सुरेन्द्र मोहन पाठक के आत्मकथा का पहला खंड ‘न बैरी न कोई बेगाना’ बाजार में आने वाला है. उनके पाठकों में बहुत उत्साह है. यह बात शायद लोगों को उतना पता न हो कि पाठक जी अकेले ऐसे लेखक हैं जिनका फाइन क्लब है. जिनके प्रशंसक निस्वार्थ भाव से उनके किताबों का जश्न मनाते हैं. देश के किसी भी हिस्से में पाठक जी का कोई भी आयोजन हो उसमें अपने आप पहुँचते हैं. पाठक जी से पाठकों के प्यार से जुड़े इन पहलुओं को लेकर मैंने विशी सिन्हा से बात की, जो भारत में अपराध कथाओं के सबसे गंभीर पाठकों में एक हैं और पाठक जी के एक फैन क्लब को संचालित भी करते हैं. पढ़िए उनसे एक दिलचस्प बातचीत और सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के पाठकों की दुनिया की एक अंदरूनी झलक- प्रभात रंजन
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- किसी जमाने में फिल्म अभिनेताओं के फैन क्लब हुआ करते थे लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक फैन क्लब की शुरुआत कैसे हुई?
उत्तर: साथी शरद श्रीवास्तव ने 27 जुलाई 2006 को जब ऑरकुट पर पाठक जी के नाम से कम्युनिटी बनाई थी, तो उन्हें रत्ती भर भी इमकान नहीं था कि वे एक इंक़लाब की बुनियाद रख रहे हैं. शुरू-शुरू में इन्टरनेट पर भारतीयों की सक्रियता वैसे ही बहुत कम थी, तिस पर पाठक जी के प्रशंसक तो बिखरे पड़े थे. एक-एक प्रशंसक को ढूंढ-ढूंढ कर ऑरकुट कम्युनिटी में शामिल होने के लिए मनाना पड़ता था. धीरे-धीरे पाठक जी के प्रशंसक जुड़ते गए और 2010 तक आते-आते प्रशंसकों संख्या 300 पार कर गयी. बाद में जब ऑरकुट की लोकप्रियता में गिरावट आई और फेसबुक-ट्विटर सोशल मीडिया का भविष्य प्रतीत होने लगा तो 27 जून 2011 को फेसबुक पर ऑरकुट फैन-क्लब के ही सदस्यों – शरद श्रीवास्तव, पवन शर्मा और युअर्स ट्रूली – द्वारा फेसबुक ग्रुप बनाया गया. शुरुआत में ऑरकुट पर सक्रिय सदस्यों की ही मनुहार कर फेसबुक ग्रुप में शामिल होने को राज़ी किया गया. कालान्तर में सदस्यों का आना स्वतः स्फूर्त रूप से शुरू हो गया. अब तो ये हालात हैं कि प्रशंसकों के ग्रुप ज्वाइन करने की ढेरों रिक्वेस्ट पेंडिंग रहती है और ग्रुप एडमिन को वक़्त नहीं मिल पाता कि रिक्वेस्ट की जेनुइननेस चेक कर अप्रूवल दी जाय.
- फैन क्लब क्या क्या काम करती है?
उत्तर: प्रश्न छोटा है पर उत्तर नहीं. शुरूआती दिनों में जब फ्लिपकार्ट/अमेजॉन जैसे ई-कॉमर्स पोर्टल्स नहीं थे फैन क्लब के जरिये ही पाठक जी की नई किताब की मार्किट में आमद की सूचना मिला करती थी, उन बुकस्टोर्स की जानकारी मिल जाती थी जहां पाठक जी की नई किताब उपलब्ध हो जाती थी.
फिर नई-पुरानी किताबों के रिव्यू और उनपर चर्चा, किरदारों पर चर्चा आदि से प्रशंसकों को धीरे-धीरे ये अहसास हुआ कि उन जैसे और भी लोग हैं जो लुगदी कागज़ पर छपने वाली पाठक जी की किताबों के दीवाने हैं.
