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इस्तांबुल से कोपेनहेगन

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पूनम दुबे के यात्रा वृत्तांत हम जानकी पुल पर पढ़ते रहे हैं। हाल में ही वह इस्तांबुल से कोपेनहेगन गई हैं। यह छोटा सा यात्रा संस्मरण उसी को लेकर। हाल में ही पूनम का उपन्यास आया है प्रभात प्रकाशन से ‘चिड़िया उड़’, जो उनकी अपनी जीवन यात्रा को लेकर है- मॉडरेटर

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इस्तांबुल से नाता छूटे आज एक महीने से भी ज्यादा हो गए. लेकिन अब भी रह-रहकर उन गलियों, सड़कों ओटोमन फैशन में बनी शानदार मीनारें, मस्जिद और उनके खूबसूरत गुंबज की झलकियां आँखों के सामने तैर जाती हैं. मेट्रो स्टेशन के पास वह नीली आँखों वाला टर्किश बूढ़ा जिसका चेहरा झुर्रियों से सना था, याद आता है मुझे.  सर्दियों में चेस्टनट्स तो गर्मियों में सीमीत (टर्किश बेगल कह लीजिए) बेचा करता था वह. न उसे मेरी भाषा समझ आती थी न ही मैं इतनी अच्छी टर्किश कभी बोल पाई. इंसानियत की कोई जबान नहीं होती! स्नेह में शब्दों की भाषा से ज्यादा जरूरी आँखों की भाषा को पढ़ना होता है यह मुझे इस्तांबुल ने सिखाया!

आज पूरा एक हफ़्ता हो गया कोपन्हागन आये मुझे, कोई शिकायत नहीं इस शहर से लेकिन इस्तांबुल की यादें अब भी ज़ेहन में बहुत ताजा है. नई भाषा, नए लोग, नया कल्चर सब कुछ बदल गया फिर से एक बार. धरती एक ही है लेकिन इतनी विविधताएं मन को अभिभूत कर जाती हैं कभी-कभी. ज़मीन पर खींचीं एक बॉर्डर से कितना कुछ बदल जाता है, यह बात अब भी मुझे आश्चर्यचकित कर देती है.

यहाँ बैठे-बैठे यूँ ही सोचती हूँ क्या अब भी बोस्फोरस के गहरे रंग के पानी पर ब्रिज से आने वाली नीले रंग की रोशनी पानी को रंगीन बनाने की कोशिश करती होगी? कितनी ही दिलकश शाम बिताई थी हमने बोस्फोरस के किनारे! अब यहाँ बोस्फोरस तो नहीं लेकिन कनाल जरूर है जिनपर चलने वाली बोट दूर से रोमांचक लगती है. मशहूर टर्किश साहित्यकार ओरहन पमुक को भी बोस्फोरस के किनारे टहलना सुकून देता था. जब ‘चिड़िया उड़’ लिख रही थी तो मैं भी चली जाती थी बोस्फोरस के किनारे प्रेरणा लेने यही सोचकर कि क्या जाने कोई चमत्कार हो जाए. मैंने भी इस्तांबुल की आबोहवा में हुजून (मेलानकली) को महसूस किया है वक्त बेवक्त. लोगों के चेहरे पर महसूस किया है इस हूजुन को! कुछ पल मैंने भी बिताये इसी हुज़ून के साये में. सिर्फ शहर से नहीं वहां लोगों से भी एक कशिश सी हो गई थी. इस्तांबुल है ही इतिहास की महबूबा तो दिल लगना एक जाहिर सी बात है.  क्या खूब कहा है नेपोलियन बोनापार्ट ने, “यदि पूरी दुनिया केवल एक देश होता तो इस्तांबुल उसकी राजधानी होती!” अब जब इस्तांबुल से दूर आ गई हूँ तो लगता है कितना सच कहा है.

