कवि अमृत रंजन के कविता संग्रह ‘जहाँ नहीं गया’ की समीक्षा लिखी है सुपरिचित कवयित्री स्मिता सिन्हा ने- मॉडरेटर
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आसमान के सात रंग
मेरी ही करतूत हैं ।
जी हाँ !
अचम्भित ?
यह वही सात दुपट्टे हैं ,
जो हर दिन हवा में फेंका करता था ।
मुझे क्या पता था
कि तुम्हारे यही लाल , पीले , नीले , हरे , बैंगनी दुपट्टे
आसमान का मन मोह लेंगे ।
कमाल कर दिया ।
आजकल भी बरसात के बाद ,
आसमान से रुका नहीं जाता
उन दुपट्टों को चूमने से ।
हम भी दृश्य का मज़ा लेते हैं !
अमृत रंजन उस समय महज बारह साल के रहे होंगे , जिस वक्त मैंने उनकी यह कविता यहीं जानकीपुल पर पढ़ी थी । मुझे अच्छी तरह से याद है कि इस कविता को पढ़ने के बाद मैं देर तलक ठहर गयी थी अपनी सोच में । इंद्रधनुष का ऐसा मनोहारी बिम्ब …..स्तब्ध थी अमृत की उम्र के परिपेक्ष्य में उसके विचारों की परिपक्वता और इतनी विलक्षण कल्पनाशीलता देखकर । फिर हमारी मुलाकात भी हुई और बातचीत के क्रम में जाने कितनी बार पूछ गयी मैं , अमृत किन मनोदशाओं में लिख जाते हो ये कवितायें ? बालसुलभ सहजता से उसने जवाब दिया , बस ऐसे ही जैसे आपसे बातें कर रहा हूँ । मैं चकित देखती रही उसकी अबूझ आंखों में । विस्मृत सी उसकी मुस्कुराहट की गहराइयों को देखकर ।
हाँ तो जिस उम्र में बच्चे नखरे दिखाते हैं , ज़िद ठानते हैं , दोस्ती यारी और हाईटेक डिजिटल उपकरणों में खुद को झोंक देते हैं , उस कच्ची सी उम्र में अमृत परिमार्जित कर रहा था अपने विचारों को । पहचान बढ़ा रहा था अपनी भाषा से । पारम्परिक काव्यात्मकता और लयात्मकता से विलग रच रहा था अपना रचना संसार । पारिभाषित कर रहा था खुद को कविता की उस भीड़ में जहाँ खुद कविता गुम हो चुकी थी । मेरे लिये उसे हर एक दिन एक एक कदम आगे बढ़ाते हुए देखना उतना ही पुरसुकूं था , जितना कि छोटे से पौधे पर पहली कोंपल को फूटते देखना । उसका हरापन इस मायने में भी स्निग्ध लगता कि मैंने बेहद करीब से देखी थी पास की धरा में इस पौधे की बीज की बुआई , उसका सींचना और धीरे धीरे पल्लवित होना ।
खुद को बेहद अंडरटोन रखने वाले अमृत का पहला काव्य संग्रह ‘जहाँ नहीं गया ‘ अभी जब मेरे हाथ में हैं तो मैं समझ नहीं पा रही कि कहाँ से शुरु करुँ ! बिल्कुल अंतिम कविता से शुरु होकर भी पहली कविता तक आया जा सकता है या फिर कहीं भी किसी भी पृष्ठ पर कोई भी कविता से शुरु किया जा सकता है । हर एक कविता आपको हाथ बढ़ाकर रोक लेगी अपने पास सोचने विचारने , समझने बुझने , लड़ने झगड़ने या फिर बिल्कुल मौन होकर रह जाने के लिये । इस संग्रह की हर एक कविता पहली कविता बन सकती है और हर शब्द संग्रह का शीर्षक । कवि हर कविता में अपने सभी अर्थों के साथ मौजूद है । हर एक कविता में अपनी चेतना से दार्शनिकता का बोध कराता । हर एक कविता में पीड़ा और बेचैनी का अलहदा रंग ।
कितना और बाकी है ?
कितनी और देर तक इन
कीड़ों को मेरे ज़िस्म पर
खुला छोड़ दोगे ?
चुभता है ।
बदन को नोचने का मन करने लगा है ,
लेकिन हाथ बंधे हुए हैं ।
पूरे जंगल की आग
केवल मुट्ठी भर पानी से कैसे बुझाऊँ ।
गिड़गिड़ा रहा हूँ ,
रोक दो ।
आह ! क्या कहूँ अमृत । शब्द जहाँ जाकर ख़त्म होते हैं , बेबसी शायद वहीं से शुरु होती होगी । आज जबकि हर ओर शब्दों का कोलाहल है , विचारों का प्रतिरोध है , कलात्मकता का क्षरण है , वैसे में तुम्हारी रचनायें अपनी जड़ों की मजबूती को लेकर बेहद आश्वस्त दिखती हैं । तकनीकी कविताई के दौर में तुमने न सिर्फ़ खुद को रेखांकित किया है , बल्कि यह तुम्हारे शब्दों की बेबाकी ही है जो कह जाती है …….