ऑरकुट कम्युनिटी के जरिये ही पाठक जी के उपन्यासों को अंग्रेजी में अनुवादित किये जाने का ख़याल परवान चढ़ सका. ऑरकुट कम्युनिटी के एक सदस्य सुदर्शन पुरोहित – जो बैंगलोर स्थित एक आईटी कंपनी में कार्यरत थे और पाठक जी की किताब के अंग्रेजी अनुवाद के इच्छुक थे – को शरद श्रीवास्तव और रवि श्रीवास्तव द्वारा मार्गदर्शन मिला; फलस्वरुप चेन्नई स्थित प्रकाशन – ब्लाफ्ट पब्लिकेशन – से पाठक जी के दो उपन्यासों – “65 लाख की डकैती” और “दिन दहाड़े डकैती” – के अंग्रेजी अनुवाद क्रमशः “65 Lakh Heist” और “Daylight Robbery” छपकर आये. ये 2009-2010 की बात है. वास्तव में तब तक पौने तीन सौ उपन्यास लिख चुकने के बाद भी पाठक जी को मीडिया ने कभी कोई तवज्जो नहीं दी थी, लेकिन इन दो उपन्यासों के अंग्रेजी में प्रकाशित होते ही बदलाव की शुरुआत हो गयी. अंग्रेजी के हर अख़बार में खबर आई, इंटरव्यू प्रकाशित हुए. पत्रिका तहलका ने भी स्टोरी की, लेकिन सबसे बड़ी बात ये हुई कि टाइम पत्रिका ने “65 Lakh Heist” को पढ़े जाने की संस्तुति की. कई देशी-विदेशी ब्लॉग्स ने भी इन किताबों पर और पाठक जी पर लिखा.
लेकिन पाठक जी की पुरानी किताबों की उपलब्धता अत्यंत सीमित थी, जबकि प्रशंसक उनके उपन्यास ढूंढ-ढूंढ कर पढ़ना चाहते थे. पॉकेट बुक्स के दिन-प्रतिदिन सिकुड़ते जा रहे कारोबार के चलते प्रकाशक री-प्रिंट छापने को राज़ी नहीं थे. ऐसे में कुछ प्रशंसकों द्वारा ही ये विचार पोषित हुआ कि पाठक जी के अनुपलब्ध उपन्यासों की स्कैन कर सुरक्षित किया जाय. अब भले ही स्कैन करने के पीछे मंशा दूसरे प्रशंसकों के लिए उपन्यास की उपलब्धता की सदिच्छा ही रही हो, स्कैनिंग था तो विधि-विरुद्ध ही – जिससे लेखक रॉयल्टी से भी वंचित होता और कॉपीराइट का भी उल्लंघन होता. बौद्धिक संपदा क़ानून विशेषज्ञ होने के नाते ये जिम्मेदारी मैंने उठाई और चौतरफा विरोध के बावजूद साथी शरद श्रीवास्तव के सहयोग से स्कैन/पाईरेटिड बुक्स के खिलाफ एक आमराय कायम की गयी जिसे पिछले आठ वर्षों से फैन क्लब सक्रियता से निभाता आ रहा है. यही नहीं, यदि किसी वेबसाइट/ब्लॉग पर पाठक जी की कोई स्कैन/पाईरेटिड किताब उपलब्ध कराई जाती है तो तुरंत कानूनी कार्यवाही कर उसे हटवाया जाता है. अभी बीते सप्ताह में ही अहमदाबाद निवासी प्रशंसक साथी विद्याधर याग्निक की सूचना पर एक वेबसाइट से 19 ऐसी पाईरेटिड किताबों को डिलीट करवाया गया है.
स्कैन/पीडीएफ़ नहीं तो फिर कैसे प्रशंसक पाठक जी की अनुपलब्ध किताबें पढ़ें. इस दिशा में 2012 में एक कम्युनिटी लाइब्रेरी शुरू की गयी – एसएमपी लाइब्रेरी, जिसमें पाँच किताबें डोनेट कर कोई भी सदस्य बन सकता था और एक बार में अधिकतम चार किताबें पढने के लिए मंगवा सकता था – 21 दिनों के लिये – बस उसे दोनों तरफ के कूरियर का खर्च वहन करना होता था. प्रशंसकों में एसएमपी लाइब्रेरी खासी लोकप्रिय हुई. शुरू में साथी शरद श्रीवास्तव और बाद में साथी राजीव रोशन द्वारा ये एसएमपी लाइब्रेरी संचालित की गयी. लेकिन ये कोई स्थायी समाधान नहीं था. एक निश्चित समय के बाद किताब लाइब्रेरी को वापस भेजनी पड़ती थी, जबकि प्रशंसक पाठक जी की किताब सहेजकर रखना चाहते थे. फिर अधिकतर किताबें लुगदी कागज़ होने की वजह से ट्रांजिट और पढने के दौरान खराब होती जाती थीं.