हाल ही में यहाँ मैं लीसा से मिली, वह फ्रेंच है और यहाँ कोपन्हागन  में एनवायरमेंट पर अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही है. उसने मासूमियत से मुझे पूछा हिंदुस्तान कैसा है. मैं हंसी और बोली कुछ-कुछ यूरोप जैसा ही समझो जैसे यहाँ देश बदलते ही भाषा बदल जाती है और खाने का तरीका अलग हो जाता है वैसे ही मेरे भारत में स्टेट बदलते ही भाषा और खान-पान बदल जाता है. इस बात पर हम दोनों ही हंसने लगे. लीसा शाकाहारी है यह जानकर मैं भौचक्का हो गई. मैंने उससे कहा यह बीमारी तो मुझे है, तुम क्यों घास-फूस खाती हो? वह बोली पर्यावरण पर पढ़ाई कर रही हूँ इतना तो बनता है इसी बात पर मैंने भी उसे न्योता दे दिया दाल भात खाने का! एक अच्छी फीलिंग आई, आजकल वेजटेरियन और वीगन का ट्रेंड चल रहा है.

लीसा अच्छी लगी लेकिन मुझे ओज़लेम की झप्पियाँ याद आती है. टर्किश लोगों का तरीका ही यही होता है ग्रीट करने का, बस प्यार से गले मिल लो मुझे भी आदत सी हो गई थी उन प्यार भरी झप्पियों की. ओज़लेम मुझे टर्किश कम हिन्दुस्तानी ज्यादा लगती थी. कई बार मेरी साड़ियों को लपेटकर उसने बॉलीवुड के गानों पर ठुमके लगाए थे. एक अनोखा नाता सा जुड़ गया था उस शहर से जहाँ पूर्व और पश्चिम मिल जाते है बस पलक झपकते ही. जो ट्रेडिशनल और मॉर्डन कल्चर का एक अद्भुत संगम है. आजकल अर्नेस्ट हेमिंग्वे की ये पंक्तियाँ खूब याद आती है,” कभी भी किसी स्थान के बारे में न लिखें जब तक आप उससे दूर न हों, क्योंकि दूरी आपको दृष्टिकोण देता है।”

शुरुआत के दिनों में तो इस्तांबुल से भी मेरा जी घबराया था, हादसे ही कुछ ऐसे हुए थे वहां. लेकिन पिछले डेढ़ सालों में मानो इस्तांबुल ने मेरा दिल जीत लिया या फिर यह कहूँ कि मैं ही अपना दिल हार बैठी. यक़ीन है कि एक दिन कोपन्हागन से भी मेरा नाता जुड़ ही जाएगा. शुरुआती अड़चनें तो हर नए रिश्ते की पहचान होती है.

मिज़ाज से मुसाफ़िर हूँ इसीलिए लत सी है माहौल में ढल जाने की. चाहे वह मुंबई की भीड़ से ठसाठस भरी लोकल ट्रेन हो या मैनहाटन की चमचमाती एवेन्यू या स्ट्रीट्स हों या फिर इस्तांबुल की वह ऐतिहासिक गलियां जिन पर अब भी वक्त के निशान है जो हर क़दम एक नई कहानी बताते हैं. जरूरत है तो केवल ढलने की!

बहरहाल इस समय कोपन्हागन  में यूरोपीय समर का मौसम है. इरादा है इस मौसम में यूरोप की गलियों में मंडराने का। ठीक वैसे ही जैसे कल्पना निकल पड़ी थी अपनी एक नई उड़ान के लिए. यूरोप तो पहले भी घूमी हूँ लेकिन यहाँ रहकर बिना वीसा की जद्दोजहद के घूमने का आनंद ही कुछ और है. दिन बहुत ही लंबे होते है रात के दस बजे तक उजाला ही उजाला! कुछ ही महीने में आ जाएंगी सर्दियों, उस समय करूंगी शरमाते हुए सूरज के मद्धिम रोशनी में अलग तरीके से जीने की तैयारी.

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