहीं जा सकता था .इस अहर्निश अलसाने और पुराने फ़िल्मी गाने सुनने के माहौल में भी हमें रोज़ सुबह पांच ब्सजे ऊठकर दाढ़ी बनाना पड़ती थी.नहाने के लिए लाइन लगाना पड़ती थी ,तेज़ बारिश न हो रही हो तो पीटी के लिए भी जाना पड़ता था  और हालाँकि सेरेमोनिअल परेड बंद थी ,क्योंकि परेड ग्राउंड पर पानी भरा था .लेकिन सुबह से शाम तक मरीन इंजीनिअरिंग की उबाऊ और एकरस कक्षाएं तो थी ही.

इस मौसम में सचमुच कहीं बहार थी तो वह होती थी बार में.उन दिनों हर शाम बार खचाखच भरी रहती थी. पूरे हौल में शराब की गंध और सिगरेट का धुआँ भरा रहता था एक-एक टेबल पर आठ-आठ लोग बैठे रहते थे और कहीं शेरो-शायरी चल  रही है  कहीं लतीफे तो कहीं पुराने सेलिंग के किस्से to  कहीं पुराने  फ़िल्मी गाने भी.  इतनी रौनक तो रविवार कि सुबह बी नहीं होती थी जब बार में तंबोला होता था .में हैरान रह गया जब बार में मैंने कुछ बन्दों के मुंह से ग़ालिब और मेरे का ही नहीं जोक,मोमिन और ज़फर का भी कलाम सुना.में सोचता कहाँ-कहाँ से ,कैसे-कैसे लोग,क्या-क्या छोड़कर फ़ौज में आये हैं क्या आजीविका सचमुच इतनी बड़ी चीज़ होती है ?

 

००००

 

आखिर तीन महीने की बेहद लम्बी प्रतीक्षा के बाद आज़ाद का पत्र आया.आज़ाद का पत्र ?गुलाबसिंह का नहीं ??लेकिन कोई बात नहीं आज़ाद के पत्र में भी गुलाबसिंह के समाचार तो होंगे ही. और क्या पता…कागजों की तहों के बीच एक मुडा-तुड़ा कागज़ ऐसा भी निकल आये  जो दरअसल गुलाबसिंह का पत्र हो !!

यह एक बेहद मोटा लिफाफा था जिस पर टिकट ही टिकट  लगे थे   खोला तो अखबार के आकार के पांच पन्ने !!आगे-पीछे ठसाठस आज़ाद की लिखाई गोल-गोल और लहरदार. मेरी चिर  परिचित. चिर प्रिय .जिसमें वह सारी दुनिया की प्रिय कवितायेँ अपने मोटे रजिस्टर में टीपकर रखता है.आज़ाद का “अ”जैसे किसी स्प्रिंग को खोलकर खींच लिया गया हो ..

 

जो कहा नहीं गया-आठ

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एक बार मैं हफ्ते भर के लिए अपने शहर अजमेर जाकर  लौटा तो देखा कि मदन की खोली पर ताला लगा है.  आसपास पूछने पर पटा चला वह चार रोज़ के लिए आज ही पूना गया है .अब मैं कहाँ जाता ?. रात का समय था. मदन से संपर्क करने का कोई तरीका नहीं था .मैं ताला तोड़ सकता था लेकिन ऐसा करना मुझे ठीक नहीं लगा. बहन का घर मैं पहले ही छोड़ चुका था .जीजाजी रोज़ घर लौटने पर पूछते थे -“सो ?व्हेन  आर यूं सेलिंग ?” मैं कैसे उन्हें बताता कि मैंने “सी गोइंग ड्रायवर्स टिकट”परीक्षा पास नहीं की है  इसलिए मेरे लिए सेलिंग की कोई सम्भावना नहीं है .मैं ऐसे ही टाइम पास कर रहा हूँ वह चाहते थे मैं शीघ्र तय करूँ कि मैं जिंदगी मैं क्या करना चाहता हूँ  और उन्हें बताऊँ .वह मुझे दो बार बहुत बड़े-बड़े लोगों के पास ले भी गए जो कभी भी मुझे नौकरी दे सकते थे ,लेकिन वहां भी मैं ठीक से समझा नहीं पाया कि मैं आखिर चाहता क्या हूँ ?क्योंकि मैं खुद भी कहाँ जानता था ?बहन मेरे इस सचेत रूप से वरण किये गए फिट्मारेपन और लक्ष्य विहीनता से भीतर ही भीतर बहुत दुखी रहती थी .लेकिन समझ नहीं पाती थी  कि इस आत्महंता आवारगी के नशे से मुझे कैसे बाहर निकला जाए !