वर्ष 2013 में ऑस्ट्रेलिया निवासी साथी सुधीर बड़क – जो ऑरकुट के दिनों से ही फैन क्लब के सदस्य रहे थे – ने पाठक जी की किताबें को ई-बुक में कन्वर्ट करने का बीड़ा उठाया. तब किनडल हिंदी फॉण्ट सपोर्ट नहीं करता था (वास्तव में किनडल ने 2016 के दिसम्बर से हिंदी फॉण्ट सपोर्ट करना शुरू किया है) तो सुधीर बड़क ने किनडल की तरह ही एक प्लेटफार्म – कोबो – ढूँढा जो अनऑफिशियली हिंदी फॉण्ट सपोर्ट करता था. पर समस्या थी कि कैसे पाठक जी की किताबें टाइप हों. ये काम भी खुद सुधीर जी ने ही शुरू किया – रोज़ ऑफिस से लौटकर वे अपने कम्प्यूटर के हवाले हो जाते और चार घंटे टाइप करते. बाद में उनके इस प्रयास में गिलहरी सदृश योगदान देने के लिए अन्य साथी – दिल्ली से शरद श्रीवास्तव, कुलभूषण चौहान, मुबारक अली, नवीन पाण्डेय, शैलेन्द्र सिंह, विशी सिन्हा, चंडीगढ़ से मुश्ताक अली, मनोज गर्ग जैसे प्रशंसक भी आ जुड़े, जो अपने व्यस्त महानगरीय जीवन और पारिवारिक जीवन से कुछ समय चुराकर इस काम में योगदान देने लगे. कुछ ही समय में पाठक जी की 35+ किताबें कोबो पर ई-बुक के रूप में उपलब्ध हो गयीं, जिसने न सिर्फ भारत में हिंदी ई-बुक्स के लिए राह खोल दी, वरन् पाठक जी के प्रशंसकों को भी एक विकल्प दिया – प्रशंसकों ने पाठक जी की ई-बुक्स में खासी रूचि दिखाई. इसी लोकप्रियता से प्रभावित हो न्यूज़हंट (अब डेलीहंट) ने नवम्बर 2013 में ई-बुक्स के क्षेत्र में पदार्पण करने से पूर्व पाठक जी की ई-बुक्स प्रकाशित करने का करार करना आवश्यक समझा. इस तरह से फैनक्लब ने पाठक जी के ई-बुक प्रचार-प्रसार में की-रोल प्ले किया.
पाठक जी की वेबसाइट को मेन्टेन करने का कार्य भी फैन क्लब के सदस्य ऑस्ट्रेलिया निवासी साथी सुधीर बड़क द्वारा ही किया जाता है.
दुनिया भर के पुस्तक प्रेमियों के लिए गुडरीड्स एक अच्छी रिफरेन्स साईट है, जहाँ पुस्तक प्रेमी पुस्तकों पर रिव्यू लिखते हैं और रेटिंग्स देते हैं. 2012 से ही मैं गुडरीड्स पर एक लाइब्रेरियन के तौर पर जुड़ा हूँ, तो उसी वक़्त से पाठक जी की सभी किताबों को गुडरीड्स पर भी लिस्ट कर दिया, ताकि गाफ़िल पुस्तक प्रेमी पाठक जी की किताबों के बारे में जान सकें. पाठक जी हिंदी के पहले लेखक रहे जिन्हें गुडरीड्स पर लिस्ट किया गया.
ऑरकुट के ही दिनों में फैन-मीट आयोजन का विचार आया और पहली फैन मीट में ही फेसबुक ग्रुप और फेसबुक पेज बनाने का निर्णय हुआ. फैन मीट में पाठक जी के कार्यों का प्रचार-प्रसार ही चर्चा का केंद्र हुआ करता है कि किस प्रकार से पाठक जी के लेखन को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाया जाय. बीते वर्षों में अलग-अलग शहरों में पचास से ज्यादा फैन – मीट आयोजित हुई हैं और अब देशाटन भी फैन मीट का हिस्सा बन चुका है. दिल्ली के अलावा भाखरा-नांगल, लखनऊ, मसूरी – धनोल्टी, अमरकंटक, माउंट आबू, पंचकुला, चित्रकूट-खजुराहो और भोपाल जैसी जगहों पर फैन मीट आयोजित हो चुकी है.
पाठक जी से सम्बंधित किसी भी आयोजन में फैन क्लब बढ़-चढ़ कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता ही रहा है – टी-शर्ट, बैज और अन्य तरीकों से अपनी दमदार प्रेजेंस दर्ज कराता ही रहा है.
और इन सबसे इतर, फैन क्लब के सदस्य समय-समय पर लोकोपकार के कार्यों में भी शिरकत करते रहते हैं.
कम से कम दो सौ एसएमपियंस ने आजकल फेसबुक पर “न बैरी न कोई बेगाना” के कवर को अपनी प्रोफाइल पिक बना रखा है.ये फैनक्लब का अनूठा तरीका है अपने प्रिय लेखक की आत्मकथा का प्रचार करने का.
मैं खुद 2012 से आजतक हर पुस्तक मेले में पाठक जी के नाम/चित्र वाली टी-शर्ट पहने, उनका इश्तिहार बने घूमता रहा हूँ.
- आपकी जानकारी में किसी और लेखक का कोई फैन क्लब है?