वह लहरें पानी को डूबा रही हैं ।
देखो कैसे कूद रही हैं
बार बार पानी के ऊपर !
पानी मर जायेगा ,
कोई कुछ करो !
संग्रह से फुट नोट्स सी यह कुछ छोटी कवितायें अपने वितान में बड़ी प्रखरता से इस बात की ताकीद करती दिखती हैं कि , शब्दों को खरचना भी एक हुनर है । इस पूरे संग्रह में मुझे जिस बात ने सबसे ज़्यादा आकर्षित किया , वह यह कि अमृत ने कहीं भी परिष्कृत हिन्दी का इस्तेमाल नहीं किया है । सीधे सरल शब्दों में अपना द्वन्द , अपना संशय , अपनी पक्ष -प्रतिपक्ष हमारे सामने रखा । शब्दों का कोई मायाजाल और प्रपंच कहीं नहीं ।
अगर हम उसके बच्चे हैं
तो वह हमारे सबसे अच्छे
भाइयों और बहनों को ,
मौत से पहले क्यों मार देता ?
मैं पूछता हूँ क्यों ?
ऐसे कोई अपने बच्चों को पालता है ?
ईश्वर भी एकबारगी खुद को गुनहगार मान बैठे , नाराज़गी की इस तटस्थता के सामने ।
दुनिया तुम्हें खींच रही थी ,
मैंने अपने बदन को
तुम दोनों के बीच फेंक दिया ।
धरती बस तुम्हारे
पैर ही चूम पायी थी ।
तुम्हारे ज़िस्म का हकदार मैं हूँ ,
तुम्हारे लिये धरती से
लड़ जाने वाला
असम्भव !
कवि के सृजन में जीवन भी है और प्रकृति भी , यथार्थ भी है और भ्रम भी , सरोकार भी है और आग्रह भी ।
बचपन में मन ने समझाया
समय घड़ी है ,
घड़ी ही समय है ।
फिर वक्त क्या है ?
पर्याय ?
नहीं ।
समय संसार के लिये आगे बढ़ता है
और वक्त एक जीवन का समय होता है ।
बस आगे जाने की जगह
पीछे ।
विचारों की यह विराटता , दो अलग परिस्थतियों का यह झंझावात और तमाम विसंगतियों के बीच घिरा गहन प्रलाप , जब कवि स्वयं से पूछता है …….
रेगिस्तान में सूरज कैसे डूबता है ?
क्या बालू में ,
रौशनी नहीं घुटती ?
अमृत की दो और कविताओं का जिक्र करना चाहूंगी । एक है ‘बलि’ और दूसरी ‘चीड़’। भौगोलिक प्राकृतिक विघटन पर पर इतने सचेत शब्द और सशक्त कविता पिछले कई वर्षों से पढ़ने को नहीं मिले ।
कितना चुभता है
नल से निकलते
पानी की चीख़ सुनी है ?
मानो हमारे जीवन के लिये
पानी मर रहा है ।
यहाँ न केवल सवाल है , बल्कि शोक संतप्त भी सिहरन है । एक छटपटाहट , एक व्याकुलता……जो कुछ थोड़ा सा बच गया है बस उतना ही भर बचा ले जाने की लालसा और अदम्य जिजीविषा है ।
जंगलों की सैर करने गया था
आवाज़ों को पीने की कोशिश की थी
लेकिन
पेड़ों ने बोलने से इन्कार कर दिया ।
चीड़ की चिकनी छाल को छुआ
लेकिन
उनसे मेरे हाथों में काँटे चुभा दिये ।
भावनाओं का कोई अतिरेक नहीं , वरन ख़त्म होते जीवन और परिवेश का मात्र सूक्ष्म विश्लेषण । संबंधित तथ्यों और अनुभवों का अन्वेषण करते चौकस शब्द । शब्द जो सजग हैं संलिप्त भी हमारे क्रियाकलापों को लेकर । शब्द जो परत दर परत पड़ताल कर रहे हैं हमारे आसपास की विद्रूपताओं का । इस भयावह वक्त में जब हम उन्हीं सड़कों पर चल रहे हैं , जिसके नीचे की मिट्टी रोज़ धंसी जा रही है , अमृत रंजन वह सुदृढ़ नींव बनकर उभरे हैं जो न सिर्फ़ अपनी प्रगतिशील पीढ़ी की का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं , बल्कि हमारी साहित्यक क्षरण के विरुद्ध एक मज़बूत बौद्धिक दीवार बन कर भी खड़े हुए हैं । उन्हें बखूबी ज्ञात है कि अपनी विरासत को सहेजना और उसे समृद्ध बनाना क्या होता है । आज अमृत की क़लम से निकले शब्द कुम्हार की चाक पर गढ़े जा रहे टेढ़े मेढ़े चुक्का सरीखे भले ही हों , आने वाले दिनों में उनकी ठनक देर तक और बहुत दूर तक सुनाई देगी ।
स्मिता सिन्हा
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