मैं अँधेरी रेलवे स्टेशन जाकर एक बेंच पर सो गया .सुबह देखेंगे. सोचेंगे. कल्याण में अपने शहर के एक दोस्त बृजमोहन भाई रहते हैं. वहां चले जायेंगे. बारह बजे चौकीदार ने डंडा  फटकारकर भगा दिया. मैं दूसरे प्लेटफार्म पर जाकर सो गया चार बजे वहां से भी भगा दिया गया. तो ट्रेन में घुसकर सो गया. सारी रात एक हाथ से अटेची सम्हालनी पड रही थी  और दूसरे मच्छर  इतने थे कि…..

दूसरे दिन वीटी स्टेशन चला गया.अटेची क्लोक रूम में जमा करा दी फिर वोटिंग रूम में जाकर नहा-धो लिया .रात में वहीँ सो गया .आधी रात को उठा दिया गया .मैंने देखा बाहर बरामदे में बहुत सारे लोग  अखबार बिछाकर सो रहे हैं और उन्हें कोई नहीं उठा रहा .तो तीसरे दिन मैंने भी ऐसा ही किया .

मदन आया तो बहुत नाराज़ हुआ कि मैंने ताला खींचकर तो देखा होता ! जोर से खींचने पर खुल जाता है .बेकार परेशान होता रहा या फिर ताडदेव में बंसल साहब के ऑफिस चला जाता तो मेरा फोन नंबर मिल जाता और अपनी बात हो जाती .बहरहाल !यह ताड़ना पर्व ज्यादा नहीं चला क्योंकि उसे पूना की कमसिन वेश्याओं के साथ अपने दुर्लभ अनुभवों के बारे में बताने की जल्दी  थी और दूसरे यह कि वह  खासे पैसे कमाकर लौटा था .हमने आंटी के अड्डे पर जाकर खूब मजे से नौटाक पी .इरानी होटल में पेट भरकर खाना खाया  और घर आकर सो गए.

००००

 

दिहाड़ी के कामों में खटते.अपनी परिभाषा की तलाश में धक्के खाते और नौटाक पीते-ईरानी होटल का खाना खाते मेरी पूरी जिंदगी फ़ना हो जाती,लेकिन मुझे पीलिया हो गया. फिर भी मैं काम करता रहा. घूमता फिरता रहा. नौटाक पीता रहा. ईरानी होटल की तंदूरी रोटी और पाये खाता रहा. नतीजा यह हुआ कि एक दिन बिस्तर पकड़ लिया.एक-दो  रोज़ की बात होती तो ठीक था, रोज़-रोज़ कोई काम छोड़कर मेरे पास बैठ जाएगा तो खायेगा क्या ?फिर यहाँ तो नौबत बिस्तर में टट्टी-पेशाब करने की आ गयी थी.

आखिर मेरी तबीयत ज़रा सुधारते ही  एक दिन चार-पांच दोस्तों ने मुझे टेक्सी में डाला,वीटी ले गए,मेरा टिकट खरीदा  और मुझे टांगाटोली  करके अजमेर जानेवाली गाडी में बिठा दिया.

गाड़ी ने सरकना शुरू किया तो सबने हाथ  हिलाकर टाटा किया और बारी-बारी से खिड़की के पास आकर हरेक ने भीगी आँखों से कहा –“वापस मत आना स्वयं प्रकाश ! !  00

The post स्वयं प्रकाश की पुस्तक ‘धूप में नंगे पाँव’ का एक अंश appeared first on जानकी पुल - A Bridge of World's Literature..


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