उत्तर: पिछले दो-तीन वर्षों में पाठक जी के फैन क्लब से प्रेरणा लेकर इसी तर्ज पर कई एक फैन ग्रुप अस्तित्व में आये जरूर, पर ऊपर बताई उपलब्धियों सरीखी एक भी गतिविधि अंजाम दे सकें हों, ऐसा कम से कम मेरी जानकारी में नहीं है. हाँ, ऐसी कोई कोशिश होती है तो उसका जरूर स्वागत किया जाना चाहिए.
4. कितने सदस्य फैन क्लब से जुड़े हैं?
उत्तर: आज फेसबुक पर पाठक जी के दसियों ग्रुप हैं, इनमें से मकबूल ग्रुप तीन ही हैं जिनमे से प्रत्येक की सदस्य संख्या हजार से ऊपर है. फेसबुक के अलावा गुडरीड्स और व्हाट्सएप पर भी पाठक सर के नाम पर कई ग्रुप्स हैं. सदस्य संख्या का निश्चयात्मक अनुमान संभव नहीं है.
5. क्या पाठक जी को लेखन में फैन क्लब भी इनपुट देती है?
उत्तर: पाठक जी शायद इकलौते ऐसे लेखक होंगे जो इतनी व्यस्तता के बावजूद शुरू से लेकर आजतक अपनी फैन मेल को न सिर्फ खुद पढ़ते हैं बल्कि हर फैन-मेल का खुद जवाब भी देते हैं, भले ही पत्र में उनकी कृति को लानतें ही क्यों न भेजी गयी हो, अपशब्द ही क्यों न कहे गए हों. फैन – क्लब के भी कई सदस्य सोशल मीडिया के प्रादुर्भाव से दशकों पहले से पाठक जी के साथ खतो-किताबत करते रहे हैं. अपने लेखकीय में भी पाठक जी पाठकों के पत्र, घनघोर आलोचना वाले भी पत्र शामिल करते रहे हैं. फैन क्लब अलग से अपने इनपुट्स नहीं देता, ये व्यक्तिगत स्तर पर ही होता है.पाठक जी का फैन क्लब से किस तरह से रिश्ता है?
6. वे अपने प्रशंसकों के साथ किस प्रकार सम्बन्ध बनाए रखते हैं?
उत्तर: आपके प्रश्न के उत्तर में मैं हाल ही में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में शिरकत करने वाले प्रशंसकों के प्रति पाठक जी द्वारा उनके फेसबुक पेज पर पोस्ट किये गए आभार को ही कोट करना चाहूँगा, जो बानगी है इस बात की कि पाठक जी अपने प्रशंसकों को कितना मान देते हैं –
“मैं अपने उन तमाम पाठकों का दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ जिन्होंने दूरदराज़ जगहों (दिल्ली, भोपाल, इंदौर, धुले, बनारस, चंडीगढ़, लुधियाना, नया नांगल, अहमदाबाद वगैरह) से जयपुर पहुँच कर मेरी इवेंट में शिरकत की और न सिर्फ मेरी हौसलाअफ्ज़ाई की, यादगार रौनक भी लगाईं. मैं दिल से कहता हूँ कि आपलोगों के बिना मेरी कोई औकात नहीं है. मैं उम्मीद करता हूँ कि आप मेहरबानों की रहमत और रहनुमाई मुझे यूँ ही हमेशा हासिल होती रहेगी.”
7.आपकी आगे की योजनायें क्या हैं?
उत्तर: पाठक जी की आत्मकथा कई मामलों में अनूठी साबित होने जा रही है. मुझे तनिक भी आश्चर्य न होगा यदि आने वाले समय में इस आत्मकथा को हिंदी में अब तक लिखी गयी श्रेष्ठ आत्मकथाओं में शुमार किया जाय. लुगदी का लेबल चस्पां कर दुत्कार दिए गए अपराध साहित्य को जो कुछ भी थोड़ा-बहुत सम्मान मिल सका है, वो पाठक जी के सदके ही मिल सका है. मेरा मानना है जो लोग अपराध साहित्य को स्तरहीन समझ कर नकार देते हैं, वे भी जब पाठक जी की आत्मकथा का प्रथम भाग “न बैरी न कोई बेगाना” पढेंगे तो पाठक जी की भाषा की खूबसूरती से अछूते न रह सकेंगे. ये पाठक जी का अंदाजे-बयाँ है जो उन्हें अपराध साहित्य के दूसरे लेखकों से कहीं परे, एक अलग ही स्तर पर स्थापित करता है. फिलहाल हमारी योजना आत्मकथा को उन लोगों तक पहुँचाने की है जो अमूमन अपराध साहित्य के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ते हैं. एक बार पन्ने पलटने भर की देर है, पाठक जी की कलम में इतना जोर है कि आगे मुरीद खुद-ब-खुद बनते जाने हैं.